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तप के भेद-प्रभेद एवं प्रकारों का वैशिष्ट्य...53 अनुसार इन्द्रिय, कषाय एवं योगादि प्रवृत्तियों को बाहर से हटाकर भीतर में गप्त रखना, संयमित रखना प्रतिसंलीनता तप है। शास्त्रों में इसे संयम और गुप्ति भी कहा गया है।
इस तप नाम के सम्बन्ध में सामान्य मतान्तर है। भगवतीसूत्र68 एवं औपपातिकसूत्र69 में इसका नाम प्रतिसंलीनता है। उत्तराध्ययनसूत्र में संलीनता और विविक्त शय्यासन ये दो नाम प्राप्त होते हैं।70 कुछ ग्रन्थों में 'विविक्त शय्यासन' या 'विविक्त शय्या' का प्रयोग मिलता है। इस तरह इसके संलीनता, प्रतिसंलीनता, विविक्त शय्यासन आदि नाम प्राप्त होते हैं। स्वरूपतः संलीनता एवं प्रतिसंलीनता में महत अन्तर नहीं है तथा 'विविक्त शय्यासन' उसके एक अवान्तर भेद का ही नाम है।
जैनागमों में प्रतिसंलीनता तप का उपदेश देते हुए कहा गया है कि इस तप में रुचि रखने वाला साधक सर्वप्रथम इन्द्रियों पर संयम रखे, इन्द्रियों को गुप्त रखे। प्रश्न उठता है कि इन्द्रियों का गोपन किस तरह किया जाये? इसके प्रत्युत्तर में शास्त्र वचन है कि “कुम्मो इव गुप्तिदिया"71 कछुएँ की भाँति इन्द्रियों को गुप्त रखना चाहिए। जैन, बौद्ध एवं वैदिक तीनों धर्मों में इन्द्रिय गोपनता के विषय में कछुए का उदाहरण ही दिया गया है। जैसा कि गीता में कहा है/2- जैसे कछुआ सब ओर से अपने अंगों को समेट कर शान्त-गुप्त होकर बैठता है, वैसे ही साधक सांसारिक विषयों से अपनी इन्द्रियों को सब ओर से समेट लेता है।
सामान्यत: इन्द्रिय आदि की संसाराभिमुख प्रवृत्तियों को संयमित करना प्रतिसंलीनता तप का मुख्य हार्द है।
प्रकार- आगम एवं आगमिक टीकाओं में प्रतिसंलीनता तप चार प्रकार का बताया गया है 73
1. इन्द्रिय प्रतिसंलीनता 2. कषाय प्रतिसंलीनता 3. योग प्रतिसंलीनता 4. विविक्तचर्या प्रतिसंलीनता।
1. इन्द्रिय प्रतिसंलीनता तप- यह तप पांच प्रकार से होता है74
(i) श्रोत्रेन्द्रिय संलीनता (ii) चक्षुरिन्द्रिय संलीनता (iii) घ्राणेन्द्रिय संलीनता (iv) रसनेन्द्रिय संलीनता (v) स्पर्शनेन्द्रिय संलीनता।
उक्त श्रोत्र आदि इन्द्रियों के शब्द, रूप, गन्ध, रस आदि जो अपने-अपने