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में पुद्गल नाम से अभिहित होता है।
लोक-व्यवस्था की दृष्टि से पूर्वोक्त छह द्रव्यों का विशेष महत्त्व है। ये द्रव्य लोक में ठसाठस भरे हैं। लोक का ऐसा कोई भी स्थान नहीं है जहाँ ये छह द्रव्य न पाये जाते हों। जैनदर्शन सम्मत उक्त द्रव्यों को आधुनिक वैज्ञानिक पदार्थ के नाम से सम्बोधित करते हैं। जैनदर्शन में जिन्हें धर्म, अधर्म, और आकाश कहा है, उन्हें ही आधुनिक वैज्ञानिक क्रमश: तेजोवाही ईथर (Eumariferous ether) क्षेत्र (Field) और आकाश (Space) कहते हैं। जैन दर्शन में आकाश के अनन्त प्रदेश कहे गये हैं अर्थात् आकाश अनन्त है, किन्तु उसमें रहने वाली प्रकृति अथवा पुद्गल (Matter) के कारण आकाश ससीम है। इसी ससीम आकाश को जैनदर्शन में लोकाकाश कहा गया है और असीम अनन्त आकाश को अलोकाकाश। षड्द्रव्यों का यह विवेचन भौतिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है।
जैनदर्शन सम्मत जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व जीव के आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। इन सात तत्त्वों के एक किनारे पर जीव है और दूसरे किनारे पर मोक्ष है। जीव तत्त्व का लक्ष्य मोक्ष प्राप्त करना है। अर्थात् जीव तत्त्व की यात्रा मोक्ष तक की है और शेष तत्त्व उसके पड़ाव हैं।
शुद्ध जीव तत्त्व का अजीव तत्त्व के साथ अनादिकालीन सम्बन्ध है, किन्तु जीव अपने पुरुषार्थ के माध्यम से अजीव रूप कर्मों से वैसे ही छुटकारा पा सकता है जैसे मिट्टी रेत आदि से युक्त स्वर्ण द्रव्य अपने अग्निदाह आदि पुरुषार्थ से शुद्धपने को प्राप्त हो जाता है। १०
जबतक जीव मोक्ष प्राप्त नहीं कर लेता है तब तक उसकी मन, वचन और काय की क्रिया निरन्तर चलती रहती है। जीव की यही हलन-चलन रूप क्रिया उसे संसार में बाँधे रखती है। इसे ही आस्रव और बन्ध कहा गया है। उक्त क्रिया के कारण नित्य नवीन शुभ-अशुभ कर्मों का आगमन होता रहता है और कषायादि के कारण पुद्गल रूप कर्म आत्मा से चिपकते रहते है तथा अपनी प्रकृति के अनुसार समय आने पर प्रदेशों के अनुपात में सुख-दुःख का वेदन कराकर अर्थात् उदय में आकर झड़ जाते हैं। यत: यह क्रम निरन्तर चलता रहता है, अत: पुराने कर्मों का उदय में आना और अपने भावों के अनुसार नित्य नवीन कर्मों का बाँधना- यह प्रक्रिया अनवरत गति से चलती रहती है। इस प्रकार कर्मों के बँधने और उदय में आ कर नष्ट हो जाने से संसार कभी समाप्त नहीं होता है। अत: जीव को स्वस्वरूप की प्राप्ति के लिये द्विमुखी प्रक्रिया को अपनाना आवश्यक है। पहली यह कि बाहर से आने वाली कर्म-परम्परा को रोका जाये। इसके लिये मन, वचन और काय की क्रिया को रोकना आवश्यक है और दूसरी यह कि पूर्व सञ्चित कर्मों को तप के माध्यम से नष्ट कर दिया जाये।
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