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36...तप साधना विधि का प्रासंगिक अनुशीलन आगमों से अब तक गाली और श्राप भी दे देता है, जबकि श्रमण न किसी को शाप देता है और न ही किसी को अपशब्द ही कहता है, हृदय में दुर्भाव भी नहीं लाता। दाता जैसा भी शुद्ध आहार बहराये उसे अमुग्ध भावों से ग्रहण करता है। भिखारी दिये गये भोजन को तत्क्षण ग्रहण कर लेता है, किन्तु श्रमण देखता है कि जो देय वस्तु है वह सदोष तो नहीं है? औद्देशिक तो नहीं है? इस प्रकार भिखारी अविवेक पूर्वक भिक्षा लेता है और किन्तु श्रमण की भिक्षा विवेकयुक्त होती है।43
आचार्य हरिभद्रसूरिजी ने पात्र और उद्देश्य की अपेक्षा से भिक्षा के तीन प्रकार बताये हैं - 1. दीनवृत्ति 2. पौरुषघ्नी और 3. सर्वसम्पत्करी।44
अनाथ, अपंग, आपद्ग्रस्त दरिद्र व्यक्तियों के द्वारा याचना करके प्राप्त की जाने वाली भिक्षा दीनवृत्ति भिक्षा कहलाती है। सामर्थ्यवान्, बलिष्ठ, श्रमहीन, आरामजीवी लोगों के द्वारा याचित कर प्राप्त की जाने वाली भिक्षा, पौरुषघ्नी भिक्षा कहलाती है। त्यागी, सन्तोषी, व्रतनिष्ठ मुनियों के द्वारा उदर गृहस्थ के स्वयं के लिए बना हुआ निर्दोष आहार सम्मानपूर्वक ग्रहण करना, सर्वसम्पत्करी भिक्षा कहलाती है।
उक्त तीनों में भिखारी की भिक्षा दीनवृत्ति और पौरुषघ्नी होती है और जैन श्रमण की भिक्षा सर्वसम्पत्करी होती है। सर्वसम्पत्करी भिक्षा से दाता व गृहीता दोनों का उद्धार होता है। ____ ध्यातव्य है कि भिक्षाचरी में कई बार सर्वथा आहार न मिलने से अनशन भी हो जाता है, कई बार पर्याप्त आहार न मिलने पर ऊनोदरी हो जाती है, कितनी बार सरस आहार की प्राप्ति न होने से रस परित्याग हो जाता है अतएव भिक्षाचरी को तप में माना गया है।
प्रश्न हो सकता है कि जब अनशन आदि तप पृथक् से है तब भिक्षाचरी को अनशन आदि की संभावना से पृथक् तप क्यों माना गया? उत्तर यह है कि अनशन तप करने वाला उस तप को अनशन आदि की भावना से करता है, जबकि भिक्षाचरी में आहार की अप्राप्ति आदि होने पर भिक्षा निर्दोषता की रक्षा के लिए अनशन करता है। अतएव भिक्षाचारी को पृथक् तप की कोटि में रखा गया है।
भिक्षाटन के प्रकार- उत्तराध्ययनसूत्र में भिक्षाचर्या तप के अनेक प्रकार बतलाये गये हैं।45 सामान्यतया भिक्षाटन किस प्रकार करना चाहिए ? भिक्षा किस विधिपूर्वक ग्रहण करनी चाहिए? भिक्षा के अभिग्रह कौनसे हैं? इन विषयों पर