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50...तप साधना विधि का प्रासंगिक अनुशीलन आगमों से अब तक देह का विनाश होता है आत्मा का नहीं। इस प्रकार के चिन्तन से वह देह ममत्व को मन्द कर देता है। यही कायक्लेश का यथार्थ उद्देश्य है।
अन्तिम ध्येय यह है कि जब शरीर कष्ट सहिष्ण बनता है, मन:स्थिति भी तभी सधती है। शरीर की कसौटी पर ही साधनाएँ फलती-फूलती हैं, देहजित ही मनोजित कहलाता है, फिर कायक्लेश तप की प्रत्येक क्रिया मनोबल के अनुरूप ही फलदायी होती है। अत: ‘परिणामे बन्ध परिणामे मोक्ष' कथन में प्रस्तुत तप का सन्देश गोपनीय रूप में है।
. इस प्रकार आत्म साधना के मार्ग में शरीर को पहुंचाने वाला कष्ट वास्तव में कष्ट नहीं है, अपितु शरीर का उपयोग है और उसके द्वारा साधना मार्ग का आरोहण है।
प्रकार- जैनागमों में कायक्लेश तप के अनेक प्रकार प्ररूपित हैं। स्थानांगसूत्र में निम्न सात प्रकार का कायक्लेश तप बताया गया है62 - 1. कायोत्सर्ग करना 2. उत्कटुक आसन से ध्यान करना 3. प्रतिमा धारण करना 4. वीरासन करना 5. स्वाध्याय आदि के लिए वज्रासन आदि में बैठना 6. दण्डायत होकर खड़े रहना और 7. काष्ठवत खड़े रहकर ध्यान करना।
औपपातिकसूत्र में इन्हीं भेदों को विस्तृत कर ग्यारह भेद कहे गये हैं63_
1. स्थानस्थितिक - एक ही तरह से खड़े या एक ही आसन से बैठे रहना।
2. उत्कुटुकासनिक - उकडू आसन से बैठना अर्थात केवल पंजों के बल पर बैठना।
3. प्रतिमास्थायी - मासिक आदि द्वादश प्रतिमाएँ स्वीकार करना।
4. वीरासनिक - वीरासन में स्थित रहना अर्थात जैसे- कोई पुरुष सिंहासन पर बैठा हुआ हो और उसके नीचे से सिंहासन हटा दिये जाने पर वह जिस स्थिति में रहता है, उस रूप में स्थिर रहना वीरासन कहलाता है।
5. नैषधिक - पालथी लगाकर बैठना। 6. आतापक - सूर्य आदि की आतापना लेना। 7. अप्रावृतक - देह को वस्त्रादि से नहीं ढकना। 8. अकण्डूयक - खुजली चलने पर भी देह को नहीं खुजलाना। 9. अनिष्ठीवक - थूक आने पर भी नहीं थूकना।