Book Title: Sthanang Sutram Part 01
Author(s): Vijaychandrasguptasuri
Publisher: Shripalnagar Jain Shwetambar Murtipujak Derasar Trust

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Page 430
________________ श्रीस्थानाङ्गं श्रीअभय० वृत्तियुतम् भाग-१ // 406 // सूत्रम् जम्बूद्वीप कलशतदधिपाऽऽवास सयाणि मज्झमि। ओगाढा य सहस्सं दस जोयणिया य सिं कुड्डा॥६॥पायालाण विभागा सव्वाणवि तिन्नि तिन्नि बोद्धव्वा / हेट्ठिमभागे चतुर्थमध्ययन वाऊ मझे वाऊ य उदयं च // 7 // उवरिं उदगं भणियं पढमगबीएसु वाउ संखुभिओ। वामे(वमतीत्यर्थः), उदगं तेण य परिवड्ड द्वितीयोद्देशक जलनिही खुहिओ॥ 8 // परिसंठियमि पवणे पुणरवि उदगं तमेव संठाणं / वच्चेइ तेण उदही परिहायइणुक्कमेणेवं॥९॥ इति, वेलां- 303-306 लवणसमुद्रशिखामन्तर्विशन्तीं बहिर्वाऽऽयान्तीमग्रशिखांच धारयन्तीति संज्ञात्वाद्वेलंधरास्तेच ते नागराजाश्च-नागकुमारवराः द्वारतदधिपाः, वेलंधरनागराजास्तेषामावासपर्वताः पूर्वादिदिक्षु क्रमेण गोस्तूपादयः, विदिक्षु- पूर्वोत्तरादिषु वेलन्धराणां पश्चाद्वृत्तयो , पातालअनुनायकत्वेन नागराजा अनुवेलन्धरनागराजाः, वेलन्धरवक्तव्यतागाथाः-दसजोयणसहस्सा लवणसिहा चक्कवालओ रुंदा। पर्वततद्देवसोलससहस्सउच्चा सहस्समेगं तु ओगाढा // 1 // (समाद् भूभागादिति भावः) देसूणमद्धजोयण लवणसिहोवरि दगं तु कालदुगे। (दिवा। रात्रौ चेत्यर्थः), अइरेगं अइरेगं परिवड्डइ हायए वावि॥२॥ अभितरियं (अन्तर्विशन्तीमित्यर्थः) वेलं धरेंति लवणोदहिस्स नागाणं। बायालीससहस्सा दुसत्तरिसहस्स बाहिरियं // 3 // (बहिर्गच्छन्तीमित्यर्थः) सहिँ नागसहस्सा धरिति अग्गोदगं (शिखाग्रमित्यर्थः) जम्बूद्वीपसमुद्दस्स। वेलंधरआवासा लवणे य चउद्दिसिं चउरो॥४॥ पुव्वाइ अणुक्कमसो गोथुभदगभाससंखदगसीमा। गोथुभ सिवए संखे (अन्तरद्वीपBE शतानि मध्ये / अवगाढाश्च सहस्रं दश योजनानि च तेषां (योजनमाना)भित्तिः॥६॥ सर्वेषामपि पातालानां त्रयस्त्रयो भागा बोद्धव्याः। अधस्तनभागे वायुमध्ये वायुरुदकं च // 7 // उपरि उदकं भणितं प्रथमद्वितीययोः संक्षुभितो वायुरुदकं वमति तेन क्षुभितो जलनिधिः परिवर्द्धते // 8 // पवने परिसंस्थिते पुनरप्युदकं तत्संस्थानमेव / गच्छति तेनोदधिः परिहीयतेऽनुक्रमेणैवम् // 9 // ०लवणशिखा दशयोजनसहस्रमाना चक्रवालतो विस्तीर्णा / षोडशसहस्रोचा एकं सहस्रं त्ववगाढा॥१॥ दिवा 81 रात्रौ च देशोनमर्द्धयोजनं लवणशिखोपरि उदकं तु / अतिरेकमतिरेकं परिवर्धते हीयते वापि॥२॥ अभ्यन्तरां वेलां धारयन्ति लवणोदधेचत्वारिंशत्सहस्रमाना देवा नागानां द्वासप्ततिसहस्री बाह्याम् // ३॥षष्टि गसहस्री धारयन्त्यग्रोदकं समुद्रस्य / वेलन्धराणामावासा लवणे च चतुर्दिक्षु चत्वारः॥४॥ पूर्वाद्यनुक्रमतो गोस्तूपदकभासशङ्खदकसीमाख्या / गोस्तूपशिवशङ्खमनःशिला - लवण-चन्द्रसूर्य-नक्षत्रग्रह-द्वारतदधिपाः,धातकीविष्कम्भा भरतादीनि, पातालकलशवेलन्धरवक्तव्यता) // 406 //

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