________________
34...तप साधना विधि का प्रासंगिक अनुशीलन आगमों से अब तक
जो कलह को शान्त करता है वही धर्म का आराधक हो सकता है तथा जो कलह को शान्त नहीं करता वह धर्म की आराधना भी नहीं कर सकता है।36
सुस्पष्ट है कि ऊनोदरी तप की आराधना से शारीरिक, मानसिक, धार्मिक एवं आध्यात्मिक सभी तरह के सुपरिणाम हासिल होते हैं।
ऊनोदरी तप के विषय में यह तथ्य भी स्मरणीय है कि उपवास में सामर्थ्य, स्वास्थ्य निरोगता, शारीरिक बल, मनोयोग आदि की अपेक्षा रहती है किन्तु ऊनोदरी तप तो दुर्बल, रूग्ण और अशक्त व्यक्ति भी कर सकता है। प्रत्येक उम्र के साधक इसे अपना सकते हैं। इसलिए ऊनोदरी तप कठिन है तो सर्वसुलभ भी है। 3. भिक्षाचर्या तप
__षड्विध बाह्य तपों में तीसरा भेद भिक्षाचर्या है। भिक्षा का सीधा अर्थ है - याचना करना। भिक्षाचारी का अर्थ है – विविध प्रकार के अभिग्रह/नियम विशेष धारण करके आहार की गवेषणा करना तथा भिक्षा विषयक विभिन्न विधि-नियमों का पालन करते हुए भिक्षान्न पर जीवन यापन करना, भिक्षाचर्या तप कहलाता है।
तत्त्वार्थसूत्र में इसे वृत्तिपरिसंख्यान कहा गया है।37 भिक्षा के सम्बन्ध में पूर्व निश्चय कर तदनुकूल आहार ही ग्रहण करना वृत्तिपरिसंख्यान कहलाता है। श्रमण जब अभिग्रह पूर्वक भिक्षाटन करता है तब सभी संकल्प फलीभूत न होने से आहार में कमी होती है इसीलिए इसे वृत्तिसंक्षेप कहा है। इसे अभिग्रह तप की संज्ञा भी दी गयी है। _आगम-साहित्य में भिक्षाचरी को गोचरी,38 माधुकरी39 और वृत्तिसंक्षेप कहा गया है। जिस प्रकार गाय अच्छी-बुरी घास का भेद किये बिना एक ओर से दूसरी तरफ चरती हुई चली जाती है, वह किसी तरह के शब्द, रस आदि में आसक्त न होकर सिर्फ उदरपूर्ति हेतु सामुदायिक रूप से घास चरती है और वह भी वन की हरियाली को नष्ट किये बिना, उसे जड़ से बिना उखाड़े सिर्फ ऊपर से थोड़ा-थोड़ा खाती है, उसी प्रकार जैन मुनि सरस और नीरस आहार का विचार किये बिना, आहार आदि में आसक्त हुए बिना, अमीर-निर्धन घरों का भेद किये बिना सिर्फ संयम यात्रा निर्वाह के लिए सामुदायिक भिक्षा अर्थात सभी घरों से थोड़ी-थोड़ी भिक्षा ग्रहण करता है, इसलिए मुनि की भिक्षाचर्या को 'गोचरी' कहा गया है।40