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तप के भेद-प्रभेद एवं प्रकारों का वैशिष्ट्य...57 मधुकरमुनि श्री मिश्रीलालजी महाराज ने इस सन्दर्भ में व्यापक चिन्तन प्रस्तुत किया है। वे लिखते हैं कि दण्ड अपराधी के मन को झकझोर नहीं सकता, जबकि प्रायश्चित्त दोष सेवी के अन्तर्हदय को गद्-गद् कर देता है। दण्ड में दण्डदाता की ओर से बलात्कार और भय का भाव बढ़ाया जाता है, इसलिए अपराधी दण्ड पाकर और ज्यादा उद्दण्ड व धृष्ट बन जाता है, जबकि प्रायश्चित्त में गुरुजनों की ओर से करुणा एवं वात्सल्य का भाव दिखाया जाता है। इस कारण दोषी प्रायश्चित्त लेकर भावुक, विनीत एवं निष्कपट बनता है। दण्ड थोपा जाता है, प्रायश्चित्त हृदय से स्वीकार किया जाता है। दण्ड बाहर में अटक कर रह जाता है, वह अन्तरंग को स्पर्श नहीं कर सकता, किन्तु प्रायश्चित्त में उस अपराध से मुक्त होने का संकल्प जगता है और भविष्य में पुन: अपराध न करने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ होता है।88
प्रकार - साधक छद्मस्थ है, इसलिए उसके द्वारा ज्ञात-अज्ञात रूप से भूल हो जाना स्वाभाविक है। संस्कार एवं परिस्थितियों के अनुसार भूलें अनेक प्रकार की होती हैं। कुछ भूलें सामान्य होती हैं तो किञ्चित असाधारण होती हैं। सामान्य भूलें भी देश-काल व परिस्थिति के कारण असामान्य हो जाती हैं, अतः सभी तरह की भूलों का प्रायश्चित्त एक समान नहीं होता। ___भूलों और परिस्थिति के अनुसार प्रायश्चित्त के विविध रूप कहे गये हैं। भगवतीसूत्र और स्थानांगसूत्र में कुल दसविध प्रायश्चित्त का उल्लेख है। उनमें स्थूल रूप से सर्व प्रकार के प्रायश्चित्तों का समावेश हो जाता है। दसविध प्रायश्चित्त का सामान्य वर्णन इस प्रकार है89
1. आलोचना योग्य - गुरु के समक्ष अपने दोषों का निवेदन करना आलोचना प्रायश्चित्त है। प्रतिदिन के आवश्यक कार्यों जैसे- गमनागमन, भिक्षा, प्रतिलेखन आदि में लगने वाले दोषों को गुरु या ज्येष्ठ साधु के सामने प्रकट करने से उनकी शुद्धि हो जाती है।
2. प्रतिक्रमण योग्य – दिवस, रात्रि, पक्ष, महीना और वर्षभर में लगे हुए पापों से निवृत्त होने के लिए मिथ्या दुष्कृत देना प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त है। साधु या गृहस्थ द्वारा पांच समिति, तीन गुप्ति, बारह व्रत, पाँच महाव्रत आदि में लगने वाले दोष 'मिच्छामि दुक्कडं' देने मात्र से दूर हो जाते हैं।
3. तदुभय योग्य – जिस दोष की शुद्धि आलोचना एवं प्रतिक्रमण दोनों