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118...तप साधना विधि का प्रासंगिक अनुशीलन आगमों से अब तक
अतः स्पष्ट है कि प्रयोजन की दृष्टि से तप और ध्यान में प्राय: साम्य है। आत्मा में इन दोनों का समन्वय स्थापित करते हुए कहा गया है कि आत्मा, अपनी आत्मा के द्वारा, अपनी आत्मा के लिए, अपनी आत्मा के हेतु से, अपनी आत्मा में, अपनी आत्मा का ही ध्यान करता है।23
तपश्चर्या और ध्यान काल में मूलत: आत्मतत्त्व का ही अनुभव करना होता है। इस प्रकार किञ्च हेतुओं से ध्यान और तप समस्तरीय हैं। यद्यपि तपश्चर्या ध्यान युक्त हो तो पूर्ण फलदायी होती है तथा अनन्तर से मोक्ष सुख उपलब्ध करवाती है। विविध दृष्टियों से तप साधना की मूल्यवत्ता
जैन साधना का लक्ष्य मोक्ष या शुद्ध आत्म तत्त्व की उपलब्धि है और वह तप साधना से ही संभव है। भारतीय परम्परा में तप का क्या स्थान है? तप योग का मूल्य क्या है? इस तथ्य के सम्बन्ध में जैन साहित्य ही नहीं, वरन् हिन्दू और बौद्ध आगमों में भी विशद वर्णन प्राप्त होता है।
तप भारतीय साधना का प्राण है। जिस प्रकार शरीर में उष्मा जीवन के अस्तित्व का द्योतक है, उसी प्रकार साधना में तप भी उसके दिव्य अस्तित्व का बोध कराता है। तप आध्यात्मिक उष्मा है। धर्म के बिना अहिंसा, संयम और सत्य का कोई अस्तित्व नहीं है। तप रहित अहिंसा, अहिंसा नहीं है, तप रहित सत्य, सत्य नहीं है, तप रहित साधना, साधना नहीं है। इसीलिए धर्म की व्याख्या करते हुए आगमों में कहा गया है कि "अहिंसा संजमो तवो।"
अहिंसा, संयम और तप - यह धर्म की त्रिवेणी है। धर्म की इस त्रिपथगा में तप अन्त में है किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि वह तृतीय श्रेणी का धर्म है, किन्तु इससे यही सिद्ध होता है कि तप सर्वोपरि है और वह अहिंसा एवं संयम साधना के लिए भी आवश्यक है। बिना तप के अहिंसा एवं संयम अपने पूर्णत्व स्वरूप को प्राप्त नहीं होते।
तप का दायरा अत्यन्त व्यापक है, इसलिए उसका मूल्यांकन अनेक दृष्टियों से किया जा सकता है।
जैन धर्म की दृष्टि से- जैन धर्म में तप को धर्म का प्राण तत्त्व माना गया है। जैन धर्म का मुख्य स्तम्भ श्रमण कहा जाता है, वह तप की साक्षात प्रतिमा होता है। आपको अवगत होगा कि आज जिसे हम जैन धर्म कहते हैं वह प्राचीन