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86...तप साधना विधि का प्रासंगिक अनुशीलन आगमों से अब तक जाती है और वह ग्रन्थि का रूप ले लेती है। ग्रन्थि से तनाव उत्पन्न होता है। यह आत्मा तनाव और ग्रन्थि के कारण ही संसार में परिभ्रमण करती है जबकि व्युत्सर्ग (कायोत्सर्ग) से बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकार के तनाव नष्ट हो जाते हैं जिससे चेतना स्व स्वरूप में विचरण करने लगती है। मोह ममता की स्थिति मन्द होने से चञ्चलता स्वयमेव समाप्त हो जाती है। साथ ही राग-द्वेष की मात्रा कम होने से विषमता घटकर समत्व का उदय होता है। विषमता से अनेक समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। कायोत्सर्ग उन सभी के निदान में रामबाण दवा का कार्य करता है।
शारीरिक दृष्टि से कायोत्सर्ग में मन, वाणी और काया इन तीनों को सम अवस्था में किया जाता है। देह को शिथिल करने से मांसपेशियों का तनाव दूर होता है और आन्तरिक ग्रन्थियाँ सम हो जाती हैं।
मानसिक दृष्टि से निरर्थक विकल्पों को अवकाश न मिल पाने के कारण बुद्धि का सद्व्यय होता है, बौद्धिक क्षमता में अपेक्षाधिक अभिवृद्धि होती है। मनःस्थैर्य से संकल्प शक्ति दृढ़ होती है तथा निर्णायक शक्ति के बल पर दुःसाध्य कार्य भी सहज हो जाते हैं।
__ आध्यात्मिक दृष्टि से व्युत्सर्ग तप करने वाले साधक में जड़-चेतन की भेद बुद्धि पैदा होती है। उसे यह शरीर पृथक् है और आत्मा पृथक् है, शरीर नाशवान् है और आत्मा अमर है, शरीर अस्थायी है और आत्मा चिरस्थायी है, इस तरह का सत्य बोध होने लगता है। अभ्यास के आधार पर एक क्षण ऐसा आता है कि वह आत्मा के लिए निःशेष इच्छाओं का त्याग करने हेतु तत्पर हो जाता है और तन-मन से ऊपर उठकर आत्मस्थ हो जाता है।
भगवान् महावीर से पूछा गया कि कायोत्सर्ग करने से क्या लाभ होता है ? प्रभु ने जवाब दिया - कायोत्सर्ग करने से अतीत और वर्तमान में किये गये दोषों की शुद्धि होती है। दोष विशुद्धि होने से यह जीव सिर पर से बोझ उतारे गये भारवाहक के समान अत्यन्त हल्कापन और प्रसन्नता का अनुभव करता है तब उसके भीतर में प्रशस्त ध्यान की धारा प्रवाहित होती है और वह अपूर्व सुखानुभूति में विचरण करता है।184 सार रूप में कहा जाए तो इस तप के माध्यम से देह बुद्धि का विसर्जन, जड़-चेतन का भेद ज्ञान एवं आत्मानन्द की अनुभूति होती है। इसके सिवाय बाह्य जगत के अनेक लाभ प्रत्यक्षत: फलीभूत होते हैं।