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आचार्य हरिभद्रसूरि की योग दृष्टियाँ : एक विवेचन
डॉ॰ सुधा जै
जीवन के समग्र कार्य-कलापों का मूल आधार दृष्टि (Vision) होती है। सत्व, रज और तम में से जिस ओर हमारी दृष्टि मुड़ जाती है, हमारा जीवन- प्रवाह उसी ओर स्वतः बढ़ जाता है। इसीलिए आचार्य हरिभद्र ने आत्मा के क्रमिक विकास को ध्यान में रखते हुए योग की आठ दृष्टियों का उल्लेख किया है । दृष्टि को परिभाषित करते हु उन्होंने कहा है कि “जिससे समीचीन श्रद्धा के साथ बोध हो और जिससे असत् प्रवृत्तियों का क्षय करके सत् प्रवृत्तियाँ प्राप्त हों, वह दृष्टि है।"" दृष्टि दो प्रकार की होती है— ओघदृष्टि और योगदृष्टि । मेघाच्छन्न रात्रि, मेघरहित रात्रि, मेघयुक्त दिवस में ग्रह, भूत-प्रेत आदि से ग्रस्त पुरुष, उनसे अग्रस्त पुरुष, बालक, वयस्क, मोतियाबिन्द आदि से विकृत, मोतियाबिन्द आदि से रहित दृष्टि ओघदृष्टि होती है। तात्पर्य है कि सांसारिकभाव, सांसारिक सुख, सांसारिक पदार्थ, क्रिया-कलाप आदि में जो रची-बसी रहती हैं, वह ओघदृष्टि है। योगदृष्टि के प्रकार को बताते हुए आचार्य हरिभद्र ने कहा है- तृण के अग्निकण, गोबर या उपले के अग्निकण, काष्ठ के अग्निकण, दीपक की प्रभा, रत्न की प्रभा, सूर्य की प्रभा तथा चन्द्र की प्रभा के सदृश साधक की दृष्टि आठ प्रकार की होती है। वे आठों दृष्टियाँ हैं - १. मित्रा, २ . तारा, ३. बला, ४. दीप्रा, ५. स्थिरा, ६. कान्ता, ७. प्रभा और ८ परा ।
उपर्युक्त आठों प्रकार में से प्रथम चार ओघदृष्टि में अन्तर्निहित हैं, क्योंकि इनकी वृत्ति संसाराभिमुख रहती है, अर्थात् जीव का उत्थान-पतन होता है। शेष चार दृष्टियाँ योगदृष्टि में समाहित होती हैं, क्योंकि इनमें आत्मा की प्रवृत्ति आत्मविकास की ओर अग्रसर होती है। पाँचवीं दृष्टि के बाद जीव सर्वथा उन्नतिशील बना रहता है, उसके गिरने की सम्भावना नहीं रहती। अतः कहा जा सकता है कि ओघदृष्टि असत् - दृष्टि है और योगदृष्टि सत्दृष्टि है। आचार्य हरिभद्र ने प्रथम चार दृष्टियों को अवेद्य-संवेद्य पद' अथवा प्रतिपाति तथा अन्तिम चार दृष्टियों को वेद्य-संवेद्य पद अथवा अप्रतिपाति कहा है। वेद्य-संवेद्य पद से अभिप्राय है जिस पद में वेद्य विषयों का यथार्थ स्वरूप जाना जा सके और उसमें अप्रवृत्ति बुद्धि पैदा हो। इसी प्रकार जिसमें बाह्य वेद्य विषयों का यथार्थ स्वरूप में संवेदन और ज्ञान न किया जा सके, वह अवेद्य-संवेद्य पद है।
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प्रवक्ता, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी.
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