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और सम्मान और भी बढ़ता दिखायी देता है । ब्रह्मवादिनी कहकर उसके अवदान का स्मरण भी किया जाता है पर कर्मकाण्ड की जटिलता ने उसकी स्वतन्त्रता पर जबर्दस्त आघात किया और बदलते हुए सामाजिक परिवेश में उस पर धार्मिक प्रतिबन्ध लगा दिये गये। नारी की शारीरिक और भावनात्मक दुर्बलता ने इन प्रतिबन्धों के सामने उसे झुकने के लिये विवश भी किया। सुरक्षा और पवित्रता की दृष्टि से यह आवश्यक भी था। छुटपुट उद्धरणों को छोड़कर साधारण तौर पर हम नारी को एक प्रश्न चिह्न के घेरे में खड़ी ही पाते हैं जहां वह पुरुष के पीछे हाथ बांधकर चलती रही है।
द्रव्यस्त्री और भावस्त्री की परिभाषाओं में घूमते हुए वेद, नामकर्म, मोहनीयकर्म आदि की अवधारणा देकर नारी की शारीरिक और मानसिक स्थिति का चित्रण भी किया गया है और 'उपलअग्निवत्', मोक्षपथ की अर्गला, दरिद्रता का घट, विषधर सर्प की भांति कुपित होने वाली, कृष्ण सर्प की तरह अविश्वसनीय, मायावी, चपला, निष्करुणा, कुलक्षणा, बध्या आदि जैसे सैकड़ों अपमानजनक शब्दों का प्रयोग भी उसके लिए किया गया है । फिर भी वह सहिष्णु बनी रही है। अपनी दुर्बलता को दूसरे के शिर मड़ना सशक्त पक्ष की मानसिकता होती ही है। इसलिए आचार्यों के इन सम्बोधनों को बुरा न मानकर उनकी पृष्ठभूमि में छिपी भावात्मक शक्ति की ओर ही हमें विशेष ध्यान देना होगा । चातुर्याम से पञ्चयाम का दौर हमारे जैन इतिहास और परम्परागत दर्शन में द्रष्टव्य ही है।
राष्ट्रोत्थान में शिक्षा और अध्यात्म एक सशक्त साधन के रूप स्वीकारे गये हैं। प्रागैतिहासिक काल से ही महिलायें इन दोनों क्षेत्रों में कभी पीछे नहीं रहीं । यद्यपि उन्हें दृष्टिवाद, महापरिज्ञा, अरुणोपपात आदि के अध्ययन से वञ्चित किया गया पर गणिनी, प्रवर्तिनी, गणावच्छेदिनी आदि पद देकर उन्हें सम्मानित भी किया गया। यद्यपि यह भी सही है कि नारी को आचार्य नहीं होने दिया गया, उसे उपदेश देने का अधिकार नहीं मिला और सद्य: दीक्षित साधु को भी वर्षों से दीक्षित साध्वी के लिये वन्दनीय माना गया, फिर भी उसने अपनी अस्मिता बनाये रखी। अपनी निष्ठा, कर्त्तव्यशीलता और आध्यात्मिक साधना के बल पर नारी ने स्वयं का तो उत्थान किया ही, साथ ही परिवार, समाज और राष्ट्र के विकास में भी भरपूर योगदान दिया।
प्रागैतिहासिककालीन महिलाओं की जानकारी के लिये हमारे समक्ष आगमिक व्याख्या साहित्य तथा पौराणिक साहित्य के अतिरिक्त और कोई साधन नहीं है। पौराणिक इतिहास में तृतीय काल के पल्य का आठवां भाग कितना महत्त्वपूर्ण रहा होगा जब आकाश में सूर्य-चन्द्रमा का दर्शन हुआ होगा। प्रतिश्रुत आदि चौदह कुलकरों की उत्पत्ति तथा अन्तिम कुलकर नाभिराज के समय कल्पवृक्षों के अभाव हो जाने से उत्पन्न आजीविका की विभीषिका की भी हम कल्पना कर सकते हैं। उपलब्ध साधनों का उपयोग कर नवीन दण्ड- व्यवस्था, सामाजिक-व्यवस्था तथा पारिवारिक - व्यवस्था बनाने का
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