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124... तप साधना विधि का प्रासंगिक अनुशीलन आगमों से अब तक
कर्म
ग्रन्थकार तप धर्म की महत्ता दर्शाते हुए इस बात को सिद्ध करते हैं कि समूह को नष्ट करने के लिए तप के सिवाय अन्य कोई साधन नहीं हैकान्तारं न यथेतरो ज्वलयितुं, दक्षो दवाग्निं विना, दावाग्निं न यथापरः शमयितुं शक्तो विनाम्भोधरम् । निष्णातः पवनं विना निरसितुं नान्यो यथाम्भोधरम्, कर्मोघं तपसा विना किमपरो, हन्तुं समर्थस्तथा । 183 ।। जिस प्रकार जंगल को नष्ट करने के लिए सामान्य अग्नि नहीं, वहाँ तो दावानल ही उपयोगी होता है, दावानल को शान्त करने के लिए कूप, सरोवर आदि का अल्प जल काम नहीं आता, वहाँ बादल की वर्षा ही दावानल को शान्त कर सकती है तथा बादलों के समूह को छिन्न-भिन्न करने के लिए पंखे का पवन काम नहीं आता वहाँ तो प्राकृतिक प्रचण्ड पवन ही मेघ समूह को बिखेर सकता है, उसी प्रकार कर्म समूह का नाश सामान्य क्रियाकाण्ड रूप धर्म से सम्भव नहीं है। उन्हें नष्ट करने में तप आराधना ही समर्थ होती है। इस चर्चा से सिद्ध होता है कि कर्म समूह को भस्मीभूत करने में तप धर्म ही शक्तिशाली है। सिन्दूरप्रकरण के रचयिता निम्न श्लोक द्वारा तप धर्म के आभ्यन्तर गुणों को दर्शाते हुए उसका महत्त्व बताते हैं कि
संतोषस्थूलमूलः प्रशमपरिकरः,
पंचाक्षीरोधशाखः
स्कन्धबन्धप्रपंचः,
स्फुरदभयदलः, पूरसेकाद्विपुलकुलबलैश्वर्य
शीलसंपत्प्रवालः । सौन्दर्यभोगः,
श्रद्धाम्भः
स्वर्गादिप्राप्ति पुष्प: शिवपद फलदः, स्यात्तपः पादपोऽयम्: ।। 84 ।। इस श्लोक में तप धर्म को कल्पवृक्ष की उपमा से उपमित करते हुए ग्रन्थकार कहते हैं कि फैली हुई तप रूप कल्पवृक्ष की मुख्य जड़ सन्तोष गुण प्रधान है, उस वृक्ष की शाखा आदि ( स्कन्ध बंध) शान्ति के उपकरण हैं, पाँच इन्द्रियों को नियन्त्रण में रखना - वह कल्पवृक्ष की छोटी-बड़ी डालियाँ हैं, जीवों को अभयदान देना- कल्पवृक्ष का पत्र समूह है, शील रूप सम्पत्ति को सहेज कर रखना - कल्पवृक्ष के नवीन पत्रों का उद्भव है, श्रद्धा रूप जल के सिंचन से प्रकट हुआ उच्च कुल, बल, ऐश्वर्य, सौन्दर्य, सांसारिक सुखोपभोग और स्वर्गादि की प्राप्ति- ये सभी कल्पवृक्ष के पुष्प हैं तथा मोक्ष की प्राप्ति यह कल्पवृक्ष का फल है। इस वर्णन से कहा जा सकता है कि तप धर्म सभी धर्मों