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तप के भेद-प्रभेद एवं प्रकारों का वैशिष्ट्य...45 रसपरित्याग का उपदेश देते हुए शास्त्र में यह भी कहा गया है कि जो मनुष्य रस में अत्यन्त गृद्ध हो जाता है वह उसमें मूर्च्छित हुआ अपने जीवन को अकाल में ही हारकर विनाश को प्राप्त करता है जैसे कि माँस के लोभ में फँसा हुआ मत्स्य काँटे में फंसकर अपने प्राण गवाँ देता है।55
रसासक्ति से कामासक्ति बढ़ती है, क्योंकि गरिष्ठ भोजन से शरीर में स्वत: उत्तेजना पैदा हो जाती है, जिससे मन चंचल और इन्द्रियाँ उत्तेजित होकर संयम का बन्धन तोड़ डालती हैं।
भगवान महावीर ने सर्वगत अनुभव को प्रस्तुत करते हुए यह भी कहा है कि गरिष्ठ आहार के अत्यधिक सेवन से धातु आदि पुष्ट होती हैं, वीर्य उत्तेजित होता है, उससे कामाग्नि प्रचण्ड होती है और उससे विकृत भाव साधक को वैसे ही घेरने लगते हैं जैसे कि स्वादिष्ट फल वाले वृक्ष को पक्षीगण आकर घेर लेते हैं।56
जो व्यक्ति मात्रा से अधिक रसदार भोजन करता है उसके मन एवं इन्द्रियों में कामरूपी अग्नि उस तरह दहक उठती है जैसे- सूखी-लकड़ियों के जंगल में तेज हवाओं के झोंके से अग्नि की एक चिनगारी भी क्षण भर में फैल जाती है और प्रचण्ड वनाग्नि का रूप धारण कर लेती है।57
प्रणीत रस भोजन तो साधक के लिए तालपुट जहर के समक्ष माना गया है।58 जैसे- तालपुट जहर जीभ पर रखकर ताली बजाये उतने में मनुष्य को मार डालता है उसी प्रकार प्रणीत आहार से साधक का इहभव ही नहीं परभव भी बिगड़ जाता है। सारतः ईंधन से जैसे- अग्नि प्रचण्ड बनती है वैसे ही सरस भोजन से कामाग्नि प्रचण्ड होती है। अत: साधक को निष्प्रयोजन रसयुक्त भोजन का सेवन नहीं करना चाहिए।
प्रकार- उपर्युक्त विवरण के आधार पर दूसरा प्रश्न यह उठता है कि 'रसपरित्याग' शब्द में सभी प्रकार के रसों का त्याग आ जाता है जबकि शास्त्रों में मुनि को विगय ग्रहण करने का भी विधान है इसलिए यह नहीं माना जा सकता कि वह हमेशा विगय का त्यागी रहे। तब विगय त्याग किस तरह किया जा सकता है ? औपपातिकसूत्र में इसके नौ प्रकार बताये गये हैं39
1. निर्विकृतिक - घृत, तेल, दूध, दही, शक्कर आदि से रहित आहार करना, यह रस परित्याग का पहला प्रकार है।