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52...तप साधना विधि का प्रासंगिक अनुशीलन आगमों से अब तक
सार रूप में कहें तो आसन, आतापना, केशलोच आदि निरवद्य प्रवृत्तियों द्वारा शरीर को साधना कायक्लेश तप है।
लाभ - कायक्लेश तप के माध्यम से हमारा जीवन स्वर्ण की भाँति निखरता है। इससे शारीरिक क्षमता में अभिवृद्धि होती है, देह ममत्त्व शनै:-शनैः समाप्त होता है, जड़-चेतन की भेदज्ञान बुद्धि प्रगटती है, ज्ञाता-द्रष्टा व साक्षीभाव का अभ्यास होता है, संसार-विरक्ति का अंकुर प्रस्फुटित होता है। कायक्लेश से तितिक्षा का भाव प्रबल से प्रबलतर होता है। जो व्यक्ति तितिक्षु
और सहिष्णु नहीं है वह बाह्य तप की साधना नहीं कर सकता जैसे- अग्नि स्नान किये बिना स्वर्ण में निखार नहीं आता, घिसे बिना चन्दन में सुगन्ध प्रकट नहीं होती, पीसे बिना मेहंदी में रंग नहीं आता वैसे ही कायक्लेश तप किये बिना साधना में ओज नहीं आता। तात्पर्य है कि यह तप साधना स्तर को चरम सीमा तक पहुंचाने में सहयोगी बनता है। इस तप के द्वारा शरीर के प्रति निर्ममत्व बुद्धि होने से उसे संवारने और सजाने के प्रति भी उदासीनता रहती है।
संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि शरीर को तपाना कायक्लेश है। यद्यपि शरीर को तपाने या साधने में संसारी आत्मा को कष्ट होता है फिर भी जिसने आत्मा को भावित कर लिया है उसके लिए वह कष्ट जैसा नहीं है।67
अन्त में अवधेय है कि इस तप का विवेचन भले ही साधु को लक्षित कर किया गया है, किन्तु गृहस्थ भी इसकी साधना कर सकता है। आसन आदि के द्वारा ध्यान करना, ग्यारह उपासक प्रतिमाएँ धारण करना, शिष्यों के प्रति ममत्वभाव कम करना, स्नान, विलेपन, अंगराग आदि की मर्यादा करना, यह सब साधना करते हुए गृहस्थ भी कायक्लेश तप की आराधना कर सकता है। 6. प्रतिसलीनता तप
प्रतिसंलीनता बाह्य तप का छठा भेद है। संलीनता का सामान्य अर्थ है - आत्मा में लीन हो जाना, स्वयं में मग्न हो जाना।
संसार की साधारण आत्माएँ परभावों में मग्न हैं। परभाव में लीन आत्मा को स्वभाव में निमग्न रखने का उपक्रम करना प्रतिसंलीनता तप कहलाता है। प्रकारान्तर से इन्द्रिय आदि का बाह्य विषयों से प्रतिसंहरण करना प्रतिसंलीनता तप है। दूसरे अर्थ के अनुसार इन्द्रिय आदि की बहिर्मुखी वृत्ति को अन्तर्मुखी करना प्रतिसंलीनता तप है। संलीन का एक अर्थ है गुप्त रखना। तीसरे अर्थ के