Book Title: Sthanang Sutram Part 01
Author(s): Vijaychandrasguptasuri
Publisher: Shripalnagar Jain Shwetambar Murtipujak Derasar Trust
View full book text ________________ चतुर्थमध्ययन चतुःस्थानम्, श्रीस्थानाङ्गं श्रीअभय वृत्तियुतम् भाग-१ द्वितीयोद्देशकः | // 399 // प्रभञ्जनवायुकुमारेन्द्रस्येति, एवं चैत व्याख्यायते द्वीपसागरप्रज्ञप्तिसङ्ग्रहण्यनुसारेण, यतस्तत्रोक्तं- दक्खिणपुव्वेण रयणकूडं गरुलस्स वेणुदेवस्स / सव्वरयणं च पुव्वुत्तरेण तं वेणुदालिस्स॥१॥रयणस्स अवरपासे तिन्निवि समइच्छिऊण कूडाई। कूडं वेलंबस्स उ विलंबसुहयं सया होइ॥२॥ सव्वरयणस्स अवरेण तिन्नि समइच्छिऊण कूडाइं। कूडं पभंजणस्स उ पभंजणं आढियं होइ॥३॥ (द्वीपसागर प्र०१६-१८) इति, इह चतुःस्थानकानुरोधेन चत्वार्युक्तानि, अन्यथा अन्यान्यपि द्वादश सन्ति, पूर्वदक्षिणापरोत्तरासु त्रीणि त्रीणि, द्वादशापि चैकैकदेवाधिष्ठितानीति, उक्तं च-पुव्वेण तिन्नि कूडा दाहिणओ तिण्णि तिण्णि अवरेणं / उत्तरओ तिन्नि भवे चउद्दिसिं माणुसनगस्स॥१॥(द्वीपसागर प्र०६) इति / अनन्तरं मानुषोत्तरे कूटद्रव्याणि प्ररूपितानि, अधुना तेनावृतक्षेत्रद्रव्याणां चतुःस्थानकावतारं जंबूद्दीवेत्यादिना चत्तारि मंदरचूलियाओ एतदन्तेन ग्रन्थेनाह- व्यक्तश्चायम्, नवरं चित्रकूटादीनां वक्षारपर्खतानां षोडशानामिदं स्वरूपम्- पंचसए बाणउए सोलस य सहस्स दो कलाओ य। विजया 1 वक्खारं 2 तरनईण 3 तह वणमुहायामो 4 // 1 // (बृहत्क्षेत्र० 364) इति, तथा-जत्तो वासहरगिरी तत्तो जोयणसयं समवगाढा / चत्तारि जोयणसए उव्विद्धा सव्वरयणमया॥१॥ जत्तो पुण सलिलाओ तत्तो पंचसयगाउउव्वेहो। पंचेव जोयणसए उविद्धा आसखंधणिभा॥२॥ (बृहत्क्षेत्र० & दक्षिणपूर्वस्यां रत्नकूटं गरुडस्य वेणुदेवस्य / सर्वरत्नं च पूर्वोत्तरस्यां तद्वेणुदालिनः // 1 // रत्नस्यापरपार्श्वे त्रीण्यपि समतिक्रम्य कूटानि / कूटं वेलम्बस्य तु विलम्बसुखदं सदा भवति॥२॥ सर्वरत्नस्यापरस्यां त्रीणि कूटानि समतिक्रम्य / प्रभञ्जनस्य प्रभञ्जनं कूटमाढ्यं भवति // 3 // 0 पूर्वस्यां त्रीणि कूटानि दक्षिणस्यां त्रीणि अपरस्यां त्रीणि। उत्तरस्यां त्रीणि भवेयुश्चतसृषु दिक्षु मानुषनगस्य // 1 // ॐ द्विनवत्यधिकपंचशतानि षोडश सहस्राणि द्वे च कले / विजया वक्षस्कारा अन्तर्नद्यस्तथा वनमुखानि आयामेन // 1 // यतो वर्षधरगिरिस्ततो योजनशतं समवगाढाः / चतुर्योजनशतान्युद्विद्धाः सर्वरत्नमयाः // 1 // यतः पुनः सलिलास्ततः पञ्चशत-गव्यूतान्युद्वेधः। पश्चैव योजनशतान्युद्विद्धा अश्वस्कन्धनिभाः॥ 2 // सूत्रम् 300-302 मानुषोत्तरकूटाः, सुषमसुषमामानम्, देवकुरूत्तरकुर्वकर्मभूमिवृत्तवैताब्यतद्धिपमहाविदेहनिषधाधुच्चत्ववक्षस्कार 16 जघन्यपदचक्रयादि मेरुवनाऽभि वा कौशला, वष्कम्भाः धातक्यादा // 399 //
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