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की मूर्ति पर वि०सं० १६८४ और दूसरे जैन मन्दिर की तीन मूर्तियों पर वि०सं० १६८१, वि०सं० १६८३ (धर्मनाथ) और एक अन्य प्रतिमा पर वि०सं०१६८३ का लेख उत्कीर्ण है। इसी प्रकार भीनमाल में कई प्रतिमाओं पर उत्कीर्ण वर्ष का अध्ययन आसानी से किया जा सकता हैं।
उपर्युक्त विवरण के आधार पर कहा जा सकता है कि सम्पूर्ण जालोर मण्डल एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक भू-खण्ड है। यहाँ पर जैन धर्म का प्रारम्भ यथेष्ठ प्राचीन काल से ही हो चुका था। परवर्ती काल में हुए जैन आचार्यों ने अपनी धार्मिक परम्परा को जारी रखा। विशेष रूप से प्रतिहार काल में जालोर क्षेत्र में जैन धर्म का तेजी से उत्थान हुआ। बाद में परमारों, चौलुक्यों और चाहमानों का भी जिन-धर्म को संरक्षण मिलता रहा। मध्यकाल में मुस्लिम शासन के समय जैन धर्म के प्रसार की गति कुछ मन्द हो गई किन्तु मुगलकाल समाप्त होने और राठौड़ों के सत्ता हस्तगत करने पर उसकी लोकप्रियता में अत्यधिक वृद्धि हो गई। फलस्वरूप सांचोर, तखतगढ़, मुण्डवा, रत्नपुर, भीनमाल और जालोर जैन धर्म के तीर्थस्थल बन गये। यहां पर विभिन्न जैन आचार्यों ने चातुर्मास किया और विभिन्न ग्रन्थों की रचना की। उनके उपदेशों के फलस्वरूप कई कलात्मक मन्दिरों का निर्माण हुआ और उनमें तीर्थङ्करों की प्रतिमाएँ स्थापित की गईं। जालोर. मण्डल में जैन धर्म की प्रगति का लेखा-जोखा करने हेतु पट्टावलियों, विज्ञप्तिपत्रों, वंशावलियों अन्य साहित्यिक साक्ष्यों, अभिलेखों और मन्दिर स्थापत्य का अध्ययन अत्यन्त उपादेय है।
सन्दर्भ ग्रन्थ :
कैलाशचन्द्र जैन, एन्श्येण्ट सिटीज एण्ड टाउन्स ऑव राजस्थान,
पृ० १८५. २. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा, जोधपुर राज्य का इतिहास, खण्ड १, पृ० ५४. ३. जैन, पूर्वोक्त, पृ० १८५-१८७; के०के०, सहगल, गजेटियर, जालोर. ४. दशरथ शर्मा, राजस्थान श्रू द एजेज़, खण्ड १, पृ० ४१६-४१७. ५. जैन, पूर्वोक्त, पृ० १८७. ६. प्रोग्रेस रिपोर्ट, आयोलोजिकल सर्वे ऑव इण्डिया, वेस्टर्न सर्किल
१९०८-१९०९, पृ० ५५. ७. शर्मा, पूर्वोक्त, पृ० ४२०. ८. कैलाशचन्द्र जैन, जैनिज्म इन राजस्थान, पृ० २२, मोहनलाल गुप्त, जालोर
का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास, पृ० ९६; रामवल्लभ सोमानी, जैन इन्स्क्रिप्शन्स ऑफ राजस्थान, पृ० ११०-११२, राघवेन्द्र सिंह, 'जालोर
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