________________
106... तप साधना विधि का प्रासंगिक अनुशीलन आगमों से अब तक
तप अन्तराय कर्म का उदय नहीं
कुछ आहार आदि में आसक्त पुद्गलानन्दी जीव तप को अन्तराय कर्म का उदय मानते हैं, परन्तु यथार्थ यह नहीं है। अन्तराय अर्थात बीच में विघ्न आना। तप में आहार आदि का त्याग स्वेच्छा से किया जाता है अतः इसे अन्तराय कहना उचित नहीं।
जब जीव में वस्तु भोग की तीव्र अभिलाषा हो और किसी कारणवशात उस वस्तु का उपभोग न कर पाये तब वह उसके लिए अन्तराय का उदय हो सकता है, परन्तु स्वेच्छा से उपलब्ध सामग्री का त्याग करना, उसके प्रति आसक्ति कम करने का प्रयत्न करना कर्म निर्जरा में हेतुभूत है । यदि तप को अन्तराय कर्म का उदय माना जाये तो ब्रह्मचर्य का पालन आदि भी मैथुन सेवन में अन्तराय का उदय माना जाएगा। अतः सुनिश्चित है कि तपस्या करना अन्तराय कर्म का उदय नहीं है प्रत्युत उदय प्राप्त विषय - कषायादि अध्यवसायों को समाप्त करना है।
मूलतः तप की अन्तर्निहित धारणा आध्यात्मिक एवं वैज्ञानिक है । यह मन का अनुशासन है। यह मन को चञ्चलता रहित, निर्मल, निष्कपट, निःस्पृह एवं पवित्र करने का सर्वोत्तम साधन है। उपवास आदि व्रत करने से मनुष्य को गर्हित वासनाओं से निवृत्ति मिलती है और उसकी आत्मोन्नति होती है, जिससे उसमें न केवल समता की दृष्टि आती है बल्कि निष्काम कर्म, निष्काम भक्ति की निर्मल भावना भी जागृत होती है। साथ ही उसमें अनादि, अनन्त, अनीह, अच्युत, अविनाशी, अव्यय, अक्षर, अद्वैत और सत्य स्वरूप के दर्शन करने की क्षमता विकसित हो जाती है। फलत: वह अहंकार और आसक्ति से रहित होकर निष्काम भाव से आत्मलीन हो जाता है और एक दिन स्व-स्वरूप का दर्शन कर लेता है।
इस प्रकार तप साधना की उपादेयता अनादिकाल से ही सुसिद्ध है ।
तपस्या का फल
जैन शास्त्रों के अनुसार तपस्या का फल दो प्रकार का होता है - एक आभ्यन्तर और दूसरा बाह्य । आभ्यन्तर फल का अर्थ है कर्म आवरणों की निर्जरा, उनका क्षय तथा क्षयोपशम होना। इससे आत्मा की विशुद्धि होती है, विशुद्धि होने पर ज्ञान, दर्शन, चारित्र, बल, वीर्य आदि आत्मशक्तियाँ अपने