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तप के भेद-प्रभेद एवं प्रकारों का वैशिष्ट्य...49 इसका प्राथमिक समाधान तो यही है कि केशलुंचन आदि द्वारा देह को कष्ट नहीं दिया जाता, वरन् उसका उपयोग करते हुए पूर्व बद्ध कर्मों से आत्मा को हल्का किया जाता है।
दूसरा तथ्य यह है कि जिसे साधना में आनन्द आता है उसे कष्ट की अनुभूति नहीं होती। उपाध्याय यशोविजयजी ने 'तपोष्टक' में लिखा है कि मनोवांछित कार्य की सिद्धि हेतु शरीर को जो कष्ट दिया जाता है वह कष्ट नहीं है। जैसे- बहुमूल्य रत्नों की उपलब्धि के लिए व्यापारी विराटकाय समुद्रों को लांघता है, गगनचुम्बी पर्वतों की चोटियों पर पहुंचता है, भयानक जंगलों को पार करता है, यात्रा दौरान असह्य पीड़ाएँ सहन करता है तभी उसे आनन्द प्राप्त होता है इसी तरह मुक्तिपथ का राही साधक कायक्लेश द्वारा तप, जप, ध्यान आदि की साधना करता है, किन्तु उसे उसमें कष्ट नहीं होता।61 जिस साधना में कष्ट का अनुभव हो वह साधना हो नहीं सकती, साधना तो स्वेच्छापूर्वक स्वीकार की जाती है।
तीसरा तथ्य यह है कि जैन धर्म में कायक्लेश किया नहीं जाता, बल्कि स्वयं होता है। साधक का मुख्य भाव तो आत्म शोधन का रहता है, चैतसिक परिणामों को निर्मल बनाये रखने का होता है, किन्तु जब वह उसके लिए उद्यम करता है तो दैहिक कष्ट स्वत: या सजग रूप से आमन्त्रित कर लिए जाते हैं। उस समय देह कष्ट का किञ्चित्मात्र भी लक्ष्य नहीं रहता। यह स्थिति ठीक उस तरह की होती है जैसे कि घी को शुद्ध करने के लिए उसे तपाना। घी को शुद्ध करना है तो उसे तपाना ही पड़ेगा, किसी पात्र में डालकर अग्नि का ताप देना ही पड़ेगा वैसे ही आत्म-शुद्धि के लिए शरीर को तपाना होता है। ___ स्पष्ट भावार्थ यह है कि जैसे घी को तपाने का लक्ष्य होने पर भी पात्र उसका आधार होने से वह घी को तपाने के साथ स्वयं तपता है उसी प्रकार आत्माच्छादित विकारों को दूर करने के लिए इन्द्रिय निग्रह, उपवास आदि के द्वारा आत्मा को ही तपाना होता है, किन्तु आत्मा का आधार शरीर है। इसलिए आत्मा जब तपाचरण करता है तो शरीर को स्वभावत: कष्ट होता है; किन्तु शरीर की उस वेदना में साधक को वेदन की अनुभूति नहीं होती। तप के कष्ट को साधक कष्ट रूप में अनुभव नहीं करता। कदाच कष्टानुभव हो भी तो वह समझता है कि देह पृथक् है और मैं पृथक् हूँ, देह को कष्ट होता है मुझे नहीं,