Book Title: Tap Sadhna Vidhi Ka Prasangik Anushilan Agamo se Ab Tak
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 121
________________ तप के भेद-प्रभेद एवं प्रकारों का वैशिष्ट्य...55 प्रतिसंलीनता के इस चौथे भेद का भावार्थ यह है कि जहाँ इन्द्रिय, कषाय एवं योग प्रवृत्ति को सम्यक् और संयमित रखा जा सके उन स्थानों में रहने का प्रयत्न करना, विविक्त शयनासन संलीनता तप कहलाता है। ___ विविक्त शयनासन के पीछे दो दृष्टियाँ मुख्य रूप से रही हुई हैं- पहली दृष्टि- ब्रह्मचर्य की साधना का विकास करना है। ब्रह्मचर्य की साधना हेतु एकान्त स्थान की नितान्त आवश्यकता रहती है। दूसरी दृष्टि- साधक को सुखशीलता से बचाकर स्वावलम्बन, कष्टसहिष्णुता, निर्भयता एवं साहसिकता की ओर अग्रसर करना है। एकान्त-निर्जन स्थानों में रहने पर दूसरी दृष्टि के सभी गुण स्वत: विकसित होते हैं। लाभ - प्रतिसंलीनता तप की साधना से बहिर्मुखी व्यक्ति अन्तर्मुखता की ओर गति करता है। पांच इन्द्रियों के तेईस विषयों की अनावश्यक प्रवृत्ति रुक जाती है। संसार परिभ्रमण के मुख्य हेतु विषय एवं कषाय मन्द पड़ जाते हैं। यौगिक प्रवृत्ति का निरोध होने से अयोगी अवस्था शीघ्रमेव उपलब्ध हो सकती है। विविक्त शय्या में रहने से 1. कलह 2. शब्द बाहुल्य 3. संक्लेश 4. व्यामोह 5. असंयमियों के साथ सम्मिश्रण 6. ममत्व 7. ध्यान और स्वाध्याय में व्याघात - इन सात दोषों से सहज ही छुटकारा मिल जाता है।79 भगवान महावीर ने उत्तराध्ययनसूत्र में विविक्त शय्या तप के लाभ बताते हुए कहा है कि इस तप के सेवन से चारित्र की रक्षा होती है। जो चारित्र की रक्षा करता है, वह पौष्टिक आहार का वर्जन, दृढ़ चारित्र का पालन और अन्तःकरण से मोक्षसाधना में प्रवृत्त हुआ ज्ञानावरणीय आदि आठ प्रकार के कर्मों की गाँठ को तोड़ देता है।80 इस तरह प्रतिसंलीनता तप आध्यात्मिक विकास में श्रेष्ठतम भूमिका का निर्वहन करता है। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि मानव जीवन में बाह्य तप का अनुपम स्थान है। इस तप के आचरण से दैहिक सुख प्राप्ति की इच्छा स्वयमेव समाप्त हो जाती है, इन्द्रियाँ अनुशासित होती हैं, वीर्य शक्ति का पूर्ण सदुपयोग होता है। आत्मा संवेग और समाधि को प्राप्त होती है। कषाय का निग्रह, विषयों के प्रति उदासीनता तथा आहार आदि के प्रति अनुराग की मात्रा कम होने से समाधिमरण के लिए स्थिरता प्राप्त होती है। तीर्थङ्कर आज्ञा का परिपालन होता है। इस तरह यह तप समग्र दृष्टियों से उपकारी सिद्ध होता है।

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