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तप के भेद-प्रभेद एवं प्रकारों का वैशिष्ट्य...87 निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि द्विविध तपाराधना से द्रव्य शरीर एवं भाव आत्मा दोनों की विशद्धि होती है। बाह्य तप क्रिया योग का प्रतीक है और आभ्यन्तर तप ज्ञान योग का सूचक है। ज्ञान और क्रिया का समन्वय ही मोक्ष का मार्ग है। इसीलिए जैनाचार्यों ने बाह्य और आभ्यन्तर उभय तप करने की प्रेरणा दी है।
अन्य पहलुओं से विचार करें तो ज्ञात होता है कि बाह्य तप में शरीरसम्बन्धी साधना के नियमोपनियमों का दिग्दर्शन है तथा आभ्यन्तर तप में हृदय-विशुद्धिजन्य आचारों का समावेश किया गया है। बाह्य तप अनशन से लेकर आभ्यन्तर तप व्युत्सर्ग पर्यन्त के क्रम में आत्म साधना का सुन्दर समन्वय है। इस क्रम से तपश्चरण करने पर व्यक्ति न केवल कष्ट सहिष्णु बनता है अपितु चित्त एकाग्रता को भी साध लेता है।
इन द्विविध तप की आराधना से मानसिक, वाचिक और कायिक समस्त प्रकार की मलिनताएँ नष्ट हो जाती हैं, प्रज्ञा निर्मल बनती है और चित्त में समाधि के अंकुर प्रस्फुटित हो उठते हैं। तप के अन्य प्रकार
जैनाचार्यों ने तप के उक्त द्वादश भेदों पर अत्यन्त विस्तार के साथ चिन्तन किया है। यह कहना किसी तरह से अतिशयोक्ति पूर्ण नहीं होगा कि तप के विषय में जितना चिन्तन जैन धर्म गुरुओं ने प्रस्तुत किया है उतना शायद किसी अन्य धर्म प्रमुखों ने नहीं किया। उपरोक्त द्वादश भेदों के अलावा पृथक्-पृथक् दृष्टियों से तप के अनेक रूप और भी सामने आते हैं जो निम्न प्रकार हैं - निक्षेप की अपेक्षा तप प्रभेद .. (i) नाम तप- नाम मात्र के लिए तप करना जैसे- किसी व्यक्ति का तपश्चन्द्र, तपोनाथ, तपोदास आदि नाम है, वह नाम मात्र से तप कहलाता है अथवा किसी व्यक्ति का समूह की अपेक्षा 'तप' नाम होना, नाम तप है।
(ii) स्थापना तप- किसी स्थान पर रत्नावली, मुक्तावली आदि की आकृति स्थापित करना, स्थापना तप कहलाता है।
(iii) द्रव्य तप- द्रव्य विशेष का तप करना जैसे- अग्नितप, सूर्यतप आदि करना द्रव्य तप कहलाता है।