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56...तप साधना विधि का प्रासंगिक अनुशीलन आगमों से अब तक
आभ्यन्तर तप के भेद-प्रभेदों का स्वरूप एवं उसके लाभ
आगम-साहित्य में जैसे बाह्य तप छह प्रकार का कहा गया है वैसे आभ्यन्तर तप भी निम्नोक्त छह प्रकार का निर्दिष्ट है___ 1. प्रायश्चित्त 2. विनय 3. वैयावृत्य 4. स्वाध्याय 5. ध्यान और 6. व्युत्सर्ग। 1. प्रायश्चित्त तप
'प्रायः' + 'चित्त'- इन दो पदों के योग से प्रायश्चित्त शब्द निर्मित है। यहाँ 'प्राय:' का अर्थ है अपराध, “चित्त' का अर्थ है शोधन अर्थात अपराधों का शोधन करना, पाप की शुद्धि करना प्रायश्चित्त कहलाता है।81
आगमिक टीकाओं में प्रायश्चित्त की निम्न परिभाषाएँ उपलब्ध होती हैं
• जो पाप कर्मों को क्षीण करता है, वह प्रायश्चित्त है।82 • जो प्रचुरता से चित्त-आत्मा का विशोधन करता है, वह प्रायश्चित्त है।83 • जो चित्तविशुद्धि का प्रशस्त हेतु है, वह प्रायश्चित्त है।84 • असत्य आचरण का अनुस्मरण करना प्रायश्चित्त है।85 • अपराध होने पर आत्मा मलिन होती है। उसकी विशोधि के लिए जो अनुष्ठान किया जाता है, वह प्रायश्चित्त है।86 • अपराध एक शल्य है। उसके उद्धरण के लिए जो कृत्य किया जाता है, वह प्रायश्चित्त है।87
यदि संक्षेप में कहें तो साधक की वह प्रवृत्ति जिससे पाप कर्म अपना फल दिखाये बिना ही विनष्ट हो जाते हैं उसे प्रायश्चित्त कहते हैं। सामान्यतया जिस प्रकार राजनीति में अपराध भुगतान के लिए दण्ड का विधान है, उसी प्रकार धर्मनीति में अपराधों से छूटने के लिए प्रायश्चित्त का विधान है। ___ यदि किंचित गहराई से अवलोकन करें तो यह तथ्य निर्विवादतः स्पष्ट है कि प्रायश्चित्त और दण्ड में महत अन्तर है। अध्यात्म नीति में अपराधी स्वयं प्रायश्चित्त ग्रहण करता है, उसके हृदय में पाप के प्रति तीव्र ग्लानि होती है और प्रायश्चित्त द्वारा स्वयं को हल्का, प्रसन्न एवं पाप मुक्त अनुभव करता है जबकि राजनीति में अपराधी को दण्ड दिया जाता है। वहाँ प्राय: अपराधी स्वकृत भूलों को स्वीकार नहीं करता, कदाच भूल को भूल मान भी ले तो उसके प्रति पश्चात्ताप या ग्लानि नहीं होती। सम्भवतः ग्लानि हो भी जाये तो वह दण्ड की मांग नहीं करता और दण्ड मिलता भी है तो उसका नीतिपूर्वक आचरण नहीं करता। इस भाँति प्रायश्चित्त और दण्ड में बहुत बड़ा अन्तर है।