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112...तप साधना विधि का प्रासंगिक अनुशीलन आगमों से अब तक उपयोग में यह महान् अन्तर है उसी प्रकार तप के उद्देश्य में भी महान् अन्तर है। भौतिक लाभ के लिए तप करना अमृत से, मिट्टी से सने पैर धोने जैसा है। कामनायुक्त तप का फल सिर्फ स्वर्ग है, भौतिक सुख है जबकि निष्काम तप का फल सम्पूर्ण कर्मों का क्षयकर अनन्त आनन्दमय मोक्ष को प्राप्त करना है।
कई लोग सामायिक करते हैं, दान देते हैं, थोड़ी सी सेवा करते हैं और चाहते हैं हमारा नाम हो, प्रशंसा हो। यदि अट्ठम तप किया है तो देवता स्वप्न में आकर दर्शन दें- यह सब आकांक्षाएँ सत्कर्म के फल को क्षीण करने वाली हैं।
भगवान महावीर के जीवन चरित्र में वर्णन आता है कि जब चन्दन-बाला ने प्रभु महावीर को उड़द बाकुले बहराये तो आकाश से रत्नों की वर्षा हुई। वह सम्पूर्ण धरती रत्नों से, हीरो-पन्नों से भर गयी। यह देखकर एक वेश्या ने भी अपने गुरुजी को बुलाया और खूब मिष्ठान खिलाये। फिर बार-बार आकाश की तरफ देखने लगी। यह देखकर बाबाजी ने पूछा - बार-बार ऊपर क्यों देख रही हो? वेश्या ने चन्दनबाला का प्रसंग बतलाते हुए कहा - मेरे घर रत्नों की वर्षा क्यों नहीं हुई? बाबाजी बोले -
वा सती वो साध थो, तू वेश्या मैं भांड ।
थारे-म्हारे योग सूं, पत्थर पडसी रांड ।। कहने का भाव यह है कि निष्काम भाव से सुपात्र को दिया हुआ उड़द का बाकला भी कितना महान् फल देने वाला सिद्ध हुआ। इसी प्रकार आत्मशुद्धि के उद्देश्य से किया गया तप,जप, दान आदि सभी सत्कर्म महान् फलदायी होते हैं। भगवान महावीर ने इसीलिए कहा है - "नो पूयणं तवसा आवहेज्जा" तप से पूजा आदि की कामना मत करो। तपस्या का पवित्र लक्ष्य आत्मशुद्धि एवं कर्म निर्जरा ही होना चाहिए।
इस समस्त विवेचन का सार यही है कि साधक के सामने तप का उद्देश्य महान् और ऊँचा रहना चाहिए। मुक्ति एवं मोक्ष सुख को लक्ष्य में रखकर ही तप साधना करनी चाहिए।
प्राय: नास्तिक विचारक तपस्या को देह दण्डन, देह कष्ट रूप मानते हैं, लेकिन यह उचित नहीं है। जैन दार्शनिक भाषा में प्रत्युत्तर दें तो यह स्पष्ट है कि तप में देह दण्डन किया नहीं जाता, हो जाता है। तप का प्रयोजन आत्म