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श्रमण
पार्श्वनाथ विद्यापीठ की त्रैमासिक शोध-पत्रिका
वर्ष 52,
अंक 1-3 प्रधान सम्पादक प्रोफेसर भागचन्द्र जैन 'भास्कर'
जनवरी-मार्च 2001
परामर्शदाता प्रोफेसर सागरमल जैन
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सम्पादक
डॉ. शिवप्रसाद प्रकाशनार्थ लेख-सामग्री, समाचार, विज्ञापन एवं सदस्यता आदि के लिए सम्पर्क करें
सम्पादक
श्रमण पार्श्वनाथ विद्यापीठ आई.टी.आई. मार्ग, करौंदी
पो.आ.-बी.एच.यू. वाराणसी-221005 (उ.प्र.)
दूरभाष : 316521, 318046 फैक्स : 0542-318046
ISSN----0972-1002
वार्षिक सदस्यता शुल्क संस्थाओं के लिए : रु. 150.00 व्यक्तियों के लिए : रु. 100.00 इस अंक का मूल्य : रु. 50.00
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नोट : सदस्यता शुल्क का चेक या ड्राफ्ट केवल पार्श्वनाथ विद्यापीठ के नाम से ही भेजे।
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सम्पादकीय
विद्यापीठ में आये हुए मुझे लगभग १८ माह हो चुके हैं। लगता है इस कार्यकाल का पर्यालोचन करना आवश्यक हो गया है। चारों ओर दृष्टिपात करने पर इतनी प्रसन्नता तो हो ही रही है कि प्रो० सागरमल जी के बाद मैं विद्यापीठ की प्रगति के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ सका हूँ। संस्थान के सचिव श्री भूपेन्द्रनाथ जैन एवं सहसचिव श्री इन्द्रभूति बरड़ जैसे कर्मठ समाजसेवी इसकी प्रगति में पूरे उत्साह के साथ जुड़े हुए हैं। संस्थान समाज से और भी घनिष्ठतापूर्वक जुड़ रहा है।
परमपूज्य आचार्य श्रीराजयशसूरि जी म० सा० के पुनीत आशीर्वाद ने हमारे पुराने सम्बन्धों में और भी घनिष्ठता ला दी है। उन्हीं के आशीर्वाद से हम संस्थान में ८ कमरों का एक अति सुसज्जित छात्रावास तथा उपाध्याय यशोविजय स्मृति मन्दिर का निर्माण
और भोजनशाला की स्थायी व्यवस्था करा सके हैं। रंगोली प्रदर्शनी, चित्रकला प्रतियोगिता आदि विभिन्न आयोजन भी उन्हीं के सहयोग का ही परिणाम है। ५१ लाख रुपये की प्रकाशन योजना भी उन्होंने ही दी थी। यह हमारा दुर्भाग्य था कि हम उसे कार्यान्वित न कर सके। अभी पार्श्वज्ञानरथ महाराजश्री के साथ यात्रा कर रहा है। विश्वास है कि उसके माध्यम से काफी धनराशि इकत्र हो जायेगी।
काशी हिन्द विश्वविद्यालय से शोध हेतु मान्यता प्राप्त यह संस्थान वीर बहादर सिंह पूर्वाञ्चल विश्वविद्यालय, जौनपुर से भी शोध-सम्बन्धी मान्यता प्राप्त करने का प्रयत्न कर रहा है। इस सम्बन्ध में सम्पूर्ण प्रक्रिया पूर्ण हो चुकी है, बस स्वीकृति-पत्र आते ही संस्थान में किसी भी विश्वविद्यालय का स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त छात्र शोधकार्य के लिये पंजीकृत किया जा सकेगा।
इसी के साथ-साथ एक अन्य उपलब्धि का भी उल्लेख करना चाहूँगा। इण्डियन इंस्टिट्यूट ऑफ एडवान्सड स्टडी, शिमला ने पार्श्वनाथ विद्यापीठ को अपने सहयोगी संस्था के रूप में स्वीकार कर लिया है। इसके माध्यम से अब हम संगोष्ठी, कार्यशाला, व्याख्यानमाला तथा जैन साहित्य प्रकाशन की योजनायें कार्यान्वित कर सकते हैं। इसके अन्तर्गत हर योजना के लिये वहाँ से एक लाख रुपये उपलब्ध हो सकेंगे।
__ हमारा सम्पूर्ण प्राच्य साहित्य प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश और मरु-गुर्जर भाषा में है। संस्थान में ऐसे तलस्पर्शी विद्वानों का होना नितान्त आवश्यक है जो इन भाषाओं में निष्णात हों। इसके साथ-साथ प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति और पुरातत्त्व तथा दर्शन एवं भाषाविज्ञान की भी जानकारी उन्हें होनी चाहिए। इनकी शोध-साधना में
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अंग्रेजी भाषा की उपेक्षा नहीं की जा सकती। ऐसे विद्वानों की हमारे संस्थान में बड़ी आवश्यकता है। संस्थान उन्हें शोध - योजनाओं के माध्यम से सम्बद्ध कर सकता है। यह भी सही है कि ऐसी विद्वत् परम्परा की अक्षुणता का यक्ष प्रश्न आज हम सभी के सामने है। प्राचीन परम्परा के जैन विद्वान् एक-एक कर इस दुनिया से विदा होते जा रहे हैं और नई पौध को उत्साहित नहीं किया जा रहा है।
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पार्श्वनाथ विद्यापीठ एक सर्वमान्य और असाम्प्रदायिक शोध संस्थान है। अभी तक यहाँ से लगभग ६० शोधछात्र पी-एच्०डी० की उपाधि प्राप्त कर चुके हैं और १५० से अधिक शोध-ग्रन्थों का यहाँ से प्रकाशन हो चुका है । इतना बृहद्कार्य किसी एक संस्थान के लिये गौरव की बात मानी जा सकती है। संस्थान जिस प्रकार सुन्दर परिवेश और परिसर में निर्मित हुआ है वह भी शोधछात्रों के लिये अपनी अकल्पित शोध साधना में सहयोगी बन जाता है। यहाँ के समृद्ध पुस्तकालय में लगभग ३५ हजार ग्रन्थों का समावेश है जिसमें जैन साहित्य के अतिरिक्त सभी अन्य सम्बद्ध विषयों पर उच्चश्रेणी के ग्रन्थ समाहित हैं।
यह प्रसन्नता की बात है कि श्री दिलीप शाह, डॉ० प्रेमचन्द गाड़ा आदि जैसे हमारे जैन बंधु समुद्रपार रहते हुए भी संस्थान के विकास में अपना और अपने सभी साथियों का सहयोग देने हेतु वचनबद्ध हुए हैं। अभी अमेरिका के १२८ लोगों का एक तीर्थयात्री संघ संस्थान में आया और इसे देखकर उन सभी ने अपार सन्तोष भी व्यक्त किया एवं यह विश्वास दिलाया कि सम्पूर्ण प्रवासी जैन समुदाय संस्थान के विकास में पूर्ण सहयोग प्रदान करेगा। इसके लिये हमारा संस्थान उनके प्रति हृदय से कृतज्ञता प्रकट करता है।
संस्थान का भविष्य बहुत उज्जवल है। जैन संस्कृति के प्रचार-प्रसार के लिये आज उसकी बड़ी आवश्यकता है। भारत के बाहर भी वह यदि इसी प्रकार एक केन्द्र स्थापित कर सके तो लक्ष्य तक पहुँचने में उसे और भी सुविधा हो सकेगी। यह भी प्रसन्नता की बात है कि अब संस्थान में प्रवासी भारतीयों के आवास आदि की भी समुचित व्यवस्था हो गयी है। वे यहाँ रहकर आसानी से अध्ययन कर सकेंगे।
आगामी सत्र से हम संस्थान में कतिपय नये उपक्रम प्रारम्भ करने जा रहे हैं। इसमें प्राकृत और जैनधर्म तथा योग और ध्यान के पाठ्यक्रमों को संचालित करना विशेष उल्लेखनीय है। इसके साथ ही प्राकृत अभिलेख, अंग एवं उपांग साहित्य आदि जैसे विषयों पर संगोष्ठियाँ और प्राकृत संस्कृत पाण्डुलिपि विज्ञान पर कार्यशाला भी संयोजित है। शोधग्रन्थों के प्रकाशन में भी और अधिक गतिशीलता लाने का संकल्प किया गया है। विश्वास है कि इन गतिविधियों से संस्थान तीव्रता से अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर हो सकेगा। पूज्य आचार्यश्री सोहनलाल जी म०सा० के सपनों को हम
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साकार कर सकें इसके लिये हम सभी को मिलकर वस्तुनिष्ठवादी होकर सामूहिक प्रयत्न करना आवश्यक है। संस्थान गतिशील बना रहे और शोधसंस्थाओं के मानचित्र पर उसका विशिष्ट स्थान रहे, यही हम सभी की कामना है।
श्रमण का प्रस्तुत अंक ५२वें वर्ष का प्रवेशांक है। विगत अंकों की भाँति हम इस अंक में भी जैन दर्शन, पर्यावरण, इतिहास आदि से सम्बन्धित शोध आलेख प्रकाशित कर रहे हैं। हमारा प्रयास यही होता है कि लेख प्रामाणिक हों और वे शुद्ध रूप में ही मुद्रित हों। सुधी पाठकों और विद्वत्जनों से हमारा विनम्र अनुरोध है कि वे अपने महत्त्वपूर्ण विचारों और सुझावों से हमें अवगत कराने की कृपा करें ताकि हमें इसके स्तर को और ऊँचा उठाने में मदद मिल सके। श्रमण में जैन धर्म-दर्शन, इतिहास, संस्कृति, साहित्य आदि से सम्बद्ध अप्रकाशित आलेखों का स्वागत है।
भागचन्द्र जैन 'भास्कर'
प्रधान सम्पादक
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विषय-सूची
हिन्दी खण्ड १. अनेकान्तवाद : मूल्यपरक शिक्षा के एक यन्त्र के रूप में
१-१०
- डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय २. जैनतत्त्व चिन्तन की वैज्ञानिकता - डॉ० कमलेश कुमार जैन ११-१६ ३. वराङ्गचरित : एक महाकाव्य - श्री जीतेन्द्र कुमार सिंह १७-२० ४. अपभ्रंश साहित्य में पर्यावरण चेतना - डॉ० प्रेमचन्द्र जैन २१-२९ ५. पर्यावरण चिन्तन : जैन वाङ्मय के सन्दर्भ में
३०-३८
__ - डॉ० संगीता मेहता ६. जालोर मण्डल में जैन धर्म एवं उसके अध्ययन सम्बन्धी सोत । ३९-५६
- डॉ० सोहनकृष्ण पुरोहित ७. सादड़ी के प्रतिमालेख में उल्लिखित हेमतिलकसरि कौन?
५७-६०
- डॉ० शिवप्रसाद ८. राष्ट्रोत्थाने में प्रागैतिहासिककालीन जैन महिलाओं का योगदान ६१-६७
- डॉ० पुष्पलता जैन ९. रसशास्त्र के विकास में जैनाचार्यों का योगदान
६८-७४
-कु० अंजू श्रीवास्तव १०. धम्मिलकुमारचरित्र
- श्री भंवरलाल नाहटा ७५-९० ११. दीघनिकाय में व्यक्त सामाजिक परिवेश
९१-९४ - डॉ० दीनानाथ शर्मा
ગુજરાતી ખંડ ૧૨. ગુજરાતની કેટલીક પ્રાચીન જિનમૂર્તિઓ
64-65
- શ્રી સારાભાઈ મણિલાલ નવાબ. ૧૩. સિદ્ધસારસ્વતાચાર્ય અમરચંદ્ર સૂરિ – શ્રી કનૈયાલાલ ભાઈશંકર દવે ૯૭-૧૦૨
English Section 14. The influence of Svayambhūdeva's Paūmacariu on Puspadanta's Rāma-story in the Mahāpurana 103-121
-Miss. Eva De Clercq 15. The Jaina way of Life
- Duli Chand Jain 122-129 16. The Veda And Indian Philosophy- Dr. Kireet Joshi 130-140 17. Jaina Dutakävya
- Dr. Ashok Kumar Singh 141-153 १८. पार्श्वनाथ विद्यापीठ के प्रांगण में
१५४-१५८ १९. जैन-जगत्
१५९-१६० २०. साहित्य-सत्कार
१६१-१६८ २१. निबन्ध-प्रतियोगिता
१६९-१७०
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Anim
1. Studies in Jaina Philosophy
2.
3.
Our Important Publications
4.
Jaina Temples of Western India
Jaina Epistemology
5.
6.
7.
8.
9.
10. Pearls of Jiana Wisdom
11. Scientific Contents in Prakrit Canons
12. The Heritage of the Last Arhat : Mahāvīra
43. The Path of Arhat
Concept of Pañcaśīla in Indian Thought Concept of Matter in Jaina Philosophy Jaina Theory of Reality
Jaina Perspective in Philosophy & Religion Aspects of Jainology (Complete Set: Vols. 1 to
7)
An Introduction to Jaina Sadhana
Prof. Sagarmal Jain Dulichand Jain
Dr. N.L. Jain
Dr. C. Krause
T.U. Mehta
14. Multi-Dimensional Application of Anekāntavāda Ed. Prof. S. M. Jain
& Dr. S.P. Pandey
20. वज्जालग्गं (हिन्दी अनुवाद सहित ) 21. प्राकृत हिन्दी कोश
22. जैन धर्म और तान्त्रिक साधना
23. गाथा सप्तशती (हिन्दी अनुवाद सहित ) 24. सागर जैन- विद्या भारती (तीन खण्ड)
Dr. Nathamal Tatia Dr. Harihar Singh Dr. I. C. Shastri
15. The World of Non-living
16.
अष्टकप्रकरण
17. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास (सम्पूर्ण सेट सात खण्ड) 18. हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास (सम्पूर्ण सेट चार खण्ड) 19. जैन प्रतिमा विज्ञान
25. गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण 26. भारतीय जीवन मूल्य
Dr. Kamla Jain
Dr. J. C. Sikdar
Dr. J.C. Sikdar
Dr. Ramji Singh
27. नलविलासनाटकम्
28. अनेकान्तवाद और पाश्चात्य व्यावहारिकतावाद 29. दशाश्रुतस्कन्धनिर्युक्ति : एक अध्ययन 30. पञ्चाशक - प्रकरणम् (हिन्दी अनुवाद सहित ) 31. सिद्धसेन दिवाकर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व 32. जैनधर्म की प्रमुख साध्वियाँ एवं महिलाएँ 33. मध्यकालीन राजस्थान में जैन धर्म 34. भारत की जैन गुफाएँ
35. महावीर की निर्वाणभूमि पावा एक विमर्श
500.00
Dr. N.L. Jain
400.00
अनु. - डॉ. अशोक कुमार सिंह 200.00
1400.00
1180.00
300.00
160.00
400.00
350.00
150.00
450.00
60.00
150.00
डॉ. मारुतिनन्दन तिवारी
पं. विश्वनाथ पाठक
सम्पा. -डॉ. के. आर. चन्द्र प्रो. सागरमल जैन
पं. विश्वनाथ पाठक
प्रो. सागरमल जैन
प्रो. सागरमल जैन प्रो. सुरेन्द्र वर्मा
सम्पा. - डॉ. सुरेशचन्द्र पाण्डे डॉ. राजेन्द्र कुमार सिंह डॉ. अशोक कुमार सिंह अनु. - डॉ. दीनानाथ शर्मा डॉ. श्रीप्रकाश पाण्डेय हीराबाई बोरदिया डॉ. (श्रीमती) राजेश जैन डॉ. हरिहर सिंह भगवतीप्रसाद खेतान
डॉ. फूलचन्द जैन डॉ. धर्मचन्द्र जैन डॉ. शिवप्रसाद
डॉ. शिवप्रसाद
डॉ. शिवप्रसाद
200.00
300.00
350.00
150.00
300.00
300.00
200.00
2500.00
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120.00
400.00
25.00
200.00
36. मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन 37. बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैन दृष्टि से समीक्षा 38. जैन तीर्थों का ऐतिहासिक अध्ययन
39. अचलगच्छ का इतिहास
40. तपागच्छ का इतिहास, भाग-1, खण्ड-1,
Parswanātha Vidyapitha, Varanasi - 221005 INDIA
60.00
150.00
125.00
250.00
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150.00
150.00
160.00
350.00
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300.00
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डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय
आचार में अहिंसा और विचार में अनेकान्त जैन धर्म और दर्शन के दो ऐसे स्तम्भ हैं जिनपर उसका भव्य प्रासाद अवस्थित है। जहाँ अहिंसा व्यावहारिक जगत् के संघर्षों का समाधान करती है, अनेकान्त वैचारिक संघर्षों का समाधान करता है एवं दोनों का समन्वय ही जैन दर्शन की पूर्णता है।
सत्यान्वेषण भारतीय दर्शन का प्रमुख वैशिष्ट्य रहा है। भारतीय दर्शन प्रणालियों में मुख्यतया एकान्तवादी और अनेकान्तवादी चिन्तन के दो दृष्टिकोण हैं। एकान्तवादी का अर्थ है- एक ही दृष्टिकोण से चिन्तन का आयाम तथा अनेकान्तवादी का अर्थ है अनेक दृष्टिकोण से चिन्तन का आयाम। एकान्त का अर्थ है- वस्तु के एक ही धर्म को स्वीकार करना या वस्तु को एक ही दृष्टिकोण से देखना जो वस्तु के यथार्थ स्वरूप के सर्वथा विपरीत और असत्य है। स्पष्ट है कि एकान्तवादी विचारधार वस्तु या तत्त्व के समग्र पहलुओं की समुचित व्याख्या नहीं कर सकती क्योंकि उसका दृष्टिकोण एकान्तिक होगा। सत् के दो पहलू हैं- द्रव्य और पर्याय। सत् के इन विविध पहलुओं में से अद्वैत वेदान्त ने द्रव्य को पारमार्थिक सत्य मानकर पर्याय को काल्पनिक कहा तो बौद्धों ने पर्याय को पारमार्थिक बता कर द्रव्य को काल्पनिक माना। अन्य दार्शनिक इन मतों का खण्डन-मण्डन करते प्रतीत होते हैं। इसके विपरीत समन्वयवादी जैन चिन्तकों ने सत् को उत्पाद, व्यय और ध्रौव्ययुक्त मानकर द्रव्य तथा पर्याय दोनों की सत्यता का उद्घोष किया है तथा स्वसिद्धान्त को अनेकान्तवाद के नाम से प्रतिपादित किया है। अनेकान्तवाद अनन्तधर्मात्मक वस्तु के विराट स्वरूप को जानने का वह निर्दोष सिद्धान्त है जिसमें विवक्षित धर्मों को जानकर भी वस्तु में उपस्थित अन्य धर्मों का निषेध नहीं किया जाता है। वस्तु का कोई भी अंश छूट नहीं पाता। इस प्रकार अनेकान्तवाद सर्वत्र रहे हुए सत्य खण्डों को जोड़कर सम्पूर्ण सत्य के दर्शन का सिद्धान्त है।
परम्परा की दृष्टि से अनेकान्तवाद के उद्भावक प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेव हैं। २ किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से अनेकान्तवाद का उद्भव २३ वें तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ की शिक्षाओं *. वरिष्ठ प्रवक्ता, जैन दर्शन, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी
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में हुआ। उनके २५० वर्षों बाद भगवान् महावीर अनेकान्तवाद के प्रबल प्रवर्तक हुए। स्वतन्त्र दृष्टि से विचार किया जाय तो अनेकान्तवाद का उद्भव विभिन्न दर्शनों द्वारा दृष्ट सत्यों में एकरूपता लाने, उनमें समन्वय तथा सामञ्जस्य स्थापित करने तथा दुराग्रह एवं अभिनिविष्ट वृत्ति को छोड़कर स्वस्थ, निर्मल एवं तटस्थ भाव से सत्य की खोज करने हेतु ही हुआ है।
अनेकान्त शब्द में अनेक' और 'अन्त' इन दो शब्दों का संयोग है जिसमें अनेक का अर्थ है- एक से अधिक और अन्त का अर्थ है- धर्म या गुण। रत्नकरावतारिकारे में अन्त शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार दी गई है। 'अम्यते गम्यते निश्चीयते इति अन्तः धर्म:। न एक: अनेकः। अनेकश्चासौ अन्तश्च इति अनेकान्तः।' इस प्रकार वस्तु में अनेक धर्मों को मानना अनेकान्त है। अब अनेकान्तवाद को लें। अनेकान्तवाद में अनेक, अन्त,
और वाद इन तीन शब्दों का संयोग हैं। दो शब्दों का अर्थ तो पूर्ववत ही है, वाद शब्द का अर्थ है- प्रकटीकरण या प्रभावना। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश में वाद शब्द का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि व्यवहार में धर्म प्रभावना अर्थात् व्यवहार में वस्तुओं की अनन्तधर्मता को प्रकट करना ही वाद है। इस प्रकार अनेकान्तवाद का अर्थ होगा वस्तुओं की अनन्तधर्मता को प्रकट करना। सप्तभंगीतरंगिणी५ में अनेकान्तवाद की व्युत्पत्ति करते हुए कहा गया है कि "अनेके अन्ता धर्म: यस्मिनवादे सह अनेकान्तवादः" यहाँ अन्त शब्द धर्म का वाचक है। इस परिभाषा में अनेकान्तवाद के उपरोक्त अर्थ की ही पुष्टि की गई है। अष्टसहस्री में अनेकान्त शब्द का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि वस्तु में न सर्वथा सत्व है न सर्वथा असत्व। न सर्वथा नित्यत्व है, न सर्वथा अनित्यत्व है। किन्तु किसी अपेक्षा से उसमें सत्व है तो किसी अपेक्षा से असत्व, किसी अपेक्षा से नित्यत्व है तो किसी अपेक्षा से अनित्यत्व है। सत्व, असत्व, नित्यत्व, अनित्यत्व आदि सर्वथा एकान्तों के अस्वीकृति अथवा प्रतिवाद का नाम ही अनेकान्त है। इन परिभाषाओं के आधार पर अनेकान्तवाद का अर्थ होता है वस्तुओं की अनन्त धर्मता को प्रकट करना या विभिन्न अपेक्षाओं से एक ही वस्तु में अनेक धर्मों को स्वीकार करना। डॉ. सागरमल जैन ने अनेकान्तवाद के केवल इस अर्थ से असहमति व्यक्त की है। उनके अनुसार अनेकान्तवाद केवल वस्तु की अनन्तधर्मात्मकता को ही सूचित नहीं करता अपितु वह उसकी अनेकान्तिता को भी सूचित करता है। इस प्रकार अनेकान्त का अर्थ अनेक-अन्त (एक से अधिक अर्थ न होकर अन्+एकान्त अर्थात् एकान्त का निषेध है) क्योंकि जैन दर्शन के अनुसार वस्तु तत्त्व अनन्तधर्मात्मक होने के साथ-साथ अनेकान्तिक भी है। मानव बुद्धि जिन्हें परस्पर विरोधी धर्मगुण मान लेती है वे भी एक ही वस्तु तत्त्व में अपेक्षा भेद से एक साथ रहते हुए देखे जाते हैं। जैसे एक ही व्यक्ति पितृत्व और पुत्रत्व, भातृत्व और पतित्व आदि विरोधी गुणधर्मों से सम्पन्न है। जो व्यक्ति अपने पिता की अपेक्षा से पुत्र है वही अपने पुत्र की अपेक्षा से पिता है। इस प्रकार
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एक ही वस्तु में अनेक परस्पर गुणधर्म अपेक्षा भेद से विद्यमान रहते हैं। वस्तु एक ही साथ सद्सदात्मक, नित्यानित्यात्मक एवं भावाभावात्मक भी है। सर्वथा नित्यत्व
और सर्वथा अनित्यत्व रूप कोई वस्तु नहीं है। क्योंकि नित्यता और अनित्यता दोनों धर्म वस्तु में विद्यमान हैं तथा केवल किसी एक की सर्वथा स्वीकृति एकान्तवादी होगी जो आग्रह से परे नहीं होगी। वस्तु का एकरूप तीनों कालों में शाश्वत है और दूसरा सदा परिवर्तनशील है। इसी शाश्वतता के गुणधर्म के कारण प्रत्येक वस्तु द्रव्यात्मक है या स्थिर है और परिणमनशीलता के कारण वह उत्पाद-व्ययात्मक या अस्थिर है। भगवान् महावीर ने अपने युग में प्रचलित शाश्वतवादी और उच्छेदवादी परस्पर भिन्न और विरोधी विचारधाराओं के बीच समन्वयरूप त्रिपदी “उपत्रेइ वा विगमेइ वा धुवेइ वा'१° का उपदेश दिया त्रिपदीरूप यही वह बीज है जिस पर अनेकान्तवाद और स्याद्वाद रूपी वटवृक्ष विकसित हआ है। अवधेय है कि साधारणतया अनेकान्तवाद
और स्याद्वाद पर्यायवाची माने जाते हैं, अनेक आचार्यों ने इन्हें पर्यायवाची बताया भी है किन्तु फिरभी दोनों में थोड़ा अन्तर है। अनेकान्तवाद स्याद्वाद की अपेक्षा अधिक व्यापक अर्थ का द्योतक है। दोनों में व्याप्य-व्यापक भाव है। अनेकान्तवाद व्यापक है
और स्याद्वाद व्याप्य। अनेकान्तवाद वाच्य है तो स्याद्वाद वाचक। अनेकान्त वस्तुरूप है तो स्याद्वाद उस अनेकान्तिक वस्तु स्वरूप के कथन की निर्दोष भाषा पद्धति और अनेकान्त दर्शन है तो स्याद्वाद उसकी अभिव्यक्ति का ढंग।११ स्याद्वाद सप्तभंगीनय के आधार पर वस्तु तत्त्व का निर्दोष व सापेक्षित कथन करता है जिसके बिना अनेकान्तवाद की समुचित व्याख्या नहीं की जा सकती। डॉ० पद्मराजे १२ ने कहा है कि अनेकान्तवाद जैन दर्शन का हृदय है तथा नयवाद और स्याद्वाद इसकी रक्तवाहिनी धमनियाँ हैं।
यद्यपि जैन दर्शन अनेकान्तवादी है तथापि यदि उसे सर्वथा अनेकान्तवादी मानें तो यह भी एक एकान्त हो जायेगा। १३ जैन दर्शन में अनेकान्त में भी अनेकान्त को स्वीकार किया गया है। जैन दर्शन सर्वथा न एकान्तवादी है न सर्वथा अनेकान्तवादी। वह कथञ्चित एकान्तवादी है और कथञ्चित अनेकान्तवादी। आचार्य समन्तभद्र के अनुसार प्रमाण और नय की अपेक्षा से अनेकान्त भी अनेकान्त है।
यद्यपि जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक वस्तु अनेक परस्पर विरोधी धर्म युगलों (अनेकान्तवाद के आधार पर चार विरोधी धर्म युगलों का निर्णय किया जाता है- १. शाश्वत और परिवर्तन, २. सत् और असत्, ३. सामान्य और विशेष, ४. वाच्य तथा अवाच्य। परन्तु ये चार विरोधी युगल मात्र एक संकेत हैं। द्रव्य में इस प्रकार के अनेक विरोधी युगल हैं वह उन विरोधी धर्म युगलों) का पिण्ड है तथापि वस्तु में सम्भाव्यमान परस्पर विरोधी धर्म ही पाये जाते हैं, असम्भाव्यमान नहीं, अन्यथा आत्मा में नित्यत्व एवं अनित्यत्व के समान चेतनत्व और अचेतनत्व दोनों धर्मों की सम्भावना का प्रसंग
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आयेगा। जबकि जो चेतन है उसे अचेतन और जो अचेतन है उसे चेतन नहीं कहा जा सकता। सत्य यह है कि जिन धर्मों का वस्तु तत्त्व में अत्यन्ताभाव है उन धर्मों का उसमें उपस्थित रहना कथमपि सम्भव नहीं है। वस्तुत: चेतनत्व और अचेतनत्व दो परस्पर विरोधी धर्म हैं और नित्यत्व और अनित्यत्व परस्पर विरोधी नहीं अपितु विरोधी से प्रतीत होने वाले धर्म हैं। उनकी सत्ता द्रव्य में एक साथ पायी जाती है। जैन दर्शन में नित्यत्व की व्याख्या है- पूर्व और अपर परिणाम में रहने वाली साधारण रूप से एकस्वरूपता, न कि जैसा वेदान्ती और अन्य दार्शनिक मानते हैं- न नष्ट होने वाला, न ही उत्पन्न होने वाला एवं स्थिर स्वभाव वाला ही कूटस्थ नित्य है। वस्तु में उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य या नित्यता एकसाथ रहते हैं जो एक दूसरे के बिना नहीं रह सकते और जो जिससे अविनाभाव'४ सम्बन्ध रखता है उन दोनों का परस्पर विरोध नहीं रहता। अलग-अलग शब्दों का व्यवहार विवक्षा के कारण होता है। ध्रौव्य में उत्तररूप के प्राधान्य की अपेक्षा से उत्पाद का, और पूर्वरूप के निवृत्ति के प्राधान्य की अपेक्षा से व्यय का तथा उन दोनों में ही अन्वय के प्राधान्य की अपेक्षा से ध्रौव्य का व्यपदेश होता है। एकत्व और अनेकत्व अपेक्षा भेद से हैं।
इस प्रकार अनेकान्तवाद सत्य और अहिंसा की भूमिका पर प्रतिष्ठित भगवान् महावीर का सार्वभौमिक सिद्धान्त है जो सर्व धर्म समभाव के चिन्तन से अनुप्राणित है। उसमें लोकहित और लोकसंग्रह की भावना गर्भित है। धार्मिक, राजनैतिक, सामाजिक
और आर्थिक विषमताओं को दूर करने का अमोघ अस्त्र है। समन्वयवादिता के आधार पर सर्वथा एकान्तवादिओं को एक प्लेटफार्म पर ससम्मान बैठने का उपक्रम है। यह अनेकान्तवाद ही जैन दर्शन की मूल दृष्टि है।
___ अब हम देखेंगे कि अनेकान्तवाद का प्रयोग क्या मूल्यपरक शिक्षा के लिए एक यन्त्र के रूप में हो सकता है?१. धार्मिक शिक्षा में
'धारयति इति धर्मः' अर्थात् जो सारी प्रजा को धारण करता है वह धर्म है। धर्म मनुष्य को मनुष्य से और आत्मा को आत्मा से जोड़ने की कला है। धर्म का अवतरण मनुष्य को शाश्वत शान्ति और सुख देने के लिए हआ है किन्तु हमारी मतान्धता और उन्मादी वृत्ति के कारण धर्म के नाम पर दीवारें खड़ी की गई। विश्व इतिहास का अध्येता इस बात को भली-भाँति जानता है कि धार्मिक असहिष्णुता ने विश्व में जघन्य दुष्कृत्य कराये हैं। १५ आश्चर्य तो तब होता है जब उन्हीं घटनाओं की पुनरावृत्ति आज हो रही है। आज धर्म के नाम पर दमन, अत्याचार, नृशंसता एवं रक्तप्लावन की घटनाएँ आम हो गई हैं। शान्ति, सेवा और समन्वय का प्रतीक धर्म ही अशान्ति, तिरस्कार और वर्ग-विद्वेष का कारण हो गया है। धर्म के नाम पर धर्मान्धों की युद्धों, रक्तपातों एवं..
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उनमें निहित मनुष्य की विनाशकारी प्रवृत्ति का इतिहास भी आज मानव की उसका बोध कराने में अक्षम है। वर्तमान समय में रामजन्म भूमि बाबरी मस्जिद, पुरी के मन्दिरों में शूद्रों का प्रवेश हिन्दू-मुस्लिम के साम्प्रदायिक दंगे जैसी अर्थहीन समस्याएँ धर्म के नाम पर पैदा कर मानव ही मानवता के शोषण में सन्नद्ध है। धर्म को मोहरा बनाकर व्यक्ति व व्यक्ति के बीच, सम्प्रदाय-सम्प्रदाय के बीच एवं मजहब-मजहब के बीच अविश्वास की खाईं ने ऐसी स्थिति पैदा कर दी है कि आज सम्पूर्ण मानवता अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए गुहार कर रही है। ऐसे में जैन दर्शन की अनेकान्तवादी विचारधारा धार्मिक कट्टरता एवं अन्धविश्वास को दूर कर धार्मिक सहिष्णुता को जन्म दे सकती है। धर्म के नाम पर विद्वेष तब होता है जब हम अपने ही धर्म को सच मान बैठते हैं। जब हम अपने धर्म की प्रशंसा और दूसरे के धर्म की बुराई १६ करते हुए यह मान बैठते हैं कि हमारा ही धर्म, हमारी ही साधना पद्धति एक मात्र व्यक्ति को अन्तिम साध्य तक पहुँचा सकती है और जिसे जैन दर्शन की परिभाषा में एकान्तवादी कहा गया है। एकान्तवाद आग्रह या संक्लिष्ट मनोदशा का परिणाम है। इसलिए एकान्तवादी दृष्टि या विचारधारा से लिए गये सभी निर्णय आग्रह पूर्वक होते हैं जो दूसरे के धर्म भी सच्चे हैं, लोक कल्याण हेतु हैं, सोचने के लिए अवकाश ही नहीं देते। अनेकान्तवाद से ही यह सम्भव है कि अपूर्ण और अपने से विरोधी होकर भी दूसरे की बात में यदि सत्य है तो इन दोनों का समन्वय करके पूर्ण और यथार्थ को ग्रहण किया जा सके। अनेकान्त की इस विचारधारा में अपूर्ण रूप से विचारित होकर भी पूर्णता गर्भित होती है। जैन परम्परा विचारों का सत्यलक्षी संग्रह होने के कारण किसी भी विचारसरणी की उपेक्षा नहीं करना चाहती। बल्कि प्रत्येक विचारधारा को अपने में समाहित कर लेती है। किसी एक या एकान्तिक दृष्टिकोण के विचार में आते ही अन्य समस्त सम्भावित दृष्टिकोण नेपथ्य में स्वत: उपस्थित हो जाते हैं। दूसरे के धर्म के प्रति समभाव समाप्त हो जाता है। आचारांग१७ में समभाव को ही धर्म कहा गया हैऔर यह समभाव तभी आएगा जब हम एकान्तवादी विचारधारा का परित्याग कर अनेकान्त को अपनायेंगे। इस प्रकार धार्मिक शिक्षा में धर्म के यथार्थ मर्म को समझाने के लिए अनेकान्तवाद को शिक्षा के एक यन्त्र के रूप में प्रयुक्त किया जा सकता है क्योंकि अनेकान्तवाद स्वस्थ चिन्तन प्रक्रिया के साथ-साथ स्वस्थ आचार की भी प्रथम भूमिका है। २. सामाजिक शिक्षा में
___ समाज व्यक्तियों का समूह है और व्यक्ति समाज की इकाई है। एक अच्छे और सुसंस्कृत समाज के लिए आवश्यक है कि समाज में भाईचारा और समानता का भाव सर्वत्र परिव्याप्त हो। वर्तमान समय में गिरते हुए सामाजिक मूल्यों के हेतुओं पर यदि निगाह डालें तो उनके मूल में भी एकान्तवादी दृष्टिकोण ही है जो सारी विषमताओं
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और द्वेषों के मूल में है। आज के वर्तमान सामाजिक परिवेश में व्यक्ति और व्यक्ति के बीच, एक वर्ग तथा दूसरे वर्ग के बीच, एक समाज तथा दूसरे समाज के बीच अविश्वास की खाईं ने ऐसी विषम स्थिति पैदा कर दी है कि “वसुधैव कुटुम्बकम्' का आदर्श छिन्न-भिन्न हो गया है। आज का मनुष्य यह नहीं समझ पा रहा है कि उसका मंगल दूसरे के लिए अपने हेतु के उत्सर्ग में है। वह उत्सर्ग के सामाजिक जीवन दर्शन के स्थान पर शोषण के व्यक्तिवादी दर्शन का उपासक बन गया है। परिणाम स्वरूप सभी एक दूसरे से भयभीत, आतंकित एवं शोषणजनित विषमता के कारण दुःखित है। आज विश्व में सबसे उलझा हुआ प्रश्न यह है कि व्यक्ति को सुधारने में सारी शक्ति लगाई जाय या समाज को सुधारने में। एक पक्ष है व्यक्तिवादियों का जो चाहते हैं कि चूंकि व्यक्ति अलग-अलग इकाई है और भिन्न-भिन्न व्यक्तियों या इकाइयों को सुधारा जाय और उनका विकास किया जाय तो इनका असर समाज पर पड़ेगा और समाज में अपने आप सुधार आ जाएगा।१८ दूसरी ओर समाजवादियों का पक्ष है जिसकी सोच यह है कि व्यक्ति-व्यक्ति में कब तक सुधार किया जाय, व्यक्ति बड़ा नहीं है समाज बड़ा है। अत: समाज के जीवन का निर्माण होना चाहिए। ऐसा तब तक नहीं हो सकेगा जब तक व्यक्ति के सोचने की परिधि स्व तक सिमित है या एकान्तिक है। एकान्तिक, एकांशिक, एकांगिक दृष्टियों से समाज में वैयक्तिक विग्रह उत्पन्न होता है। इन दोनों वादों में समन्वय की आवश्यकता है। व्यष्टि निर्माण के बिना सामाजिक निर्माण की कल्पना करना मूल को छोड़कर पत्तियों और शाखाओं को सींचना है। समाज में ऊँचा रहने का अधिकार सिर्फ हमारा ही है इस तरह के कदाग्रहों का जनक एकान्तिक दृष्टिकोण है और अनेकान्तवादी दृष्टिकोण रखकर यदि व्यक्ति-व्यक्ति के विषय में सोचे अपने समान ही दूसरे को समझे, जितना उसका अधिकार समाज पर है उतना ही अन्य का भी है ऐसा सोचे तो "वसुधैव कुटुम्बकम्" "परस्परोपग्रहोजीवानाम्"१९ तथा “संगच्छध्वं संवदध्वं संवो मनांसि जानताम्"२० के आदर्श को चरितार्थ करने वाले एक नये समाज की संरचना हो सकती है जो वर्ग विद्वेष, जातीयता आदि महामारियों से विहीन एक पूर्ण स्वस्थ समाज होगा। क्योंकि पारस्परिक हित साधन की स्वाभाविक वृत्ति ही मनुष्य की सामाजिकता का आधार है। इसके लिए सामाजिक शिक्षा में अनेकान्तवाद को एक आदर्श समाज की स्थापना की प्रक्रिया में दी जाने वाली शिक्षा के यन्त्र के रूप में प्रयुक्त किया जा सकता है। ३. राजनैतिक शिक्षा में
__भारतीय राजनिति प्रजातान्त्रिक प्रणाली की पोषक है। शासन की प्रणालियों में अधिनायकवाद तन्त्र ही ऐसी प्रणाली है जिसमें स्वदेश के शासन में एकान्तवादी प्रक्रिया के समावेश की सम्भावना रहती है। इसमें एक ही व्यक्ति की आज्ञा काम करती है जो पूर्णतया मात्र एक व्यक्ति के विवेक और संस्कार पर आधारित है। अगर उसकी
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विचारधारा एकान्तिक है तो अधिनायकवाद विष हो सकता है और सम्पूर्ण राष्ट्र विनष्ट हो सकता है। अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्रों में अन्य देशों की विचारधाराओं का भी सम्मान करना पड़ता है, अत: यदि अनेकान्त दृष्टिकोण है तो अधिनायकवाद के निरंकुश होने की सम्भावना समाप्त हो जाती है।
भारतीय प्रजातान्त्रिक परिवेश में एकान्तवादता को कोई स्थान नहीं है। न वहाँ दुराग्रह, हठवाद, पक्ष-प्रतिबद्धता, अधिनायकवाद आदि को कोई स्थान है। आज के वर्तमान राजनीतिक परिवेश पर निगाह डालें तो भ्रष्टाचार, राजनीति की आड़ में वर्ग संघर्ष को प्रोत्साहन, स्वसत्ता की दीर्घायुता के लिए मानवीय मूल्यों का शोषण आम हो गया है। उसका कारण है- समन्वय, सामञ्जस्य का अभाव एवं एकान्तिक दृष्टिकोण। पारस्परिक विरोध एवं मतभेद के शमन के मार्ग को आज के राजनेता अपनाना नहीं चाहते। जिसके बिना प्रजातन्त्र दिन वे दिन कमजोर होता जा रहा है। महावीर ने कहा था कि विरोधियों द्वारा स्वीकृत सत्य भी सत्य है, विरोधियों के सत्य में भी सृजनात्मक तत्त्व विद्यमान रहते हैं। स्वसत्य से तालमेल न बैठने के कारण उनकी उपेक्षा विध्वंसात्मक भावों को जन्म देती है। अनेकान्तवाद को राष्ट्रीय नीतियों के स्वीकृति के साथ अन्तर्राष्ट्रीय नीतियों में जो ग्रहण करने योग्य हो उसे भी अपनाना चाहिए और विरोध पक्ष को भी उतना ही सम्मान देना चाहिए। महात्मा गांधी२१ ने लिखा है कि पहले मैं मानता था कि मेरे विरोधी अज्ञान में हैं। आज मैं विरोधियों को प्यार करता हूँ क्योंकि अब मैं अपने को विरोधियों की दृष्टि से देख सकता हूँ। मेरा अनेकान्तवाद सत्य और अहिंसा के युगल सिद्धान्तों का ही परिणाम है। इस प्रकार यदि राजनैतिक शिक्षा में अनेकान्तमूलक समन्वय दृष्टि का समावेश किया जाय तो राजनीतिक एकान्तवाद, दुराग्रह, हठवादिता एवं पक्ष-प्रतिबद्धता से दूर होगी और स्वस्थ प्रजातन्त्र का स्वप्न साकार होगा। ४. साहित्य कला और सांस्कृतिक शिक्षा में
साहित्य और कला सामाजिक सृजन के आयाम हैं और संस्कृति समाज का आईना होती है। साहित्य के सन्दर्भ में अगर एकान्तवादी विचारधारा का प्रवेश हुआ तो साहित्य अपनी गरिमा खो बैठेगा और बद्धमूल तथा आग्रही विचारों के कारण वह वितण्डावाद के सिकंजे में कस जाएगा। परिणाम स्वरूप साहित्य और कला का विकास अवरुद्ध हो जाएगा। आज ऐसी विचारधाराओं के साहित्यकारों की कमी नहीं है जो साहित्य में स्वस्थापित मत से सूचकाग्रह भी इधर-उधर नहीं होना चाहते। आधुनिकतावादी, प्रयोगवादी, नवनवीन प्रज्ञाउन्मेष अनुयायी अधिक उदार होंगे ऐसी आशा थी पर वे स्व के अहं से कोई समझौता करने को तैयार नहीं दीखते। डॉ. प्रभाकर माचवे२२ ने लिखा है कि आग्रही वृत्ति साहित्य कला और संस्कृति कला के विकास के लिए हानिकारक है। मनोविश्लेषक यह जानते हैं कि पूर्वाग्रह एक प्रकार का मनोरोग है,
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उससे तो कोई भी ज्ञान आगे विकसित हो ही नहीं सकता। जहाँ ज्ञान नहीं है वहाँ सृजन कहाँ से होगा। ऐसी दशा में अनन्त सम्भावनाओं वाले अनेकान्त की शिक्षा से हमें बहुत प्रेरणा मिलेगी। वह अवक्तव्य तक मानवी कल्पना को पहुंचाता है।
आधुनिक युग में दो प्रकार की संस्कृति प्रचलन में है। एक पाश्चात्य संस्कृति और दूसरी पौर्वात्य संस्कृति। पाश्चात्य संस्कृति बहिर्मुखी होने के कारण भौतिकता को अधिक महत्त्व देती है और पौर्वात्य संस्कृति अन्तर्मुखी होने से आध्यात्मिक सुप्त शक्तियों के विकास द्वारा मानव को सुखी बनाने में प्रयत्नशील है। इसीलिए पौर्वात्य संस्कृति स्वयंप्रधान है। इन दोनों संस्कृतियों के संघर्ष में मनुष्य की स्थिति दोलन (Pendulam) जैसी है। भारतीय संस्कृति समन्वयात्मक है। उसमें दोनों विचार पद्धतियों का समावेश है। वह व्यक्ति के आध्यात्मिक और आधिभौतिक विकास को समान्तररूप से स्वीकार करती है। आज जो समस्याएँ हमारे समाज के सामने हैं वे किसी एक पक्ष पर अधिक झुकने या एकान्तिक दृष्टिकोण अपनाने से उत्पन्न हैं। सामाजिक सुख और शान्ति के लिए एक सुसंस्कृत समाज के लिए दोनों पद्धतियों का समन्वय करके चलना श्रेयस्कर होगा। अत: एकान्तवाद को छोड़कर समन्वय के प्रयोजक, अनेकान्तवाद का अवलम्बन आधुनिक सन्दर्भ में उपयुक्त होगा, क्योंकि अनेकान्तवाद आध्यात्मिक जीवन का मूल तो है ही वह लौकिक जीवन को भी सुव्यवस्थित करता है। भारतीय संस्कृति और कला के क्षेत्र में दी जाने वाली शिक्षाओं में अनेकान्तवाद की शिक्षा भारतीय संस्कृति की यथार्थ शिक्षा के लिए अत्यन्त आवश्यक है। ५. वैज्ञानिक शिक्षा में
१५ वीं शती के विज्ञान के लिए परमार्थ सत्ता के सम्बन्ध में निरपेक्ष रूप से कुछ कहना सम्भव था। परन्तु आधुनिक युग के विज्ञान के लिए ऐसा कुछ कहना सम्भव नहीं हो रहा है। क्योंकि विज्ञान यह अनुभव करने लगा है कि परमार्थ सत्ता का कोई एकान्तिक स्वरूप नहीं हैं। अत: अनेकान्त का यह दार्शनिक सत्य अब वैज्ञानिक सत्य भी बन रहा है। वैज्ञानिक सापेक्षवाद (Theory of Relativity) के सन्दर्भ में स्याद्वाद
और अनेकान्तवाद का अध्ययन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। वैज्ञानिकों ने इस बात का स्वीकार किया है कि हम वस्तु के स्वरूप को अनेकान्तिक दृष्टि से ही जान सकते हैं और विश्लेषित कर सकते हैं। प्रसिद्ध वैज्ञानिक अलबर्ट आइन्स्टाइन आदि ने विश्व में व्याप्त सापेक्षता के सिद्धान्त के खोज द्वारा एक छोटे से परमाणु तक में अनन्त शक्ति और गुणों का होना सिद्ध कर दिया है। जिस पदार्थ के विषय में यह कहा जाता है कि इसका वजन एक सौ चौवन पाउण्ड है, सापेक्षवाद कहता है कि यह है भी और नहीं भी। क्योंकि भूमध्य रेखा पर यह एक सौ चौवन पाउण्ड है पर दक्षिणी ध्रुव और उत्तरी ध्रुव पर वह एक सौ पचपन पाउण्ड है। गति और स्थिति आदि को ले कर वह और भी बदलता रहता है। प्रो. पी.सी. महालनवीस ने स्याद्वाद के सप्तभंगी को सांख्यिकी सिद्धान्तों के
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आधार रूप में उपन्यस्त किया है। इस प्रकार अनेकान्तवाद वैज्ञानिक शिक्षा में भी एक यन्त्र के रूप में प्रयुक्त किया जा सकता है जिससे वैज्ञानिकों में वैचारिक सामञ्जस्य, समन्वय और एक नई दृष्टि विकसित हो, तभी तत्त्व के यथार्थ स्वरूप का सर्वागीण अध्ययन हो सकेगा।
इस प्रकार हम देखते हैं कि अनेकान्तवाद को सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक, वैज्ञानिक तथा सांस्कृतिक शिक्षा के एक यन्त्र के रूप में प्रयोग कर समाज का स्वस्थ एवं सर्वांगीण विकास किया जा सकता है।
शिक्षा के यन्त्र के रूप में अनेकान्तवाद का प्रयोग शिक्षा के प्रत्येक स्तर पर किया जा सकता है। प्रारम्भिक शिक्षाओं में कहानियों एवं उदाहरणों के माध्यम से इसे समझाया जा सकता है, जैसे हाथी के उदाहरण द्वारा जैन साहित्य में अनेकान्तवाद को समझाया गया है। पूर्व उच्च और उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रमों में अनेकान्तवाद का निवेश कर इसकी शिक्षा दी जा सकती है। वर्तमान परिवेश में अनेकान्तवाद का ज्ञान जैन विद्या केन्द्रों या दर्शन के एक भाग जैन दर्शन के रूप में ही सीमित है । यदि समाजशास्त्रीय, धार्मिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक शिक्षा के पाठ्यक्रमों में स्थान देकर इसका अध्ययन, अध्यापन किया जाय तो अनेकान्तवाद अनेक मिथ्या अभिनिवेशों व आग्रहों को मिटाकर एक सामञ्जस्यपूर्ण समाज की संरचना करने में अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हो सकता हैं ।
सन्दर्भ :
१.
२.
जहाँ अहिंसा से आचरण संहिता बधी हुई है स्याद्वाद से वाणी की मंजुलता सधी हुई है। अनेकान्त का इन्द्रधनुष चिन्तन ने जहाँ छुआ है महावीर का जीवन दर्शन सार्थक वहीं हुआ है । ।
६.
अनन्तधर्मात्मकम् वस्तु- स्याद्वादमञ्जरी, श्लोक २२ की टीका.
डॉ० पुष्पमित्र, 'श्रमण संस्कृति का विकास एवं विस्तार', अमरभारती, मार्च-अप्रैल १९७१.
३.
रत्नाकरावतारिका, पृ० २९.
४. जैनेन्द्रसिद्धान्तकोष, भाग- ३, पृ० ५४१.
सप्तभंगीतरंगिणी, पृ० ३०. सदसन्नित्यानित्यादिसर्वर्थकान्तप्रतिक्षेपण लक्षणोनेकांतः, अष्टसहस्त्री, गाथा
१०३, पृ० २८६.
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७. स्याद्वाद और सप्तभंगी, प्रस्तावना, डॉ. बी.आर. यादव, पृ० ४७. ८. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा २५३. ९. समयसार, २४७. १०. (१) माउणानुओगे, स्थानांग, १०, सूत्र ७२७.
(२) उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक सत्, तत्त्वार्थसूत्र, ५/२९. ११. डॉ. सागरमल जैन, स्याद्वाद और सप्तभंगी, भूमिका, पृ० १४. १२. Anekanta is the heart of Jain Metaphysics and Nayavada and
Syâdvāda (or Saptabhangi) are its main arteries. Dr. Y.J. Padmarajaiah, A comperative Study of the Jain theories of Reality
and Knowledge, p. 273. १३. अनेकान्तोऽप्यनेकान्त: प्रमाणनयसाधनः। स्वयंभूस्तोत्र, श्लोक १०३. १४. अविनाभावपियद्येननतत्तेनविरुध्यते, अनेकान्तव्यवस्था, पृ० ८३. १५. डॉ० सागरमल जैन, धार्मिक सहिष्णुता और जैनधर्म, पृ० ३. १६. सयं-सयंपसंसंतागरहंतापरवयं, सूत्रकृतांग, ११/१/२/२३. १७. समियाए धम्मे आरियेहिं पव्वइए। आचारांग, १/८/३. १८. राजेन्द्रलाल डोसी, अनेकान्तवाद एक समीक्षात्मक अध्ययन, पृ० २३१. १९. तत्त्वार्थसूत्र, ५/२१. २०. ऋग्वेद, १०/१९१/२. २१. महात्मा गांधी, हरिजन, २१ जुलाई १९४६. २२. डॉ. प्रभाकर माचवे, जैन जगत्, परिनिर्वाण विशेषांक, पृ० ३२.
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जैन तत्त्व- चिन्तन की वैज्ञानिकता
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डॉ० कमलेश कुमार जैन*
भारतीय दर्शनों में तत्त्वों का उल्लेख प्रायः सभी दार्शनिकों ने किया है। कुछ आचार्य तत्त्वों को 'पदार्थ' इस नाम से भी सम्बोधित करते हैं। साथ ही इन तत्त्वों की संख्या में भी मतभेद है।
वैशेषिक द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय- इन छह को भाव रूप पदार्थ तथा पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा और मनइन नौ को द्रव्य मानते हैं । १ नैयायिक प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रहस्थान — इन सोलह को पदार्थ मानते हैं । २ चार्वाक पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु — इन चारों को तत्त्व मानते हैं और उनके अनुसार इन्हीं के सम्मिश्रण से चैतन्य रूप आत्मा की उत्पत्ति होती है । ३ वेदान्त दर्शन में एक ब्रह्मतत्त्व को ही स्वीकार किया गया है।
४
जैनदर्शन में लोक-व्यवस्था अथवा विश्व व्यवस्था को लेकर तत्त्व, पदार्थ और द्रव्य - इन शब्दों का प्रयोग हुआ है। जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष- ये सात तत्त्व हैं । ५ इनमें पुण्य और पाप इन दो का समावेश कर देने पर यही नौ पदार्थ कहलाते हैं। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल - ये छह द्रव्य हैं। इन छह द्रव्यों से सम्पूर्ण लोक ठसाठस भरा है। इनका सम्बन्ध विशुद्ध रूप से लोक व्यवस्था से है । यहाँ यह ध्यातव्य है कि जीव का समावेश सप्त तत्त्वों और छह द्रव्यों में भी किया गया है और सर्वप्रथम किया गया है। इसका तात्पर्य यह है कि इन सभी तत्त्वों अथवा द्रव्यों में जीव सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण एवं प्रमुख है। यदि जीव नहीं है तो चैतन्य रूप आत्मा अथवा ज्ञानपिण्ड रूप आत्मा का अस्तित्व समाप्त हो जायेगा और उसके अभाव में ज्ञान का कार्य चिन्तन ही नहीं रहेगा। अतः इतना तो सुनिश्चित है कि जीव का अस्तित्व ही चिन्तन का मूल बिन्दु है। साथ ही यदि उपर्युक्त तत्त्वों और द्रव्यों को दो भागों में विभक्त किया जाये तो एक ओर जीव है और शेष सभी तत्त्व अथवा द्रव्य अजीव रूप हैं। अजीव तत्त्व ही द्रव्यों की गणना के प्रसङ्ग * जैनदर्शन प्राध्यापक, जैन-बौद्धदर्शन विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी
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में पुद्गल नाम से अभिहित होता है।
लोक-व्यवस्था की दृष्टि से पूर्वोक्त छह द्रव्यों का विशेष महत्त्व है। ये द्रव्य लोक में ठसाठस भरे हैं। लोक का ऐसा कोई भी स्थान नहीं है जहाँ ये छह द्रव्य न पाये जाते हों। जैनदर्शन सम्मत उक्त द्रव्यों को आधुनिक वैज्ञानिक पदार्थ के नाम से सम्बोधित करते हैं। जैनदर्शन में जिन्हें धर्म, अधर्म, और आकाश कहा है, उन्हें ही आधुनिक वैज्ञानिक क्रमश: तेजोवाही ईथर (Eumariferous ether) क्षेत्र (Field) और आकाश (Space) कहते हैं। जैन दर्शन में आकाश के अनन्त प्रदेश कहे गये हैं अर्थात् आकाश अनन्त है, किन्तु उसमें रहने वाली प्रकृति अथवा पुद्गल (Matter) के कारण आकाश ससीम है। इसी ससीम आकाश को जैनदर्शन में लोकाकाश कहा गया है और असीम अनन्त आकाश को अलोकाकाश। षड्द्रव्यों का यह विवेचन भौतिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है।
जैनदर्शन सम्मत जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व जीव के आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। इन सात तत्त्वों के एक किनारे पर जीव है और दूसरे किनारे पर मोक्ष है। जीव तत्त्व का लक्ष्य मोक्ष प्राप्त करना है। अर्थात् जीव तत्त्व की यात्रा मोक्ष तक की है और शेष तत्त्व उसके पड़ाव हैं।
शुद्ध जीव तत्त्व का अजीव तत्त्व के साथ अनादिकालीन सम्बन्ध है, किन्तु जीव अपने पुरुषार्थ के माध्यम से अजीव रूप कर्मों से वैसे ही छुटकारा पा सकता है जैसे मिट्टी रेत आदि से युक्त स्वर्ण द्रव्य अपने अग्निदाह आदि पुरुषार्थ से शुद्धपने को प्राप्त हो जाता है। १०
जबतक जीव मोक्ष प्राप्त नहीं कर लेता है तब तक उसकी मन, वचन और काय की क्रिया निरन्तर चलती रहती है। जीव की यही हलन-चलन रूप क्रिया उसे संसार में बाँधे रखती है। इसे ही आस्रव और बन्ध कहा गया है। उक्त क्रिया के कारण नित्य नवीन शुभ-अशुभ कर्मों का आगमन होता रहता है और कषायादि के कारण पुद्गल रूप कर्म आत्मा से चिपकते रहते है तथा अपनी प्रकृति के अनुसार समय आने पर प्रदेशों के अनुपात में सुख-दुःख का वेदन कराकर अर्थात् उदय में आकर झड़ जाते हैं। यत: यह क्रम निरन्तर चलता रहता है, अत: पुराने कर्मों का उदय में आना और अपने भावों के अनुसार नित्य नवीन कर्मों का बाँधना- यह प्रक्रिया अनवरत गति से चलती रहती है। इस प्रकार कर्मों के बँधने और उदय में आ कर नष्ट हो जाने से संसार कभी समाप्त नहीं होता है। अत: जीव को स्वस्वरूप की प्राप्ति के लिये द्विमुखी प्रक्रिया को अपनाना आवश्यक है। पहली यह कि बाहर से आने वाली कर्म-परम्परा को रोका जाये। इसके लिये मन, वचन और काय की क्रिया को रोकना आवश्यक है और दूसरी यह कि पूर्व सञ्चित कर्मों को तप के माध्यम से नष्ट कर दिया जाये।
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१३
इसी प्रक्रिया को जैनदर्शन में क्रमश: संवर और निर्जरा कहा गया है। इस प्रक्रिया से जीव जब सम्पूर्ण घातिया-अघातिया रूप कर्मों का नाश कर देता है तब वह संसार सागर से मुक्त होकर मोक्ष पद को प्राप्त कर लेता है। इसी प्रक्रिया को पण्डित दौलतराम जी ने इस प्रकार व्यक्त किया है
निज काल पाय विधि झरनो, तासों निज काज न सरना।
तप करि जो कर्म खिपावै, सोई शिव-सुख दरसावै।।११ __ इस प्रकार सप्त तत्त्वों की चर्चा को यही विराम देता हूँ। अब मूल प्रश्न यह है कि जीव और अजीव के अनादिकालीन सम्बन्ध में धुरी का कार्य करने वाले मन, वचन और काय की क्रिया को रोका कैसे जाये? अर्थात् इसका व्यावहारिक पक्ष क्या होगा?
इस प्रश्न का उत्तर देने के लिये यहाँ तत्त्व शब्द के सीमित अर्थ को त्यागकर हमें उसे व्यापक अर्थ में ग्रहण करना होगा और तब तत्त्व शब्द का अर्थ होगा- वे सभी सिद्धान्त जो जीव अथवा चेतना के ऊर्वारोहण में सहायक हों। इसे हम आध्यात्मिक तत्त्वज्ञान भी कह सकते हैं।
जैनदर्शन में जीव के भावों का विशेष महत्त्व है। यदि जीव मन, वचन और काय की खोटी प्रवृत्ति का त्याग कर शुभ में प्रवृत्त होता है और पुन: शुभ से भी निवृत्त होकर शुद्धत्व/आत्म स्वरूप को प्राप्त होता है तो वह संसार के बन्धनों से मुक्त हो सकता है। इसके लिये संसार, शरीर और भोगों के प्रति अनासक्ति अपेक्षित है। जीव का संसार के प्रति जब तक रञ्चमात्र भी लगाव है तब तक वह आत्मकल्याण की बात सोच भी नहीं सकता है। अत: संसार में स्थित प्रत्येक पदार्थ का सच्चा स्वरूप जानना आवश्यक है और यह सब होगा जीव के द्वारा सम्यक्ज्ञान की प्राप्ति से। ज्ञान में सम्यक्त्व लाने के लिये सम्यग्दर्शन का होना अपेक्षित है अर्थात् बिना सम्यग्दर्शन के सम्यग्ज्ञान नहीं और बिना सम्यग्ज्ञान के सम्यक् चारित्र नहीं तथा बिना सम्यक् चारित्र के मोक्ष की प्राप्ति नहीं। यह एक ऐसी अटूट शृङ्खला है कि जिसपर क्रमश: बढ़ते जाने से जीव अपने चरम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त कर लेता है।
जन्म, बुढ़ापा और मृत्यु- इन तीन के द्वारा संसार के सभी जीव दःखी हैं और ये दु:ख प्रत्यक्ष हैं, इसलिये अविश्वास का कोई कारण नहीं है। महात्मा बुद्ध ने अपने बाल्यकाल में भ्रमण करते समय रोगी, वृद्ध और मृत व्यक्ति को देखकर अपने सारथी से जिज्ञासा की थी कि ये लोग कौन हैं? तब सारथी ने यही कहा था कि ये सभी हम जैसे प्राणी हैं और सभी के जीवन में ऐसी स्थिति आती है। इस सच्चाई को जानते ही बालक बुद्ध उदासीन हो गये और वे इस दु:ख से मुक्त होने के उपाय की खोज में घर से निकल पड़े तथा घोर तपश्चरण तथा चिन्तन के माध्यम से उन्होंने संसार की
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अनित्यता और क्षणिकता को जानकर क्षणभङ्गवाद का उपदेश दिया, जो एकदेश सत्य भी है।
संसार के सभी पदार्थों की क्षणभङ्गता, शरीर की अशुचिता और सांसारिक भोगों की असारता की ओर यदि जीव का ध्यान केन्द्रित हो जाये तो जीव को आत्मस्थ होने में देर न लगेगी और जीवन में इस सत्य दर्शन और सत्यज्ञान के आते ही इन सब के प्रति स्वाभाविक रूप से अरुचि उत्पन्न हो जायेगी। संसार, शरीर और भोगों के प्रति जीव की यही अरुचि जीव को स्व स्वभाव में केन्द्रित कर देगी। इसी ज्ञान को पण्डित दौलतराम जी ने परमामृत कहते हुये इसे जन्म, जरा और मृत्यु के निवारण और सुख में कारण कहा है
ज्ञान समान न आन जगत में सुख को कारण।
इह परमामृत जन्म, जरा, मृत्यु रोग निवारण।। १२ विषयों की चाह रूपी भयङ्कर दावाग्नि संसारी जीव रूपी जङ्गल को जला रहा है उसे बुझाने के लिये केवलज्ञान रूपी मेघों का समूह ही समर्थ है, अन्य और कोई उपाय नहीं है।
विषय चाह दव-दाह जगत जन अरनि दझावै।
तास उपाय न आन ज्ञान घन-घान बुझावै।। १३ संसार, शरीर और भोगों की असारता का ज्ञान कराने के लिये जैनधर्म में अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधि, दुर्लभ और धर्म- इन बारह भावनाओं का उल्लेख किया गया है। १४ ये भावनायें वैराग्य को उत्पन्न करती हैं, इसलिये ये वैराग्य की मातायें कही गईं हैं।१५
संसार में रचे-पचे जीव के जीवन में अनेक बार श्मशानी वैराग्य पैदा होता है, संसार की असारता का ज्ञान होता है और श्मशान-घाट से बाहर निकलते ही दैनिक राग-रंग में रच-पच जाता है। इसलिये इन भावनाओं का नित्य चिन्तन करने से वैसा ही जीवन पर प्रभाव पड़ता है जैसे अग्नि को बार-बार पंखे से हवा करने पर अग्नि प्रज्वलित होती है। अर्थात् इन भावनाओं के चिन्तन से संसार की असारता का तो ज्ञान होता ही है, साथ ही समता रूपी सुख की प्राप्ति होती है। १६ जब तक जीव संसार में है तब तक उसके जीवन में सुख और दुःख के अनेक प्रसङ्ग उपस्थित होते रहते हैं। ऐसी स्थिति में जो लोग इन भावनाओं के माध्यम से समत्व की उपासना करते हैं, अर्थात् सुख-दुःख में समताभाव धारण करते हैं, वे कभी भी दुःखी नहीं होते हैं। क्योंकि वे पदार्थों के संयोग-वियोग में अन्तर्निहित उनके मूल स्वभाव को जानते हैं। पदार्थ का जैसा स्वरूप है, वह वैसा ही रहेगा। उसे हम बदल नहीं सकते हैं। हाँ! हम
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अपने मन में संकल्प-विकल्प करके अपना संसार बढ़ा सकते हैं। इष्ट वस्तु के संयोग में सुखी और अनिष्ट वस्तु के संयोग में दु:खी अथवा इष्ट वस्तु के वियोग में दुःखी
और अनिष्ट वस्तु के वियोग में सुखी होना हमारी मनोगत कल्पनायें हैं। . ये सभी बातें आत्म-चिन्तन या तत्त्व-चिन्तन से सम्बन्ध रखती हैं, किन्तु हम संसार में रहते हैं तो हमें सांसारिक कार्यों में भी प्रवृत्त होना होगा। अत: ऐसी स्थिति में हमें क्या करना चाहिये? इस पर जैन-चिन्तकों ने विचार किया है और स्पष्ट निर्देश दिया है कि हम अपने जीवन में जीव मात्र के प्रति मैत्री स्थापित करें। अपने से अधिक गुणवान् व्यक्ति को देखकर उसका आदर सम्मान कर हर्ष का अनुभव करें। कष्ट में पड़े जीवों के प्रति कृपा भाव बनाये रखें और जो व्यक्ति हित की बात न सुनता हो तो उसके प्रति माध्यस्थ भाव को धारण करें। क्योंकि हमने उसके प्रति अपना कर्तव्य निभाने का पूरा-पूरा प्रयास किया है और कोई यदि उसे स्वीकार न करे तो उसमें हमें संकल्प-विकल्प करने की आवश्यकता नहीं है।
सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम्।
माध्यस्थभावं विपरीतवृत्तौ, सदा ममात्मा विदधातु देव।। १७ इन्हीं चार भावनाओं को योगसूत्र में चित्त प्रसाधन का कारण बतलाया गया है। १८ अथवा बौद्ध दार्शनिकों की शब्दावली में मैत्री, प्रमोद, करुणा और उपेक्षा रूप चार ब्रह्म विहार कहा गया है। १९ इन भावनाओं को अपने जीवन में उतारने से आध्यात्मिक भूमिका स्वयं तैयार हो जाती है और जीव इससे ऊपर उठकर तत्त्व-चिन्तन में तल्लीन होता है। साधना के क्षेत्र में उत्तरोत्तर आगे बढ़ने का यह एक वैज्ञानिक क्रम है। इससे पर पदार्थों के प्रति हमारी राग बुद्धि अथवा पर पदार्थों को ग्रहण करने की इच्छा समाप्त होने लगती है और हम अन्तर्मुखी होने की दिशा में अग्रसर होने लगते हैं।
यथार्थ में किसी वस्तु की इच्छा जाग्रत होना ही दुःख का कारण है। इसी इच्छा को आचार्य अमृतचन्द्र सूरि ने परिग्रह कहा है- इच्छा परिग्रहः।२० तथा इसी इच्छा को जीव का अज्ञानमय भाव कहा है, इच्छा तु अज्ञानमयो भावः। २१ यही अज्ञानमय भाव जीव को निरन्तर संसार में भ्रमण कराता है। अत: जीव को सभी प्रकार की इच्छाओं का त्याग करना चाहिये और इच्छाओं के त्याग के लिये यह आवश्यक है कि हम अपना मन तत्त्वोन्मुखी बनायें अर्थात् निरन्तर तत्त्व चिन्तन में लगे रहें। ये दोनों परस्पर एक-दूसरे के पूरक हैं।
__ सर्वार्थसिद्धि के जीव सांसारिक भोगों से दूर निरन्तर तत्त्व-चिन्तन में तल्लीन रहते हैं, अत: वे एक भावावतारी होते हैं२२ अर्थात् वे एक मनुष्य भव को धारण करके संयम ग्रहण करते हैं और अन्त में अष्ट कर्मों का नाश कर मुक्ति को प्राप्त होते हैं। यही जीव का चरम लक्ष्य है और उसका चरम आध्यात्मिक विकास है।
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अध्यात्म के क्षेत्र में तत्त्व चिन्तन के माध्यम से जीव का ऊर्ध्वारोहण उसके विकास की कहानी है और जीव के विकास का यह क्रम स्वाभाविक एवं वैज्ञानिक है। अत: इसे हम भी अपने जीवन में उतारकर आत्मकल्याण करें, यही मङ्गलभावना है।
सन्दर्भ :
१.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
तर्कसंग्रह, व्याख्याकार-- वाराणसी, पृ० ३-४.
तर्कभाष्य, व्याख्याकार, आचार्य विश्वेश्वर, चौखम्बा संस्कृत सिरीज, पृ० ८. चार्वाकदर्शनाचार्य, आनन्द झा, उ. प्र. हि. सं. प्रयाग, भाष्य प्रकरण, पृ० ३०१. ब्रह्मैव केवलं वस्तु, वेदान्तसार.
जीवाजीवास्रवबन्धसंवर निर्जरामोक्षास्तत्त्वम् । तत्वार्थसूत्र १/४.
डॉ० सुदर्शन लाल जैन, सिद्ध सरस्वती प्रकाशन,
पञ्चास्तिकाय, द्रव्याधिकार, गा० ४ - ६.
तत्वार्थसूत्र, सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री, वही, ५/१ की व्याख्या, पृ० १३९.
वही,
८.
५/९.
९- १०. वही, ५ / १ की व्याख्या, पृ० १४०.
दोहा ११.
११. छहढाला, पञ्चम ढाल,
१२. छहढाला, चतुर्थ ढाल, दोहा ३. १३. वही, ४/७.
१४. तत्वार्थसूत्र, ९/७.
१५-१६. बारह भावना, एक अनुशीलन, प्रका०पृ० १९, छहढाला, पाँचवी ढाल, छन्द १.
१७. सामयिकपाठ, प्रका०- सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल, जयपुर, पृ० १३४. १८. योगसूत्रम्, प्रका०- चौखम्बा संस्कृत सीरिज, वाराणसी, पृ० ३९. १९. विसुद्धिमग्ग, परिच्छेद ९, पृ० २००-२२, बौद्धदर्शन, आचार्य बलदेव उपाध्याय, सूत्र ३३, पृ० ४०६.
२०-२१. समयसार, आत्मख्याति टीका, प्रका०-
वर्णी जैनसाहित्य मन्दिर,
मुजफ्फरनगर गा० २१० की टीका, पृ० ३७९. २२. सर्वार्थसिद्धि, सम्पा०- पं० फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ,
काशी, अध्याय ४, सूत्र २६, पृ० २५७.
पं० टोडरमल स्मारक ट्रस्ट,
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वराङ्गचरित
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एक महाकाव्य
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प्रकरण प्रकरण प्रमण प्रवण श्राश्रवणश्रणश्रण श्रमण श्रमण श्रमण
वराङ्गचरित १ जैन चरित काव्यों में संस्कृत का प्रथम चरितकाव्य है। इसमें २८१५ श्लोक विविध वृत्तों में प्रणीत है। प्रस्तुत काव्य आचार्य जटासिंहनन्दी द्वारा विरचित है। इसका रचनाकाल सातवीं शती का उत्तरार्द्ध माना जाता है । २
काव्यशास्त्रियों ने काव्य की विभिन्न विधाओं के लक्षण एवं स्वरूप पर व्यापक रूप से विचार किया है। उनकी कृतियों में महाकाव्य के लक्षणों का विशद् वर्णन प्राप्त होता है। भामहकृत काव्यालङ्कार ( ५-६ वी शती) दण्डीकृत काव्यादर्श (छठी-सातवीं शती), रुद्रटकृत काव्यालङ्कार (नवीं शती), आचार्य हेमचन्द्रकृत काव्यानुशासन (११-१२वीं शती) आदि इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं।
जीतेन्द्र कुमार सिंह *
यहाँ मनीषियों द्वारा प्रतिपादित लक्षणों के आलोक में वराङ्गचरित के महाकाव्यत्व की समीक्षा का प्रयास किया गया है। जो इस प्रकार है
(१) महाकाव्य की कथा सर्गबद्ध होनी चाहिए। भामह ३, दण्डी ४, रुद्रट ५, हेमचन्द्र ६ आदि काव्यशास्त्रियों ने इसको काव्य का लक्षण माना है। आचार्य विश्वनाथ अनुसार महाकाव्य में न्यूनतम सर्ग संख्या ८ होनी चाहिए। इस दृष्टि से वराङ्गचरित के ३१ सर्ग उसे महाकाव्य की श्रेणी में ले आते है।
(२) महाकाव्य का कथानक पौराणिक, ऐतिहासिक या परम्परागत कथा पर अवलम्बित होना चाहिए । आचार्य दण्डी' ने उक्त मत का प्रतिपादन किया है। वराङ्गचरित का नायक वराङ्ग जैन परम्परा का एक पौराणिक चरित है।
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(३) कथानक में मुख्य पञ्चसन्धियों का प्रयोग अपेक्षित है। भामह ९, दण्डी १ आदि सभी आचार्यों के अनुसार महाकाव्य पञ्चसन्धि समन्वित होना चाहिए। आलोच्य कृति में पञ्चसन्धियों की योजना प्राप्त होती है। प्रारम्भ से वराङ्ग के जन्म की कथा में मुख सन्धि की योजना है। वराङ्ग का युवराज होना और ईर्ष्या का पात्र बनना प्रतिमुखसन्धि है । अश्व द्वारा वराङ्ग का अपहृत होना, कुएँ में गिराया जाना, कुएँ से निःसृत होकर बाहर आना, व्याघ्र, भिल्ल आदि के आक्रमण से उसका रक्षित होना तथा वराङ्गका सागरबुद्धि के यहाँ गुप्त रूप से निवास करना, बकुलाधीश का उत्तमपुर
शोधछात्र, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी (शोधनिर्देशक डॉ० अशोक कुमार सिंह)
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पर आक्रमण करना और कुमार द्वारा प्रतिरोध करने तक की कथावस्तु में गर्भ-सन्धि की योजना है। इस सन्धि में फल छिपा हुआ है और 'प्रत्याशा-पताका' का योग भी वर्तमान है। कुमार की दिग्विजय, राज्यस्थापना तथा प्रतिद्वन्द्वी सुषेण द्वारा शत्रुता का त्याग नियताप्ति है। दिग्विजय के कारण प्रतिपक्षियों का उन्मूलन, समृद्धि और अभ्युदय के साधनों के सद्भाव के कारण आत्म कल्याण के साधनों का विरलत्व, जिनालय निर्माण
और जिनप्रतिबिम्ब प्रतिष्ठा के सम्पत्र होने पर भी निर्वाणरूप फल प्राप्ति की असन्निकटता फल प्राप्ति में अवरोधक है। अतएव इस स्थिति को "विमर्श सन्धि' की स्थिति कहा जा सकता है। वराङ्ग का विरक्त होकर तपश्चरण करना और सद्गतिलाभ 'निर्वहण सन्धि' है। सामान्यत: प्रस्तुत काव्य में सन्धि संघटना सन्निहित है।
(४) आचार्य दण्डी ११ के अनुसार महाकाव्य में त्रिविधात्मक मङ्गलाचरणनमस्कारात्मक, आशीर्वादात्मक और वस्तुनिर्देशात्मक होना चाहिए। वराङ्गचरित में इसका पूर्णरूपेण पालन किया गया है। अर्हत्-केवली के धर्म के रूप में नमस्कारात्मक तथा आशीर्वादात्मक मङ्गलाचरण प्रस्तुत किया गया है। जिनधर्म- सम्मत आदर्शचरित की सङ्कल्पना के निर्देश के रूप में वस्तु निर्देशात्मक मङ्गलाचरण भी विद्यमान है। १२
(५) काव्यशास्त्रियों के अनुसार महाकाव्य में शृङ्गार, वीर और शान्त रस में से एक रस मुख्य तथा शेष रस गौण रूप से अभिव्यक्त होने चाहिए। १३ वराङ्गचरित में शान्तरस की योजना मुख्य रूप से की गयी है तथा अन्य रसों की योजना इसके पोषक के रूप में हुई है।
(६) महाकाव्य के शीर्षक के सम्बन्ध में भामह तथा दण्डी दोनों मौन हैं। आचार्य विश्वनाथ१४ के अभिमत में महाकाव्यत्त्व का शीर्षक कथानक, मुख्य घटना, अथवा किसी पात्र के आधार पर रखा जाना चाहिए। प्रस्तुत महाकाव्य का नामकरण वराङ्गचरित काव्य के नायक वराङ्ग के आधार पर किया गया है।
(७) आचार्य दण्डी१५ ने छन्द के विषय में बताया है कि सर्ग में प्रयुक्त छन्द से भित्र सर्गान्त में प्रयुक्त होना चाहिए। वराङ्गचरित में भी सर्ग में प्रयुक्त छन्द से भित्र छन्द का प्रयोग सर्गान्त में किया गया है। इस परम्परा का पालन सम्पूर्ण कृति में दृष्टिगोचर होता है। उदाहरणार्थ- प्रस्तुत काव्य के प्रथम सर्ग में १-६८ श्लोक वसन्ततिलका छन्द तथा सर्गान्त के दो श्लोक ६९-७० में पुष्पिताग्र छन्द प्रयुक्त है।
(८) महाकाव्य के नायक के विषय में आचार्य विश्वनाथ१६ का मत है कि महाकाव्य का नायक कोई देवता, उच्च वंशोत्पत्र क्षत्रिय तथा एक वंशोत्पन्न कई राजा हो सकते हैं। प्रस्तुत काव्य का नायक वराङ्ग उच्चकुलीन क्षत्रिय भोजकुल नामक वंश में उत्पन्न है।
(९) आचार्य धनञ्जय१७ के अभिमत में प्रतिनायक लोभी, धीरोद्धत, घमण्डी,
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पापी तथा भाग्यहीन होता है। वराङ्गचरित में प्रतिनायक के रूप में सुषेण को प्रस्तुत किया जा सकता है। किन्तु इसकी योजना सम्पूर्ण काव्य में प्राप्त नहीं होती है।
(१०) आचार्य दण्डी१८ के अनुसार महाकाव्य के कथानक में नगर, समुद्र, पर्वत, ऋतु, सूर्योदय, चन्द्रोदय, सूर्यास्त, उद्यान, जलक्रीड़ा, विवाह, संयोग, वियोग, युद्ध, मृगया आदि प्रकृति के सभी अङ्गों का वर्णन होना चाहिए। वराङ्गचरित में प्रकृति के सभी अङ्गों का साङ्गोपाङ्ग वर्णन प्राप्त होता है। 'मनोरमामति विभ्रम' नामक १९वें सर्ग में उद्यान विहार, जलक्रीड़ा आदि का प्रसङ्ग दृष्टिगत होता है१९ तथा अन्य स्थलों पर नगर२०, पर्वत२१, समुद्र २२ तथा ऋतुओं२३ का चित्रण किया गया है।
(११) काव्याचार्यो२४ का मत है कि महाकाव्य के कथानक में राजदूत का वर्णन होना चाहिए। वराङ्गचरित में राजदूत का चित्रण किया गया है षोडश सर्ग में मथुराधीश ललितपुर के राजा देवसेन के पास भद्रकुलोत्पन्न हस्तिरत्न की प्राप्ति के लिए दूत को भेजा है। २५
(१२) काव्य मर्मज्ञों ने महाकाव्य के वर्णन में अलङ्कारों का यथेष्ट प्रयोग आवश्यक बतलाया है। आचार्य भामह२६ के अनुसार भाषा अग्राम्य शब्दार्थों वाली तथा अलङ्कारों से युक्त होनी चाहिए। आचार्य दण्डी२७ ने उनके मत का समर्थन किया है। वराङ्गचरित में इसका सम्यक् पालन किया गया है।
(१३) काव्यशास्त्रियों२४ के अनुसार महाकाव्य का फल चतुवर्ग-धर्म, अर्थ, काम, तथा मोक्ष में से एक होना चाहिए। वराङ्गचरित में इसकी योजना की गयी है। प्रस्तुत काव्य का नायक वराङ्ग को मोक्षप्राप्ति ही अभिप्रेत है।
(१४) काव्यविशारदों का मत है कि काव्य का अन्त स्वाभिप्रायाङ्कित, स्वनामाङ्कित, इष्टनामाङ्कित अथवा मङ्गलाङ्कित होना चाहिए। प्रस्तुत काव्य वराङ्गचरित का अन्त स्वाभिप्रायङ्कित है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि वराङ्गचरित में महाकाव्य कहे जाने वाले सभी मानक उपलब्ध है। सन्दर्भ : १. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग-६, प्रकाशक-पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध
संस्थान, वाराणसी १९७३ ई०, पृष्ठ संख्या १८३. २. वराङ्गचरित, सम्पा०- आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये, प्रकाशक- माणिकचन्द
दि० जैन ग्रन्थमाला बम्बई, १९३८, पृष्ठ २२.। ३. काव्यलङ्कार, भामह, व्याख्याकार- देवेन्द्रनाथ शर्मा, प्रका०- बिहार राष्ट्र
भाषा परिषद्, पटना, १९६२ ई०, १/१८.
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४. काव्यादर्श, दण्डी, अनु०- ब्रजरतनदास, प्रका०- श्री कमल मणि
ग्रन्थमाला कार्यालय. बुलानाला, काशी वि०सं० १९८८. ५. काव्यालङ्कार, रुद्रट, नमिसाधुकृत टीका सहित, व्या०- श्री रामदेव शुक्ल,
प्रका०- चौखम्भा विद्याभवन, वाराणसी, प्रथम संस्करण १९६६ ई०. ६. काव्यानुशासन, हेमचन्द्र, सम्पा०- पं० शिवदत्त शर्मा, काशीनाथ पाण्डुरंग
परब, प्रका०- निर्णयसागर प्रेस, बम्बई वि०सं० १९३४. साहित्यदर्पण, विश्वनाथ, सम्पा०- पाण्डुरंग जवाजी, प्रकाo-निर्णय सागर
प्रेस, बम्बई ६ठाँ संस्करण, १९३६, ६/३/२०. ८. काव्यादर्श, वही.
काव्यालङ्कार, १/२०. १०. काव्यादर्श, १/१८. ११. काव्यादर्श, १/१४. १२. वराङ्गचरित, १/१-४. १३. साहित्यदर्पण, ६/३१७. १४. वही, ६/३१७. १५. काव्यादर्शन, १/१९. १६. साहित्यदर्पण, ६/३१४ काव्यानुशासन, ८/४३५. १७. दशरूपक, आचार्य धनञ्जय, व्या०- डॉ० भोलाशङ्कर व्यास, चौखम्भा
विद्याभवन, वाराणसी, वि०सं० २०२९. १८. काव्यादर्श, १/१६. १९. वराङ्गचरित, सर्ग १९/३६. २०. वही, सर्ग ८/३. २१-२२. वही, सर्ग १६/११. २३. वही, सर्ग ३१/४५. २४. काव्यालङ्कार, १/२०, काव्यादर्श, १/१७. २५. वराङ्गचरित, सर्ग १६/१०. २६. काव्यालङ्कार, २/१९. २७. काव्यादर्श, १/१८. २८. काव्यालङ्कार, १/२१, साहित्यदर्पण, ६/३१८, काव्यादर्श, १/१५. .
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यमपट
अपभ्रंश साहित्य में पर्यावरण चेतना
डॉ० प्रेमचन्द्र जैन*
अपने आलेख का प्रारम्भ मैं सन्त विनोबा भावे और आदरणीया सरलादेवी के मध्य घटी एक घटना से करना चाहता हूँ। सन्ध्या की प्रार्थना के समय विनोबा जी के समक्ष उनके शिष्य आकर बैठते थे और बाबा (आश्रम में उन्हें बाबा सम्बोधन से ही पुकारा जाता था) के मुक्त विचार सुनते थे। बाबा के इन्हीं भक्तों में सरलादेवी भी रही हैं। उनका मूल नाम कैथरीन मेरी हाइलामन था। लन्दन में जन्मी कैथरीन गाँधी जी के विचारों की बाढ़ में भारत बह आई थीं। यह सन् १९३२ की घटना है। यहाँ उन्होंने गाँधी जी के कार्यक्रमों में भाग लेने के अतिरिक्त विनोबा के ग्राम-दान और ग्राम-स्वराज आन्दोलनों में भी भाग लिया। बाद में उन्होंने अपना जीवन ‘पर्यावरण संरक्षण आन्दोलन' को समर्पित कर दिया और उत्तर प्रदेश के 'पिथौरागढ़' जनपद के 'धरमधर' नामक स्थान पर रहकर कार्य करने लगीं।
यही सरलादेवी एक शाम बाबा (विनोबा भावे) की सन्ध्या प्रार्थना-सभा में शामिल थीं। बाबा बोले, "गन्दगी में भी ईश्वर बनने वाले तत्त्व (पोटेंशियल डिविनिटी) विद्यमान हैं। हम गन्दगी को इकट्ठा करके उसे खड्डे में दबा देते हैं, तो कुछ दिनों के बाद वह सुन्दर खाद बन जाती है और तरकारी और फल पैदा करने में सहायक होती है। हमें अक्सर इस बात का ध्यान रखना चाहिए।"१ बाबा के इस प्रवचन ने सरलादेवी को भाव-विह्वल कर दिया। अगले दिन उन्होंने बाबा को एक चिट दी, जिस पर लिखा था, “वैज्ञानिकों का कहना है कि प्रकृति में कोई गन्दगी नहीं है। प्रकृति में सब जीव-जन्तु, प्राणी तथा वनस्पति जगत् मिलकर समतोल में रहते हैं। हर एक का अपना विशिष्ट कार्य है, जिससे सड़ने वाले पदार्थों की अवस्था तेजी से बदले और जल्दी से वह फिर वनस्पति-जगत् तथा उसके द्वारा जीव-जगत् की खुराक बन सके; अर्थात् प्रकृति में स्वाभाविक रूप में ब्रह्मा, विष्णु और महेश का काम बराबर चलता रहता है। जब तक मनुष्य का हस्तक्षेप नहीं हो, तब तक न गन्दगी होती है, न रोग। उसके हस्तक्षेप से ही रुद्रकार्य प्रारम्भ होता है।"२ ।
ये विज्ञान-सम्मत विचार जहाँ प्रकृति के वास्तविक स्वभाव का परिचय देते हैं। वहीं प्रकृति और मनुष्यों के सम्बन्धों का संकेत भी करते हैं। बहुत गहरे जाकर ये विचार *. ३११८/७१, एस०ए०एस० नगर, चण्डीगढ़, १६००५९.
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पर्यावरण सम्बन्धी वर्तमान काल की चिन्ताओं और उससे भी अधिक पर्यावरण-चेतना के स्रोत की ओर हमारा ध्यान खींचते हैं। अनादिकाल से हमारे पर्यावरण का स्वास्थ्य प्रकृति के विभिन्न रूपों और उपकरणों के मध्य आत्मनिर्भरता की ओर उन्मुख परस्परावलम्बन, सामञ्जस्य, सहभागिता और सहयोग पर आधारित सम्बन्धों के अद्भुत समीकरण पर आधारित रहा है। प्रकृति का जीवन अवदान पर आधारित है। पोषक तत्त्वों का अवदान, जीवन का अवदान, सौन्दर्य का अवदान......और इस अवदान के मूल में सृजित होने, नष्ट होने, पुनर्सजित होने का एक व्यवस्थित चक्र कार्य करता है। आधुनिक सभ्यता के जनक मनुष्य ने इसी चक्र में हस्तक्षेप किया, जिससे पर्यावरण असन्तुलन और उससे जुड़ी समस्या उत्पन्न हुईं। एक प्रकार से यह हस्तक्षेप सोने के अण्डे देने वाली मुर्गी के जीवन में किया जाने वाला हस्तक्षेप था, जिसमें समस्त मानवीय सम्बन्ध सूख गए थे और केवल अधिकतम आर्थिक हित की ऐषणा ही मानव-मस्तिष्क की नियन्त्रक बन गई थी। आधुनिक सभ्यता का कटु यथार्थ यह है कि, “हम लोग खुद भूल गए हैं कि प्रकृति के साथ हमारा क्या सम्पर्क (सम्बन्ध) है और हमारे बच्चों में भी इस बात को समझने के लिए दिलचस्पी और जिज्ञासा नहीं है। प्रकृति में समतोल है, सौन्दर्य है, शान्ति है, धैर्य है। इससे दूर और अज्ञेय रहने से आधुनिक मानव के जीवन में आवश्यक आध्यात्मिक मूल्यों का सम्पूर्ण अभाव है तथा सामाजिक-जीवन कुण्ठित और संकुचित बनता जा रहा है।"३ इस कथन का सीधा सा अभिप्राय है कि आधुनिक पर्यावरण-विशेषज्ञ और वैज्ञानिक प्राचीन भारतीय दृष्टि का समर्थन करते हुए पर्यावरण असन्तुलन से उत्पत्र संकटों को समझने तथा हमारे चिन्तन को एक नई दिशा देने का प्रयास कर रहे हैं। बाबा आम्टे, सरला देवी, सुन्दरलाल बहुगुणा, मेधा पाटेकर
और पर्यावरण के सम्बन्ध में अभी-अभी चर्चा में आयीं अरुन्धती राय तक सभी यह मानते हैं कि मनुष्य और प्रकृति के बीच एकात्मता पर आधारित सम्बन्ध है, जो उन्हें मूलत: हृदय की भावना के स्तर तक जोड़ता है।
प्रश्न यह है कि प्रकृति और मनुष्य के बीच की इस अनिवार्य एकात्मता के विषय में अपभ्रंश के कवि क्या सोचते थे? यह प्रश्न इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि हमारे समीक्षा-साहित्य में यह धारणा पूरी तरह प्रतिष्ठित है कि अपभ्रंश साहित्य का अधिकांश, रहस्य, दर्शन, अध्यात्म, उपदेश और ऐहिकतापरक है। इस स्थिति में कभी-कभी यह सोचने का मन होता है कि हिन्दी साहित्य को अभिनव दिशा देने वाले अपभ्रंश के कवियों ने प्रकृति को किस दृष्टि से देखा था? क्या प्रकृति नायक-नायिका के मनोभावों की अभिव्यक्ति का उपकरण भर थी अथवा उसका कोई और भी अर्थ था? यह प्रश्न इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि महात्मा बुद्ध के विषय में प्रसिद्ध है कि उन्होंने अपने अनुयायियों को उपदेश दिया था कि वे प्रत्येक पाँच वर्ष में एक-एक वृक्ष रोपें और उसकी रक्षा करें। इसका अर्थ है कि बुद्ध के मन में मानव तथा प्रकृति के एकात्म का
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विचार था। तो फिर वैसा विचार युग के प्रति पर्याप्त सचेत अपभ्रंश के कवियों में क्यों नहीं होगा ? प्रसंगात यहाँ यह लिखना असंगत नहीं होगा कि अद्यावधि उपलब्ध अपभ्रंश साहित्य के रचनाकारों ने जैन कथानकों की पृष्ठभूमि पर ही महाकाव्य, खण्डकाव्य, मुक्तक और चरितकाव्यों को प्रस्तुत किया है। इसके रचनाकारों में से अधिक संख्या उन्हीं की बैठती है, जिनके धर्म में अहिंसा की इतनी पराकाष्ठा कि देवता के चढ़ाने के लिए भी पुष्पों का तोड़ना वर्जित है। तो फिर 'अपभ्रंश साहित्य में पर्यावरणीय चेतना' के प्रश्न पर विचार करना और भी महत्त्वपूर्ण तथा अनिवार्य क्यों न हो? परन्तु प्रस्तावित 'अपभ्रंश साहित्य में पर्यावरणीय चेतना' की खोज जितनी सहज है, विवेचन उतना सहज नहीं है। चूँकि, “अपभ्रंश भाषा का समय भाषा विज्ञान के आचार्यों ने ५०० ई० से १००० ई० तक बताया है किन्तु इसका साहित्य हमें लगभग ८ वीं सदी से मिलना प्रारम्भ होता है। प्राप्त अपभ्रंश साहित्य में स्वयंभू सबसे पूर्व हमारे सामने आते हैं। अपभ्रंश साहित्य का समृद्ध युग ९ वीं से १३ वीं शताब्दी तक है। "४ इस अपभ्रंश साहित्य की विपुल सामग्री के रूप में स्वयंभू के पउमचरिउ, पुष्पदन्त के महापुराण, णायकुमारचरिउ, जसहरचरिउ, पासणाहचरिउ, करकंडुचरिउ आदि चरित काव्य; भविसदत्तकहा, सुअन्यदहमीकहा आदि कथा काव्य; अद्दहमाणकृत संदेशरासक आदि संदेशकाव्यात्मक सामग्री, प्रकाशित एवं अप्रकाशित रूप में उपलब्ध हो चुकी है । ५ अतएव मैंने ऊपर यह कहा था कि अपभ्रंश साहित्य के शताधिक ग्रन्थों में से पर्यावरणीय चेतना के अर्न्तभूत स्वरों का विवेचन उतना सहज नहीं है- कम से कम संगोष्ठी में पढ़े जाने वाले आलेख में......
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अतएव मैं 'अपभ्रंश साहित्य में पर्यावरणीय चेतना' दर्शाने हेतु अपभ्रंश की एक लघुकाय रचना सन्देशरासक को माध्यम बना रहा हूँ। अद्दहमाण (अब्दुल रहमान) की यह अपभ्रंश की अति महत्त्वपूर्ण कृति है। दो सौ तेईस छन्दों (पद संख्या) की इस रचना का प्रारम्भ इन पंक्तियों से होता है
रयणायरधरगिरितरुवराइँ गयणंगणंमि रिक्खाई। जेणऽज्ज सयल सिरियं सो बहुयण वो सिवं देउ । ।
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इस पद में ईश्वर द्वारा बुधजनों के कल्याण की कामना है। वह ईश्वर बुधजनों का कल्याण करे, जिसने समुद्र, पृथ्वी, पर्वत, वृक्ष तथा आकाशरूपी आँगन में तारों की रचना की है। वृक्ष, पर्वत, समुद्र आदि की रचना ईश्वर के कल्याणकारी रूप के प्रमाण हैं। सोचने का विषय है कि ऐसा क्यों है ? और इसका उत्तर है कि प्रकृति के सभी तत्त्व कल्याणकारी हैं। मनुष्य से भी पूर्व इनका सृजन इसीलिए हुआ कि ये उसके जीवन को सम्भव बना सकें। अपनी अन्नदाता प्रकृति से उसे वायु, जल, अन्न आदि प्राण- तत्त्व प्रदान कर सकें। ईश्वर को अपने कल्याणकारी रूप को प्रकट करने का साधन भी इस कल्याणकारी प्रकृति ने ही प्रदान किया या यो कहें कि ईश्वर ने अपने कल्याणकारी
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रूप को प्रकृति के माध्यम से या उसी के रूप में प्रकट किया है। अब्दुल रहमान की यह अभिव्यक्ति मंगलाचरण के सामान्य अर्थ के साथ ही हमें प्रकृति के साथ भावात्मक स्तर पर भी जोड़ती है और एकात्म का मार्ग दिखाती है।
सन्देशरासक का कथानक बहुत छोटा सा ही है। विजयनगर की एक विरहिणी नायिका का एक पथिक के माध्यम से अपने खंभात प्रवासी नायक को सन्देश भेजना चाहती हैं। इसी सन्देश कथन में मन की विरहाकुल अवस्था के साथ ही ऋतुओं आदि का वर्णन किया गया है। अन्त में जब वह सन्देश देकर पथिक को विदा करती है, तो उसी समय उसे दक्षिण दिशा से नायक आता हुआ दिखाई देता है और सुखान्त दशा में कथा पूर्ण होती है। इसी कथा में विरहिणी नायिका पथिक से उसके नगर के विषय में जानना चाहती है कि वह कहाँ से आ रहा है। पथिक अपने गृहनगर का नाम 'साम्बपुर' बताता है और उसके भौतिक सांस्कृतिक तथा कलात्मक वैभव का वर्णन करता हुआ उसके प्राकृतिक सौन्दर्य का वर्णन करता है। ‘साम्बपुर' में ऐसे वैविध्य भरे उद्यान हैं, जिन्हें देखकर सारा संसार भूल जाता है। उन उद्यानों में ढल्ल, कुन्द, सयवत्तिय (शतपत्रिका), रत्तबल (रक्तोत्पल), मालह (मालती) मालिय (मल्लिका), जूही, बालू (दालचीनी), चम्बा (चम्पा), बउल (बकुल), कवई (केतकी), कन्दुट्टम (नीलकमल) माउलिंग (मातुलिंग), मालूर, मायंद (मकरन्द), मुर, दक्ख (द्राक्षा) भंभ, ईओरव (अखरोट), आरू (अरबी), सियर (शतावरी), ताल, तमाल, तुबर (लौकी), संजिय (संजीवनी) आदि की भरमार है। इसीके साथ वहाँ पीपल, पाटला, पलाश, घनसार, बाँस, नारियल, नीम, बरगद, ढाक, आम, आमला, चन्दन, आभ्रातक, गूलर, महुआ, इमली, हरीतिली, मागबोटी, मँजीठ, मंदार, चिनार, शमी, देवदार, अशोक आदि के वृक्ष हैं। इतना ही नहीं वहाँ धतूरे, नीबू, इलायची, नारंगी८ आदि की भी भरमार है। सन्देशरासक के द्वितीय प्रक्रम के छन्द संख्या पचपन से बासठ तक यह सूची प्रस्तुत की गई है। इस ग्रन्थ की काव्यात्मक विशेषताओं का विश्लेषण करते समय इस वर्णन को 'नाम परिगणन शैली', का उदाहरण मानते हुए इस प्रकरण को विराम दे दिया जाता है। व्याख्याता कई बार इसे अनावश्यक भी बताते हैं, किन्तु बात इतनी सी ही या इतनी साधारण ही नहीं है। उस समय की नगर व्यवस्था के सविस्तार वर्णन की दृष्टि से प्रकृति रमा के इस चित्र का महत्त्व है। साम्बपुर के नागरिकों और तत्कालीन सत्ताधारियों की अभिरुचि के बिना दस योजन के क्षेत्र में शोभित इस वनस्पति का रोपण नहीं हो सका होगा। निश्चितरूप से इसके पालन-पोषण का दायित्व भी उन पुरवासियों ने वहन किया होगा और वे इसके अनावश्यक दोहन से बचे होंगे। पथिक के वर्णन से तो प्रतीत होता है कि साम्बपर के वासी अपनी इस प्रकृति सम्पदा पर रीझे हए थे। वह कहता है
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अन्नय सेस महीरुह अत्थि जि ससिवयणि, मुणइ णामु तह कवणु सरोरुहदलनमणि । अह सव्वइ संखेविणु निवड निरंतरिण, जोयण दस गंमिज्जइ तरुछायंतरिण । ।
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और यह वर्णन आधा भी नहीं है। जो अधूरा वर्णन है वह तत्कालीन जनरुचि का विस्तार से परिचय देता है तथा प्रकृति और मनुष्य के एकात्म सम्बन्ध का दर्शन कराता है। इससे उनकी संस्कारशीलता का परिचय भी मिलता है। हम आजके इस जीवन की तुलना उस जीवन से करके कुछ ठोस निष्कर्षो तक पहुँच सकते हैं।
सन्देश रासक के तृतीय प्रक्रम में ऋतुओं का वर्णन है । विरहिणी नायिका का ग्रीष्म का वर्णन करते हुए कहती है
जम जीहह जिम चञ्चलु णहयलु लहलहइ, asases घर तिडइ ण तेयह भरु सहइ । अइउन्हउ वोमयलि पहंजणु जं वहइ, तं झंखरु विरहिणिहि अंगु फरिसिउ दहइ । । १०
स्पष्ट है कि ग्रीष्म में नभतल यम की जिह्वा जैसा लपलपाता है, पृथ्वी ताप सहन न कर पाने के कारण तड़-तड़ शब्द करते हुए जगह-जगह से चटक जाती है और उष्ण प्रभंजन बहता है। इसी प्रकार वर्षाऋतु में आकाश में भयानक तड़ित चमकती है, उसके प्रकाश से पगडण्डी चमकती है, तृप्त पपीहे मधुर शब्द करते हैं और बादलों के नीचे बक पंक्ति शोभा पाती है । ११ बहुत पानी बरसने के कारण जलाशय भर गए हैं, उनमें मेढक जोर-जोर से टर्राने लगे हैं और आम की चोटी पर कोकिल कूकने लगी है। १२ शरद ऋतु आने पर प्रकृति का सहज उल्लास लौट आता है । नायिका कहती है
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गय विद्दरवि बलाहय गयणिहि, मणहर रिक्ख पलोइय रयणिहि । हुयउ वासु छम्मयलि फणिदह, फुरिय जुन्ह निसि निम्मल चंदह । ।
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इससे आगे वह कहती है कि सरोवरों का जल शत पत्रिकाओं से और नदियों का जल लहरों से शोभित हो गया है। ग्रीष्म द्वारा हरण कर ली गई इनकी शोभा शरद के साथ लौट आई है। हंस कमलों का रसपान करके मधुरस्वर करने लगे हैं। इसके पश्चात् सन्देशरासक की नायिका हेमन्त और शिशिर का वर्णन करती है। हेमन्त में
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तुषार आना प्रारम्भ हो जाता है तथा शिशिर में शीत के प्रभाव के कारण पथिकों ने चलना बन्द कर दिया है । १४ वसन्त के आते ही तन में संकोच और मन में सुख का विकास होने लगता है । नायिका अनुभव करती है कि दसों दिशाओं में रमणीयता का विकास हो रहा है। विविध वेशधारी नवीन पुष्प और पत्ते निकल आए हैं तथा नवीन सरोवर रति विशेष से बहुत शोभाशाली प्रतीत हो रहे हैं । १५
यह ऋतु वर्णन प्रचलित साहित्यिक मूल्यांकन की कसौटी के आधार पर एक परम्परा का निर्वाह भर लगता है, किन्तु क्षणभर के लिए एक किनारे सरका दिया जाए तो कुछ नई बातें भी प्रकट होती हैं। पहली बात यह कि इस ऋतु वर्णन में ऋतुओं
स्वरूप की भरपूर जानकारी है। दूसरी यह कि इसमें प्रकृति का सहज सौन्दर्य विद्यमान है, जो कि एक ओर पर्यावरणीय चेतना का प्रतीक है तो दूसरी ओर किसी को यह मानने में आपत्ति नहीं होगी कि सन्देशरासक का प्रकृति वर्णन कालिदास के प्रकृति-वर्णन के समान उन्मुक्त नहीं है अपितु स्वाभाविक है। नायिका के मुख से कवि ने ऋतुवर्णन के व्याज से प्रकृति का जो चित्र खींचा है, वह साधारण जीवन से भी जुड़ा हुआ है, यही कारण है कि वह पथिक नाम परिगणन में अशोक के साथ धतूरे, तूमड़े, ढाक, कनेर, गेंदा, बेर, खजूर और तुलसीदल का नाम लेना नहीं भूलता। इससे भारतीय जीवन और परम्परा में प्रकृति के महत्त्व के साथ ही प्रकृति के साधारण तत्त्वों से निसृत सौन्दर्य के जीवन से जुड़ाव को समझा जा सकता है। इस प्रसंग में तीसरी बात यह है कि ऋतुवर्णन में ऋतुओं का जो प्रभाव चित्रित किया गया है, वह ध्यान खींचने वाला है। जब ग्रीष्म ऋतु आती है, तो धरती और आकाश जलने लगता है, नदियों की धारा जल सूखने के कारण पतली हो जाती है, आम के वृक्ष फल-भार से झुकने लगते हैं, शीतलता पाने के लिए चन्दन का प्रयोग किया जाने लगता है। जब वर्षा आती है, तो आकाश में मेघ घुमड़ते हैं, भारी वर्षा से जल ही जल हो जाता है, जिससे पथिकों को अपनी पादुकाएँ हाथ में लेकर चलना पड़ता है, घोड़ें वाले मार्ग बन्द हो जाते हैं आवागमन नावों से होता है, मच्छर गायों तक को परेशान कर डालते हैं, दादुरों का शोर कान फोड़ने लगता है। जब शरद आता है, तो चन्द्र ज्योत्सना की आभा फैलने लगती है, सर्प भूमिगत हो जाते हैं, नदियों और सरोवरों का जल निर्मलं हो जाता है, कमल फूलने लगते हैं, नव यौवनाएँ अपने कंत के साथ विहार करती हैं, जबकि वियोगिनियां दुःखी होती हैं अर्थात् सुखी का सुख बढ़ जाता है और दुखी का दुःख । जब हेमन्त का आगमन होता है, तो पाला शुरु हो जाता है, होठों को फटने से बचाने के लिए सौन्दर्य-प्रसाधनों में मोम मिलाया जाने लगता है, छतों पर सोना बन्द कर दिया जाता है। जब शिशिर का आगमन होता है तो वृक्षों के पत्ते टूटकर गिरने लगते हैं, कुहरा छा जाता है, लोग ईख का रस पीते हैं और जब वसन्त का आगमन होता है, तो मलयगिरि समीर बहने लगता है, स्त्रियों के मन में संगीत उत्पन्न
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होने लगता है, पुष्पों पर भ्रमर मंडराने लगते हैं, पलाश तेज अग्निवर्णी या रक्तवर्णी पुष्पों से भर जाते हैं, आम्र के वृक्ष मञ्जरियों से भर जाते हैं, नायिकाओं में प्रिय के नैकट्य की व्याकुलता बढ़ जाती है, कीर नृत्य करने लगते हैं और कोयल गाने लगती है । स्पष्टतः प्रकृति में एक बदलाव दृष्टिगत होता है, दूसरा जन-जीवन में और तीसरा व्यक्ति के जीवन में भी। ऋतु चक्र, पृथ्वी, आकाश, वायु, जल, अग्नि में परिवर्तन उपस्थित करता है और ये सब जन-जीवन व व्यक्ति-जीवन को प्रभावित करते हैं । कभी उसे कोमल बनाते हैं, कभी कठोर । सन्देशरासक की विरहिणी नायिका वैयक्तिक मनःस्थिति का वर्णन करती हुई भी इस व्यापक परिवर्तन-चक्र के वर्णन से बाहर नहीं निकल पाती। कवि उसी के माध्यम से बड़े सूक्ष्म मार्गों से प्रकृति और मनुष्य के शाश्वत सम्बन्धों को चित्रित करता है। वह बताता है कि मनुष्य का सारा जीवन ही प्रकृति से जुड़ा है। प्रकृति एक ऐसी सत्ता है, जो हमारी देह के साथ ही हमारे मन और विचारों को भी प्रभावित करती है, इसी कारण ऋतु परिवर्तन हमारे व्यवहार को, हमारे आचरण को बदल डालता है। इस अनिवार्य सम्बन्ध को नकारते हुए यदि मनुष्य प्रकृति के साथ मनमानी पर उतरता है, तो उसके अपने जीवन में अव्यवस्था उत्पन्न होती है और अस्तित्व बनाए रखने के मार्ग में अनेक बाधाएँ आ जाती हैं।
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अद्दहमाण एक पर्यावरणविद् भले ही न रहा हो, लेकिन वह एक सुकवि अवश्य था- और सुकवि की विशेषता होती है, कला- कोविद होने के साथ अपने काल से सचेत रूप में जुड़े रहना। कहना न होगा कि अब्दुल रहमान में यह विशेषता थी । वह अपने परिपार्श्विक परिवेश, अपने चारों ओर की प्रकृति, अपने काल की जन या लोक-संस्कृति अर्थात् अपने काल के पर्यावरण से जुड़ा था । वस्तुतः मूल बात तो यह थी कि उस युग में पर्यावरण प्रदूषण या पर्यावरण- असन्तुलन जैसी समस्याएँ नहीं थीं । वह युग प्रकृति के जीवन में मनुष्य के स्वार्थान्ध हस्तक्षेप का युग न होकर प्रकृति सौरभ के वैभव और प्रकृति - सौन्दर्य पर रीझने का युग था, इसलिए वही कविता में आया है । सन्देशरासक तो १२ वीं शती की लघुकाय रचना है। स्वयंभू (८वीं शती), पुष्पदन्त (१०वीं) के क्रमशः पउमचरिउ, रिट्ठणेमिचरिउ, णायकुमारचरिउ, महापुराण जैसे बृहद्काय ग्रन्थों में वर्णित ऋतु वर्णन, वनोद्यान, नदी, तालाब, पशु-पक्षी आदि के अद्भुत चित्रण से किसका मनमुग्ध न होगा। वे वर्णन कहीं-कहीं असामान्य बन पड़े हैं। यहाँ उद्धरण अपेक्षित होते हुए भी विस्तारभय लेखनी को प्रतिबन्धित करने में सक्षम हो रहा है। स्वयंभू एवं पुष्पदन्त के प्रकृति-चित्रण मानस को स्फूर्त कर देने वाले हैं और ये कवि अपभ्रंश साहित्य के पुरोधा माने गए हैं। कहना न होगा अपभ्रंश साहित्य के मूल्यांकन और पुर्नमूल्यांकन की दिशा में शोध कार्यों की महती आवश्यकता है। दरअसल, “स्वयंभू (८ शताब्दी ईस्वी) से लेकर रइधू (१५वीं शती) तक के इस अपभ्रंश साहित्य का सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में बहुत बड़ा ऐतिहासिक महत्त्व है" १६
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और अब समय की मांग है कि अपभ्रंश साहित्य में अनुस्यूत पर्यावरणीय चेतना को उजागर किया जाए।
ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है कि उस युग में पर्यावरण या पर्यावरण-असन्तुलन जैसी समस्याएँ नहीं थीं। अत: पर्यावरण या इसके प्रदूषण जैसे विषयों का प्रत्यक्ष उल्लेख नहीं मिलता। परन्तु पर्यावरण का अस्तित्व सदैव विद्यमान था और रहेगा भी। यह सम्भव ही नहीं है कि कवि या रचनाकार अपनी जीवन्त रचनाओं में पर्यावरणीय चेतना अर्थात् वायुमण्डल एवं परिवेश तथा वातावरण की उपेक्षा करके जीवित रह पाएगा। यह सच है कि न अद्दहमाण पर्यावरणविद् थे और न अपभ्रंश साहित्य के स्वयंभू, पुष्पदन्त, नयनन्दि, कनकामर, वीर कवि आदि-आदि ही पर्यावरणविद् थे। परन्तु साथ-साथ यह भी उतना ही सच है कि उक्त अपभ्रंश साहित्य में प्रकृति-सौन्दर्य एवं उसके सौरभ-वैभव का अद्भुत चित्रण हुआ है। परिणामत: उन रचनाकारों के वनस्पतियों, जीवों, जड़पदार्थों आदि सम्बन्धी चिन्तन की जितनी सराहना की जाए, कम ही होगी। पर्यावरणीय चेतना को अपने गर्भ में धारण किए हुए अपभ्रंश साहित्य आज के मानव को पर्यावरण से जुड़ने की प्रेरणा अवश्य दे सकता है। हमें ध्यान रखना होगा कि वर्तमान पर्यावरण सम्बन्धी चिन्ताओं में प्रकृति के साथ मनुष्य के सम्बन्धों के छीजते जाने के प्रति चिन्ता सर्वप्रमुख है। इस चिन्ता से लड़ने के लिए अपभ्रंश साहित्य की विविध रचनाओं से पर्याप्त सहायता ली जा सकती है। मैंने सुविधा के लिए एक रचना को आधार बनाया था। अपभ्रंश भाषा का साहित्य निरन्तर प्रकाश में आता जा रहा है। अत: अपभ्रंश साहित्य को नई दृष्टि से खंगाला जाए, तो हमें उसमें से अनेक रत्न उपलब्ध हो सकते हैं। सन्दर्भ : १. सरला देवी, संरक्षण या विनाश, द्वितीय संस्करण १९८१, ज्ञानोदय प्रकाशन,
हल्द्वानी (नैनीताल), भूमिका, पृ० १३. २. तदेव. ३. तदेव, (सन्तुलन-शास्त्र) पृ० २. ४. हरिवंश कोछड़, अपभ्रंश साहित्य, पृ० ३४.
विशेष अध्ययन के लिए देखें- (अ) तदेव. (ब) प्रेमचन्द्र जैन, अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक, प्रका०- पा०वि० शोध-संस्थान, वाराणसी-५, सन् १९७३. (स) नामवर सिंह, हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योगदान, प्रका०लोक भारती, १९७१.
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६. संदेशरासक, संपा०-आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी तथा विश्वनाथ त्रिपाठी, चतुर्थ
संस्करण १९९२, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ० १४३. ७. वही, पृ० १५५ के आधार पर। ८. वही, पृ० १५६. ९. वही, पृ० १५७.
वही, पृ० १७४. ११. वही, पृ० १७५. १२. वही, पृ० १७७. १३. वही, पृ० १८०. १४. वही, पृ० १८६ एवं १८८. १५. वही, पृ० १९०. १६. हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योगदान, पृ० २४०.
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श्रमणमा श्रमणमा मकसनरन्टर मरमटा दम भयरमा सामान
पर्यावरणचिन्तन जैन वाङमय के सन्दर्भ में
प्रामाश्रममा प्रमाण
कम
rama-Rample
डॉ० संगीता मेहता
पर्यावरण शब्द 'वातावरण' का पर्याय है। यह पर्यावरण अपने में अत्यन्त व्यापक अर्थ समाहित किये हुए है। इसे दो दृष्टियों से देखा जा सकता है- भौतिक पर्यावरण एवं आध्यात्मिक पर्यावरण। जीव मात्र को दैहिक संतुष्टि प्रदान करने वाले भूमि, जल, वायु एवं वनस्पति आदि तत्त्व भौतिक पर्यावरण में समाविष्ट हैं और आत्म-संतुष्टि, आध्यात्मिक पर्यावरण की परिणति है। आत्म-संतुष्टि से न केवल आध्यात्मिक पर्यावरण अपितु भौतिक पर्यावरण भी शुद्ध होता है। हमारे आचार अर्थात् क्रिया व्यवहार का प्रत्यक्ष प्रभाव भौतिक पर्यावरण पर होता है और विचार तथा चिन्तन से आध्यात्मिक पर्यावरण प्रभावित होता है। संक्षेप में जीव सृष्टि एवं वातावरण का परस्पर सम्बन्ध ही पर्यावरण है, इनके सन्तुलन से ही पर्यावरण शुद्ध रहता है। पर्यावरण शुद्धि न केवल सभ्यता एवं संस्कृति की प्रतीक होती है वरन् हमारे शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक आदि सर्वांगीण विकास के लिये आवश्यक होती है।
भौतिक एवं आध्यात्मिक पर्यावरण के प्रति भारतीय ऋषि, मनीषी अत्यन्त प्राचीन काल से सजग थे। पर्यावरण रक्षण के प्रति उनकी चेतना प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से समग्र भारतीय वाङ्मय में परिलक्षित होती है।
प्राचीन काल में भारतीय संस्कृति दो समानान्तर धाराओं में प्रवाहित हुई- वैदिक संस्कृति एवं श्रमण संस्कृति।
__ वैदिक संस्कृति का निदर्शन वैदिक वाङ्मय में होता है। वैदिक वाङ्मय के ही नहीं अपितु विश्व वाङ्मय के प्रथम सोपान ऋग्वेद के प्रथम मन्त्र में उद्गाता ऋषि ने अग्नि में स्थित ऊर्जा और जीवन की पहचान कर सर्वप्रथम उसकी स्तुति की। इन्द्र, वरुण, पर्जन्य, सूर्य आदि सभी प्राकृतिक तत्त्वों में देवत्व का आधान किया। पर्यावरण रचना में वैदिक ऋषियों का चिन्तन है कि सृष्टि की उत्पत्ति पञ्चमहाभूतों से हुई। सृष्टिक्रम में सर्वप्रथम उत्पत्ति आकाश की हुई। आकाश तत्त्व से वायु और फिर अग्नि की उत्पत्ति हुई जिसे परम पवित्र तथा सर्वव्यापी माना गया। अग्नि घनीभूत होकर जल बनी तथा जल घनीभूत होकर पृथ्वी के रूप में परिणत हुआ।२
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सहायक प्राध्यापक, संस्कृत, शा. कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय, इन्दौर. .
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अथर्ववेद में जलविषयक अनेक मन्त्र हैं। पृथ्वी के माहात्म्य स्वरूप पृथ्वीसूक्त,३ कठोपनिषद् में वायु की महिमा तथा बृहदारण्यकोपनिषद्५ में वृक्ष-वनस्पतियों में जीवनत्व का उद्घोष है। समग्र वैदिक वाङ्मय में पञ्चमहाभूतों की पर्यावरणीय उपयोगिता का निदर्शन है। पौराणिक साहित्य, आयुर्वेद, चरक संहिता, वास्तुशास्त्र, कौटिल्य के अर्थशास्त्र तथा स्मृतिग्रन्थों में भी पर्यावरण चेतना दृष्टिगत होती है।
भारतीय संस्कृति की द्वितीय धारा श्रमण संस्कृति के साहित्य में मनीषियों का चिन्तन केवल पर्यावरण चिन्तन ही नहीं है अपितु पर्यावरण संरक्षण का सूक्ष्म चिन्तन है। श्रमण धारा में जैन एवं बौद्ध साहित्य समाविष्ट है। गौतम बुद्ध ने जगत् एवं जीव को माना, धर्म की नैतिक व्याख्या की किन्तु सृष्टि सम्बन्धी विचार स्पष्ट नहीं किये।६
पर्यावरण रक्षण में जैन वाङ्मय का महत्त्वपूर्ण अवदान है। जैन वाङ्मय में प्राकृतिक तत्त्वों- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति में वैदिक वाङ्मय के समान देवत्व की नहीं, अपितु जीवत्व की अवधारणा है
संसारिणस्त्रस-स्थावराः। पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थावराः।
इस सूत्र में उमास्वामी ने कहा कि संसारी जीव त्रस और स्थावर दो प्रकार के होते हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति कायिक पाँच स्थावर (जीव) हैं।
आचारांगसूत्र के प्रथम पाँच अध्यायों में षड्कायिक जीवों का विस्तृत वर्णन है। इतना ही नहीं समग्र जैन वाङ्मय में जीवतत्त्व का सूक्ष्म वैज्ञानिक वर्णन और वर्गीकरण है। जीव जातियों के अन्वेषण की चौदह मार्गणाएँ, जीवों के विकास के चौदह गुणस्थान और आध्यात्मिक दृष्टि से गुणदोषों के आधार जीव के भेदोपभेद का भी वर्णन समाविष्ट है।८ इस तरह समस्त लोक ही जीवतत्त्व से व्याप्त है और सम्पूर्ण पर्यावरण एक जीवन्त इकाई है। इसके प्रति स्वत्व और संरक्षण की भावना होनी चाहिये। आचारांग सूत्र में इस भावना की अत्यन्त मार्मिक अभिव्यक्ति है। यथा- “जिसे तू मारने, आज्ञा देने, परिताप देने, पकड़ने तथा प्राणहीन करने योग्य मानता है वह वास्तव में तू ही है। जो प्रतिबद्ध अर्थात् प्रज्ञावन्त है वह पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति एवं त्रस जीवों का हनन न स्वयं करता है और न करवाता है। सभी जीव संवेदनशील हैं अत: इनकी रक्षा करनी चाहिये, जो मारने योग्य हो, उसे भी मारना नहीं चाहिए।
____ अहिंसात्मक आचरणपूर्वक इस षट्कायिक पर्यावरणीय संस्कृति की रक्षा जैन सिद्धान्तों का मूलाधार है। उमास्वामी का प्रख्यात सूत्र ‘परस्परोपग्रहो जीवानाम्'१° सह अस्तित्व का प्रतिपादन करता है। पर्यावरण रक्षण में वृक्ष अत्यन्त सहायक ही नहीं, अपितु आवश्यक भी हैं। इस तथ्य को वैज्ञानिक भी स्वीकार करते हैं कि वृक्ष मनुष्य की उच्छ्वास कार्बनडाईऑक्साईड ग्रहण करते हैं और वृक्षों द्वारा उच्छवासित ऑक्सीजन मनुष्य ग्रहण करता है। ऑक्सीजन मनुष्य की प्राणवायु है। इस प्रकार दोनों
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ही एक दूसरे के रक्षक हैं। वृक्ष हमें न केवल शुद्ध वायु, जल, फलादि प्रदान करते हैं अपितु भूमि, वायु और ध्वनि प्रदूषण से भी हमारी रक्षा करते हैं। उदाहरणार्थ भोपाल गैस त्रासदी के समय बड़, पीपल, इमली और अशोक जैसे वृक्षों के पत्ते जल गये थे। उन वृक्षों के समीपस्थ निवासरत व्यक्तियों पर विषैली गैस का प्रभाव अपेक्षाकृत कम हुआ था। निश्चय ही विषैली गैस को वृक्षों ने पहले सहन किया था। बाढ़, अकाल जैसे प्राकृतिक प्रकोप तथा कल-कारखानों, वाहनों एवं आधुनिक उपकरणों से निकले धुएँ जैसे मानव निर्मित प्रकोपों से भी ये वृक्ष पशु-पक्षी सभी की रक्षा करते हैं। स्कॉटलैण्ड के वनस्पति वैज्ञानिक राबर्ट चेम्बर्स का मत है कि वनों का विनाश करने वाले अतिवृष्टि, अनावृष्टि, गर्मी, अकाल और बीमारी को आमन्त्रित कर रहे हैं।
जैन वाङ्मय में अनेक स्थलों पर वृक्ष-वनस्पतियों के महत्व का स्वर मुखरित होता है पद्मपुराण में वृक्षारोपण को प्रतिष्ठा का विषय कहा गया
प्रतिष्ठां ते गमिष्यन्ति यैः वृक्षाः समारोपिताः। वराङ्गचरित एवं धर्मशर्माभ्युदय में वनों, उद्यानों, वाटिकाओं११ तथा नदी के तीरों१२ पर वृक्षारोपण का वर्णन है। तीर्थंकर की प्रतिमाओं पर अंकित चिह्न भी पर्यावरण संरक्षण के प्रतीक हैं। प्राणी जगत् से सम्बद्ध बैल, हाथी, घोड़ा, वानर, हिरण एवं बकरा मानव के लिये सहयोगी एवं उपयोगी रहे हैं। चकवा पक्षी समूह तथा 'कल्पवृक्ष' वनस्पतिजगत् का प्रतीक है। जलचर- मगर, मछली और कछुआ जलशुद्धि हेतु उपयोगी जीव हैं। लाल और नील कमल अपने सौन्दर्य और सौकुमार्य से शान्ति और प्रेम का सन्देश देते हैं।
तीर्थंकरों के जन्म से पूर्व उनकी माताओं द्वारा देखे गये सोलह स्वप्न भी पशु जगत् एवं प्राकृतिक जगत् से सम्बद्ध, मंगल और क्षेत्र के प्रतीक हैं। १३
तीर्थंकर की समवशरण सभा में भी प्रमद वन, अशोक, सप्तपर्ण, चम्पक, आम्र वृक्षों का वर्णन है।१४ साथ ही प्रत्येक जीव का स्थान निर्धारित है तथा सभी को तीर्थकर वाणी सुनने का समान अधिकार है।
प्राणी जगत् प्रकृति की सृष्टि है और मानव के लिये वरदान भी। गो-प्रभृति जीव न केवल दुग्ध, अपितु मलमूत्रादि के रूप में ईधन, खाद, गैस और ऊर्जा भी प्रदान करते हैं। सर्प जैसा विषैला प्राणी फसल नष्ट करने वाले कीटों को खाकर उसकी सुरक्षा तथा केंचुआ जैसा क्षुद्र प्राणी मिट्टी को उर्वरा बनाता है। मछलियाँ जल को शुद्ध करती हैं।
__इस प्रकार पर्यावरण रक्षण में प्रत्येक प्राणी की अहम् भूमिका है। वराङ्गचरित, पद्यानन्दमहाकाव्य, धर्मशर्माभ्युदय और चन्द्रप्रभचरित प्रभृति महाकाव्यों में गाय,
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भैंस, बैल, घोड़ा आदि पशुओं का कृषि,१५ व्यवसाय१६ एवं युद्धादि १७ में योगदान वर्णित है। साथ ही पशु-पक्षियों के दुर्व्यवहार की निन्दा १८ तथा उनके वध के प्रति ग्लानि और बलि का विरोध भी वर्णित है। अत्यन्त खेद का विषय है कि क्रूर मानवता ने पशु-पक्षियों की अनेक जाति-प्रजातियों को नष्ट कर दिया है। माँसाहार की प्रवृत्ति ने जलवायु एवं स्वास्थ्य को प्रदूषित किया है।
प्राणी और वनस्पति जगत् का संरक्षण अहिंसा से ही सम्भव है। जैनाचार में अहिंसा का अर्थ अत्यन्त व्यापक है। मन, वचन और कर्म से किसी जीव की हिंसा न करना अहिंसा है। अन्त:करण में रागादि विकारों का उत्पन्न न होना अहिंसा है। आचार्य अमृतचन्द्र ने पुरुषार्थ सिद्धयुपाय में हिंसा की अतिविस्तृत व्याख्या की है। असत्य, स्तेय, अब्रह्म और परिग्रहादि पापों को हिंसा का ही रूप बताया।२° मद्य, माँस, मधु और पञ्चउदुम्बर फलों का भक्षण भी हिंसा की परिणति है। २१
अशुद्ध जल का प्रयोग एवं अनावश्यक जल का प्रवाह भी अनन्त जल कायिक जीवों की हिंसा है। जल का उपयोग छानकर एवं उबालकर करना प्रत्येक श्रावक का कर्तव्य है। २४ किशन सिंह के क्रियाकोश में जल शुद्धि की तकनीक का विस्तृत वर्णन है। जल शुद्धि की जैन विधि से चिकित्सा विज्ञान भी सहमत है। आज भूमि जल और वायु प्रदूषण का बहुत बड़ा कारण दूषित पदार्थों को प्रवाहित करना, स्थान-स्थान पर एकत्रित जल और दलदल आदि हैं। जैन विधि से की गई जल शुद्धि एवं मितव्ययिता से जलप्रदूषण से मुक्ति सम्भव है।
नित्य स्तुत आलोचना पाठ में मानवीय प्रमाद की सटीक आलोचना है। जिसमें नदी के बीच जल में वस्त्र धोना, भूमि खोदना या खुदवाना। जल की जीवानी को यथा स्थान न पहुँचाना; पंखे से वायु तीव्र गति से संचालित करना, बिना देखे अग्नि प्रज्वलित करना आदि से जल, भूमि, वायु और पृथ्वीकायिक जीवों हिंसा की ओर हमारा ध्यान आकर्षित कराया है।
__ अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह रूप पाँच अणव्रत हैं जो भौतिक एवं आध्यात्मिक पर्यावरण की शद्धि में सार्थक हैं। अहिंसा और सत्य अन्योन्याश्रित हैं। मनुष्य को हित, मित, प्रिय और हिंसारहित वचन बोलना चाहिये। वाणी की सत्यता
और वाणी के संयम को जीवन में उतारने के लिये इसे सत्याणुव्रत, सत्यमहाव्रत, भाषा समिति और वचनगुप्ति इन चार स्थानों पर नियोजित किया है। सत्य वाणी तक ही सीमित नहीं है वरन् मङ्गलायतन में सत्य को ईश्वर कहा है।२६ पदार्थ में भी सत् का अस्तित्व है। झूठा उपदेश देना, किसी की गुप्त क्रिया को प्रकट करना या चुगली करना, अभिप्राय जानकर प्रकट करना, झूठे लेख लिखना, जाली दस्तावेज बनाना, धरोहर को न लौटाना आदि सत्याणुव्रत के अतिचार या दोष हैं। २७
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आत्मवंचना, कूटनीति तथा धोखे का त्याग सत्यवचन से ही होता है। अतिचारों को दूर कर सत्य पालन किया जाय तो शेयर घोटाला तथा हवाला काण्ड, चारा काण्ड जैसी दुष्प्रवृत्तियाँ देश की नींव को हिला नहीं सकेंगी।
आज बढ़ती अपराधिक प्रवृत्तियों के मूल में लोभ प्रकृति प्रबल है। लोभ सभी पापों का जनक है। २८ लोभ के ही कारण मनुष्य चौर्यकर्म में प्रवृत्त होता है। लोभ ही परिग्रह का भी कारण है। मन, वचन और कर्म से किसी की सम्पत्ति बिना आज्ञा के न लेना और न देना अस्तेय या अचौर्य है। चोरी की प्रेरणा देना, समर्थन करना, चोरी की वस्तु खरीदना, राजाज्ञा का उल्लङ्घन, अनुचित रीति से धन ग्रहण करना, मिलावट करना, कम तौलना ये अस्तेयाणुव्रत के अतिचार हैं। २९ इस दृष्टि से वनों की अवैध कटाई, अभ्यारण्यों में वन्य पशुओं का शिकार, दूषित गैस उपकरणों एवं वाहनों का प्रयोग, रिश्वत लेना और देना स्तेय कर्म हैं। दहेज-दाह जैसे कुकृत्यों के पीछे क्रूर तरीके से धन हथियाना चौर्य कर्म और हिंसा है।
___ अचौर्य व्रत पालन से सामाजिक अधिकारों की रक्षा होती है। व्यक्ति, समाज तथा देश का आर्थिक पर्यावरण शुद्ध होता है। जैनाचार्यों ने परिग्रह के चौबीस भेद बताये हैं। इनके भोगोपभोग की इच्छा परिग्रह है और नि:स्पृहता अपरिग्रह। अधिक सवारी रखना, अनावश्यक वस्तुएँ एकत्र करना, दूसरों का वैभव देखकर आश्चर्य एवं लोभ करना और बहुत भार लादना परिग्रह परिमाण व्रत के राष हैं। लोभ के वशीभूत मानव परिग्रह संचय करता है। परिग्रह के संचय और रक्षा के लिये वह हिंसा, झूठ, चोरी और कुशील की ओर प्रवृत्त होता है। फलत: अशान्ति, असन्तोष व तनाव का जन्म होता है। परिग्रह परिमाण व्रत का पालन करने से आवश्यकताएँ सीमित, तृष्णा और कामनाएँ नियन्त्रित होती हैं। फलत: प्राकृतिक संसाधनों की बचत होती है। भ्रष्टाचार, जमाखोरी, वर्गसंघर्ष, साम्राज्यवाद और पूँजी की आसुरी लीलाओं का त्याग अपरिग्रह से ही हो सकता है। इससे न केवल मनुष्य और समाज अपितु विविध देश भी युर की सम्भावनाओं को समाप्त कर परमाणु विस्फोटों से पर्यावरण की रक्षा कर सकते हैं।
पर्यावरण असन्तुलन का सबसे बड़ा कारण मानव और उसकी बढ़ती हुई संख्या है। जनसंख्या नियन्त्रण के लिये ब्रह्मचर्य व्रत सार्थक है। यह व्रत जीवन को मर्यादित एवं मैथुन सेवन को नियन्त्रित करता है। यह व्रत श्रावक के लिये स्वदार सन्तोष तथा श्रमण के लिये पूर्ण ब्रह्मचर्य का निर्देश करता है। परविवाहकरण, अनंग क्रीड़ा, अपशब्द बोलना, विषय सेवन की तीव्र इच्छा तथा व्यभिचारिणी स्त्री के घर आना-जाना ये इस व्रत के व्यतिक्रम हैं। ३२ इस व्रत का पालन न करने से सामाजिक प्रदूषण फैलता है। इसका ज्वलन्त उदाहरण आर्थिक दृष्टि से समृद्ध भोगवाद के चरम बिन्दु पर पहुंचा अमेरिका का असन्तुलित सामाजिक जीवन है जहाँ प्रति तीन में से एक नारी को जीवन
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में एक बार बलात्कार जैसे घृणित शोषण का शिकार होना पड़ता है। विदेशों में ही नहीं वरन् भारत में भी भयङ्कर एड्स प्रभावित रोगियों की संख्या में निरन्तर वृद्धि हो रही है। इन भयानक समस्याओं का समाधान ब्रह्मचर्य व्रत के पालन से ही है, यह व्रत वैयक्तिक, सामाजिक और शारीरिक पर्यावरण की शुद्धि हेतु वरदान है।
इस तरह इन पाँच अणुव्रतों में अणुबम जैसे विस्फोटों को शान्त करने की सामर्थ्य है। आवश्यकता है अणुव्रत के प्रयोग की।
अनेकान्त जैनाचार्यों का मौलिक चिन्तन है। इस सिद्धान्त के अनुसार वस्तु अनेक विरोधी धर्मों का समूह है। जैसे दीपक में अञ्जन, बादल में बिजली और समुद्र में वाडवानल होती है।३३ एक ही वस्तु में सत् और असत् दोनों ही रूप विद्यमान होते हैं। इस तथ्य की पुष्टि में आचार्य ज्ञानसागर ने शूकर का दृष्टांत३४ दिया कि शूकर के लिये विष्ठा परम भक्ष्य है किन्तु हमारे लिये अभक्ष्य है। शूकर के प्रति हमारी दृष्टि घृणित है परन्तु पर्यावरण शुद्धि में उसकी भूमिका महत्त्वपूर्ण है।
परमाणु में निर्माण एवं विध्वंस दोनों की सामर्थ्य है। अत: इस शक्ति का उपयोग सृजनात्मक कार्यों में करना चाहिये, सामरिक विनाश के लिये नहीं। इस तरह रेडियोधर्मी प्रदूषण से पर्यावरण की रक्षा सम्भव है। विश्व रक्षिका अनेकान्त दृष्टि को पर्यावरण के सन्दर्भ में समझना चाहिये। अनेकान्त की कथन प्रवृत्ति स्याद्वाद है। उसमें वैचारिक प्रदूषण को दूर करने की सामर्थ्य है।
श्रावक एवं श्रमण की क्रिया शुद्धि हेतु जैन वाङ्मय में आचार संहिता की विस्तृत परम्परा रही है। श्रावकाचार३५ संहिता में श्रावक की ग्यारह श्रेणियाँ हैं जिन्हें प्रतिमाएँ कहा जाता है। ये ग्यारह सोपान श्रावक को क्रमश: आत्मोत्थान के लिये प्रेरित करते हैं। सामान्यतया अष्टमूल गुण, पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत श्रावक
का सर्वमान्य आचार है।३६ ये द्वादशव्रत आचरण को संयमित, आवश्यकताओं को नियन्त्रित तथा दान, शील, तप आदि भावनाओं को विकसित करने में समर्थ हैं। मद्य, माँस, मधु तथा पाँच उदुम्बर फलों का त्याग गृहस्थ के आठ मूल गुण हैं।३७ जुआ, माँस, मदिरा, वेश्या, परदाराभिलोभन, चोरी एवं शिकार ये सप्त व्यसन त्याज्य हैं।३८ इनसे चारित्र शद्धि होती है। प्रतिदिन देव पूजा, गुरुपास्ति, शास्त्र स्वाध्याय, संयमधारण, तपश्चरण और दान-श्रावक के छ: कर्त्तव्य माने गये हैं३९ जो आत्म शुद्धि में सहायक हैं।
जीवन मूल्यों में 'दान' सर्वोपरि है। आहार, औषध, शास्त्र और अभय-दान के ये चार रूप हैं। संचय का उद्देश्य दान होना चाहिये। परिग्रह संचय में दान की भावना रहने से अहंकार नहीं आता और सच्ची मानवता का विकास होता है।
श्रमणाचार संहिता में श्रमण अर्थात् मुनियों के पञ्चमहाव्रत, पाँच समितियों,
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पञ्चेन्द्रिय निग्रह, षड् आवश्यक, सप्तगुण, कुल अट्ठाईस मूल गुण निर्दिष्ट हैं। ४० बाईस परीषह जय, योग, व्रत और मौन धारण श्रमण के उत्तर गुण हैं । क्षमादि दस धर्म, द्वादशानुप्रेक्षाओं का चिन्तन भी श्रमण का कर्त्तव्य है । ४१
श्रमणों के सप्तगुण एवं समिति पालन में सूक्ष्म जीवों के प्रति अहिंसा दृष्टि है । उनके पञ्चेन्द्रिय निग्रह में निर्विकार भाव का, नग्नत्व में अपरिग्रह का, सामायिक, स्तुति, वन्दना में आत्मशुद्धि का, द्वादशानुप्रेक्षाओं के मनन में और क्षमादि दस धर्म के अनुशीलन में आत्मोत्थान का चिन्तन समाहित है। इस प्रकार श्रावक एवं श्रमणाचार संहिता आचार शुद्धि, भाव शुद्धि और अन्ततः पर्यावरण शुद्धि का पथ प्रशस्त करती है।
पर्यावरण संरक्षक समग्र जैन वाङ्मय में सिद्धान्त एवं आचार की प्रस्तुति के साथ यत्र-तत्र प्राकृतिक सौन्दर्य की अभिव्यक्ति भी है। ऋतु, नदी, वन, उपवन, तीर्थ, पर्वत, वृक्ष, वनस्पति, पशु-पक्षी आदि का चित्रण जैनाचार्यों और कवियों के सूक्ष्म पर्यावरणीय चिन्तन की ही परिणति है ।
इस प्रकार जैन वाङ्मय आद्यंत पर्यावरण चिन्तन से ओत-प्रोत है जिसमें प्रतिपल 'अहिंसा परमोधर्मः', 'सत्यमेवेश्वरः', 'आत्म यथा स्वस्थ तथा परस्य', 'व्यथा स्वयं वाञ्छति तत्परेभ्यः कुर्यात्' आदि उक्तियों से अहिंसा और सर्वोदय का स्वर मुखरित होता है । शान्ति पाठ, सामायिक पाठ, आलोचना पाठ से षट्कायिक जीवों के संरक्षण एवं सन्तुलन का स्वर उद्घोषित होता है। जैन वाङ्मय में बाह्य पर्यावरण के साथ अन्त: पर्यावरण का सूक्ष्म विश्लेषण है। मानव का आध्यात्मिक चिन्तन उसे भौतिक जगत् में कर्म हेतु प्रवृत्त करता है, अतः भौतिक पर्यावरण शुद्धि के लिये आध्यात्मिक अर्थात् आत्मिक शुद्धि आवश्यक है। इसके लिये अनेकान्त दृष्टि से विचार और अहिंसा दृष्टि से व्यवहार या आचार परम आवश्यक है तभी व्यक्ति, समाज और देश में स्वस्थ जीवन पौध का पुनः अंकुरण सम्भव है।
सन्दर्भ :
१.
२.
३.
४.
अग्निमीडे पुरोहितम् । यज्ञस्य देवमृत्विजम् ।
होतारं रत्नधातमम् । ऋग्वेद १/१.
तस्माद्वा एतस्मादात्मनः आकाशः सम्भूतः । आकाशाद्वायुः । बायोः अग्निः अग्नेरापः । अद्भयः पृथिवी । पृथिव्या औषधयः । तैत्तरीयोपनिषद, द्वितीय वल्ली, प्रथम अनुवाक.
अथर्ववेद, पृथ्वीसूक्त १२-१.
कठोपनिषद्, ५-१०.
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बृहदारण्यकोपनिषद्, ३.९.२८.
पुखराज जैन, भारत की सांस्कृतिक विरासत, साहित्य भवन आगरा, पृ० १३८.
७. तत्त्वार्थसूत्र, उमास्वामी, २ / १२, १३ एवं सामायिक पाठ ३/१२.
८. वीरोदयकाव्य, मुनि ज्ञानसागर १९ / २८-३५ एवं वीरवर्धमानचरित - सकलकीर्ति,
६.
१६/३३-९७.
आचाराङ्गसूत्र, पञ्चम अध्याय 'लोकसार' पञ्चम उद्देशक 'अहिंसापद' सूत्र,
१०१, १०२, १०३.
१०. तत्त्वार्थसूत्र, ५ / २१.
११. वराङ्गचरित, जटासिंहनन्दि, २०/६९-७२ तथा धर्मशर्माभ्युदय, हरिश्चन्द्र, सर्ग १२.
१२. धर्मशर्माभ्युदय, १-४९.
१३. वर्धमानचरित, असग, १७/३८-४१.
१४. तदेव, १८ / १२, १३.
१५. वराङ्गचरित, १/२६; चन्द्रप्रभचरित - वीरनन्दि, १३ / ४१, २६/२९. १६. चन्द्रप्रभचरित, १३/२७-२९, १४/५७, ६०, ६३, ६५, धर्मशर्माभ्युदय,
३७
९/५०, ७८.
१७. वराङ्गचरित, १७ / १७; जयन्तविजयकाव्य, अभयदेवसूरि, १६ / ७८.
१८. वराङ्गचरित, ५ / २६.
१९. वीरोदय, ९/३-५, १६ / १९, पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, अमृतचन्द्र- ७९, ८६,८१.
२०. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, ४२, ४४.
२१. तदेव, ७२-७४.
२२. वीरोदय, १६ / ११.
- २३. वीरवर्धमानचरित, १८/३९.
२४. वीरोदय, १९ / २९.
२५. आलोचना, पाठ.
२६. मङ्गलायतनम्, पं० बिहारीलाल शर्मा, सोपान ५, पृ० ९१.
२७. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, समन्तभद्र, ४७.
२८. दशलक्षणधर्मपूजा, द्यानतराय, पद्य ५.
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३८
२९. रत्नकरण्डश्रावकाचार, ५८. ३०. श्रावकाचार, उमास्वामी, १७. ३१. रत्नकरण्डश्रावकाचार, ६२. ३२. तदेव, ६०. ३३. वीरोदय, २१/२२. ३४. वीरोदय, २१/४. ३५. वीरवर्धमानचरित, १८/३४-७१. ३६. सागारधर्मामृत, पं. आशाधर-१/१२. ३७. मद्यमांसमधुत्यागैः महोदुम्बर पञ्चकैः। गृहिणां प्राहुराचार्या अष्टौ मूलगुणानिति।।
श्रावकाचार, पूज्यपाद, १४. ३८. श्रावकाचार, पूज्यपाद, ३५. ३९. देवपूजा गुरुपास्ति स्वाध्याय; संयमस्तपः। दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने
दिने।
श्रावकाचारसंग्रह, सं०- पं० हीरालाल शास्त्री, पृ० १४७. ४०. वीरवर्धमानचरित, १८/३४-७१. ४१. तदेव, १८/७८, ३८०-८१.
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डॉ० सोहन कृष्ण पुरोहित
प्राचीन काल में जालोर मरु-प्रदेश का एक प्रमुख अंग था। तत्पश्चात् सम्राट हर्षवर्द्धन के समय जालोर-भीनमाल के प्रभाव क्षेत्र में सम्मिलित हो गया। राजपूत काल में जालोर सांस्कृतिक गतिविधियों का महत्त्वपूर्ण केन्द्र बन गया। सांचोर, रत्नपुर आदि पड़ोसी नगर भी धीरे-धीरे जालोर तथा भीनमाल से सांस्कृतिक प्रेरणा प्राप्त करने लगे
और इस प्रकार इन सभी नगरों में सांस्कृतिक उन्नति समान रूप से परिलक्षित होने लगी। मध्यकाल में भी यह क्षेत्र सांस्कृतिक दृष्टि से अग्रणी रहा। अध्ययन की सुविधा के लिए इस सांस्कृतिक भू-भाग को जालोर-मण्डल के नाम से अभिहित किया जा सकता है।
जालोर-जोधपुर से करीब १२१ कि.मी. दक्षिण में स्थित है। प्राचीनकाल में इसे सुवर्णगिरि और जाबालिपुर कह कर पुकारा जाता था। कुवलयमाला के अनुसार आठवीं शताब्दी में यह एक समृद्धिशाली नगर था। यहां के भवन एवं मन्दिर इस नगर की शोभा बढ़ाते थे। प्रतिहारों के पश्चात् जालोर में परमारों तथा सोनगरा चौहानों ने शासन किया। यहां पुरातात्विक महत्व के भवनों में सुवर्णगढ़ दुर्ग एवं तोपखाना प्रमुख हैं। तोपखाना का निर्माण अलाउद्दीन खिलजी ने मन्दिरों को तोड़कर उनकी स्थापत्य सामग्री से करवाया था।२
जालोर पर प्रारम्भ में प्रतिहारों और फिर परमारों का शासन रहा। परमार मुञ्जने यहाँ पर चन्दन को अपना गवर्नर नियुक्त किया था। परवर्ती काल में परमार गुजरात के चौलुक्यों के सामन्त बन गये। ११६४ ई० में कुमारपाल चौलुक्य ने जालोर को अपने राज्य का अंग बना लिया। उसने यहां पर कुँवर-विहार नामक जैन मन्दिर बनवाया। चौलुक्यों के पश्चात् जालोर पर नाडोल के चाहमानवंशीय कीर्तिपाल का अधिकार हो गया। ११८१ ई० में कीर्तिपाल ने जालोर को अपनी राजधानी बनाया। उसके पश्चात् यहां समरसिंह और उदयसिंह ने शासन किया। १२२८ ई० में सुल्तान इल्तुतमिश ने जालोर के शासक उदयसिंह को कर देने हेतु बाध्य कर दिया। बाद में वह अवसर *. सह-आचार्य, इतिहास विभाग, जयनारायण व्यास, विश्वविद्यालय, जोधपुर
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पाकर स्वतन्त्र हो गया। फिर जालोर कान्हड़देव के राज्यकाल तक अपनी स्वतन्त्रता का उपभोग करता रहा। १३१० ई० कान्हड़देव की पराजय के पश्चात् यह राज्य अलाउद्दीन खिलजी की सल्तनत का अंग बन गया। अलाउद्दीन की मृत्यु के उपरान्त जालोर पर राजपूतों का पुनः अधिकार हो गया । जालोर के एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि सुल्तान गयासुद्दीन ने इस राज्य को जीतकर दिल्ली सल्तनत में सम्मिलित कर लिया था । १५ वीं शताब्दी में महमूद बेगड़ा (गुजरात) ने जालोर जीतकर भुजफ्फरशाह द्वितीय को यहां पर अपना गवर्नर नियुक्त किया। लगभग १५४० ई० में राठोड़ राव मालदेव ने जालोर को जीत लिया। सम्राट् अकबर के समय जालोर उनके उत्तरी साम्राज्य का अंग बना रहा। औरंगजेब की मृत्यु ( १७०७ ई०) के पश्चात् जालोर जोधपुर राज्य का स्थायी अंग बन गया । ३
जालोर प्राचीनकाल से ही सांस्कृतिक गतिविधियों का केन्द्र था । यहाँ पर अन्य धर्मों की तरह जैन धर्म भी लोकप्रिय था । यद्यपि वर्द्धनकाल में ऐसा लग रहा था कि बौद्ध धर्म की तरह यहाँ जैन धर्म भी लुप्त हो जायेगा। हरिभद्रसूरि, उद्योतनसूरि और सिद्धर्षि जैसे आचार्यों के सद्प्रयासों से यहां जैन धर्म को पुनः जीवनदान मिल सका । ४
जालोर वैष्णव, शैव, शाक्त और जैन धर्म का केन्द्र था। यहां के मन्दिरों को आक्रान्ताओं ने लगभग पूर्णतया ध्वस्त कर दिया था, किन्तु साहित्यिक साक्ष्यों एवं अभिलेखों में उनके सम्बन्ध में प्रचुर सामग्री मिलती है। 4 यहाँ पर आदिनाथ, महावीर, पार्श्वनाथ और शान्तिनाथ के चार प्राचीन जिनालय थे, जिनका समय-समय पर जीर्णोद्वार होता रहा और श्रद्धालु उनकी व्यवस्था हेतु अनुदान देते रहते थे। ये सभी मन्दिर १३ वीं शताब्दी तक विद्यमान थे । ६
जैन परम्परा के अनुसार प्रतिहार शासक नागभट्ट 'प्रथम' जैन आचार्य यक्षदेव से अत्यन्त प्रभावित था। उसके राज्य काल में सम्पूर्ण गुर्जर प्रदेश जैन मन्दिरों से परिपूर्ण हो गया और अनेक लोगों ने जैन धर्म स्वीकार किया। ७ नागभट्ट द्वितीय' ने भी जालोर दुर्ग में एक जैन मन्दिर का निर्माण कराया ।' प्रतिहार सम्राट् नागभट्ट, जैन आचार्य पट्टि के प्रति श्रद्धावान् थे । ९
पूर्व मध्यकाल में जालोर जैन धर्म का प्रमुख केन्द्र बन गया । यहाँ के चाहमान शासक समरसिंह और उदयसिंह ने जैन धर्म के उत्थान में विशेष सहयोग दिया । परिणामस्वरूप उनके शासनकाल में यहाँ कई जैन मन्दिर निर्मित हुए और प्राचीन जिनालयों का जीर्णोद्धार हुआ। इस कार्य में जनसामान्य, जैनाचार्यों और मन्त्री यशोवीर का पूर्ण सहयोग मिला।
चौलुक्य नरेश कुमारपाल जैन धर्म के प्रति पूर्णरूपेण समर्पित था। उसने अपने राज्य में २१ शास्त्रागार स्थापित किये। मेरुतुंग के अनुसार कुमारपाल ने १४४० मन्दिरों
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का निर्माण करवाया था। ११३४ ई० के एक अभिलेख से संकेतित होता है कि कुमारपाल ने जालोर में पार्श्वनाथ मन्दिर बनवाया था। १०
नागर्षि द्वारा रचित जालोरनगरपञ्चजिनालयचैत्यपरिपाटी से ज्ञात होता है कि १६ वीं शताब्दी तक यहां पर कई जैन मन्दिर थे। ११ जिनप्रभसूरि ने विविधतीर्थकल्प में महावीर मन्दिर के चौदहवीं शताब्दी तक विद्यमान होने की सूचना दी है। १२
जालोर जैन धर्मावलम्बियों हेतु आकर्षण का केन्द्र था, जिसका उल्लेख सिद्धसेन सूरि ने भी किया हैं। जैन आचार्य यहां यात्रा पर आते रहते थे। इसलिये जालोर में सुधारवादी विधि चैत्य आन्दोलन अत्यन्त लोकप्रिय हुआ।१३ ११६८ ई० में जिनेश्वर सरि ने जालोर नगर की यात्रा की और श्रावकों को विधि मार्ग से अवगत करवाया। उनके निधन के पश्चात् जिनपतिसूरि ने अपने गुरु की स्मृति में कई उत्सव आयोजित किये, जिसमें आस-पास के क्षेत्रों के लोग भी सम्मिलित हुए।१४ __जालोर में खरतरगच्छ लोकप्रिय था, किन्तु यहाँ पर अन्य गच्छों के आचार्य भी आते रहते थे। हमें जालोर में नाणकगच्छ१५ और चन्द्रगच्छ१६ की उपस्थिति के भी प्रमाण मिलते हैं। यहाँ पर आचार्य उद्योतनसूरि, जिनेश्वरसूरि, बुद्धिसागरसूरि, असिग, जिनभद्रसूरि, धर्मसमुद्र गणि, समयसुन्दर, कर्मचन्द्र और तिलकचन्द्र आदि ने उच्चकोटि के साहित्य का सृजन किया। यशोवीर यहां का प्रसिद्ध विद्वान् था।
जिनकुशलसूरि की प्रसिद्धि सुनकर उन्हें पाटन नगर में आमन्त्रित किया गया। तब वे नागौर से फलोदी, भीनमाल होते हुए जालोर आये और कुछ दिन प्रवास के पश्चात् मेड़ता होते हुए पाटन नगर पहुंचे।१७ पाटन में वे वृतोत्सव में सम्मिलित हुए। इस अवसर पर उन्होंने वहाँ से तीर्थङ्करों की कई प्रतिमाएँ जालोर भेजी। इसी प्रकार खरतरगच्छ के आचार्य जिनचन्द्रसरि को औरंगजेब ने मन्त्रणा हेत आमन्त्रित किया था। उन्होंने अपना चातुर्मास जालोर में किया था१८ राठौड़ों के शासन के दौरान मंणोत नैणसी के पिता जयमल्ल ने महाराज गजसिंह (प्रथम) के समय जालोर के आदिनाथ मन्दिर में महावीर तथा पार्श्वनाथ की प्रतिमाएं स्थापित करवायीं। उनके प्रयासों से कई प्राचीन मन्दिरों की मरम्मत की गई, जिसकी सूचना अभिलेखों से मिलती है। १९
जालोर मण्डल में आहोर तथा सांचोर भी जैन धर्म के प्रमुख केन्द्र रहे हैं। आहोर में सात जिनालयों का निर्माण हआ।२० इसी प्रकार सांचोर (सत्यपुर) भी जैन तीर्थ के रूप में विख्यात रहा। यहाँ पर कई ख्याति प्राप्त आचार्य प्रवास कर चुके हैं, जिनमें से हीरानन्दसूरि, जिनभद्रसूरि और समयसुन्दर जी के नाम उल्लेखनीय हैं। २१
जालोर मण्डल का अन्य सांस्कृतिक केन्द्र भीनमाल नगर (श्रीमाल) रहा। २२ १६वीं शताब्दी में पद्मनाभ ने इसे चौहानों की ब्रह्मपुरी कहकर पुकारा था।२३ सम्भवत: यहाँ नवीं शताब्दी में वर्मलाट का शासन था।२४ यह भी स्पष्ट है कि जब ब्रह्मगुप्त
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ने ब्रह्मस्फोटसिद्धान्त नामक ग्रन्थ की रचना की तब यहां पर व्याघ्रमुख का शासन था । | २५ चीनी यात्री युवानच्वांग ने ६४१ ई. में पी-लो-मो-लो की यात्रा की तब भीनमाल गुर्जर राज्य की राजधानी थी । २६ यद्यपि कुछ विद्वानों ने भीनमाल को पी-लो-मो-लो से अभिन्न मानने में प्रति शंका प्रकट की है। यहाँ के वर्मलाट तथा व्याघ्रमुख अवश्य ही चाप वंशीय शासक रहे होंगे। भीनमाल को अरबों से भी संघर्ष करना पड़ा था। १०वीं शताब्दी में परमार मुञ्ज द्वारा चाहमानों (नाडोल) को पराजित करने के बाद भीनमाल परमार राज्य का अंग बन गया। २७ बाद में इसे परमार दूसल को प्रदान कर दिया गया। भीनमाल पर चौहानों और चौलुक्यों का भी शासन रहा । सुन्धा अभिलेख से ज्ञात होता है कि १३ वीं शताब्दी में जालोर - भीनमाल क्षेत्र पर चाहमान उदयसिंह का अधिकार था । | २८ अलाउद्दीन खिलजी ने अपने जालोर अभियान के दौरान भीनमाल को भी नष्टप्राय कर दिया । २९ बाद में यहां पर पठानों का अधिकार हो गया । १८ वीं शताब्दी में यहां राठौड़ों ने अपना अधिकार स्थापित कर लिया । ३
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जैन धर्म के केन्द्र के रूप में भीनमाल, सम्राट् हर्ष के समय तक अधिक लोकप्रिय न था। चीनी यात्री युवान च्वांग ने जब यहां की यात्रा की तब यहाँ एक बौद्ध मठसर्वास्तिवादियों का था, जिसमें १०० बौद्ध भिक्षु रहते थे। चीनी यात्री ने स्वीकार किया है कि यहां पर ब्राह्मण धर्म का प्रभाव अधिक रहा । ३१ ब्राह्मण धर्म का प्रभाव क्षेत्र होने पर भी जैन धर्म के प्रसार हेतु भीनमाल उर्वरा भू-भाग था क्योंकि बौद्धधर्म के प्रचार ने यहां का वातावरण श्रमण परम्परा से आच्छादित कर दिया था। इस प्रकार सातवीं शताब्दी में जैन धर्म के प्रचार हेतु मञ्च पूर्व में ही निर्मित हो चुका था। जैन आचार्यों के प्रभाव में आकर लोग जैन धर्म की दीक्षा लेने लगे। जैन समाज की श्रीमाल एवं पोरवाल शाखा का उदय भीनमाल में ही हुआ था ।
जैन परम्परा के अनुसार विक्रम संवत् की प्रथम शताब्दी में वज्रस्वामी ने इस नगर में विहार किया था । | ३२ आचार्य सिद्धसेनसूरि ने सकलतीर्थस्तोत्र में भीनमाल को जैन धर्म भूमि कह कर पुकारा है । ३३ उत्तरकालीन परम्परानुसार स्वयं महावीर स्वामी भी भीनमाल आये थे। श्रमण महावीर ब्राह्मणवाड़, सिरोही से आबू होते हुए भीनमाल आये और वहां से गुजरात हेतु प्रस्थान किया । ३४ उपकेशगच्छ की उत्तरकालीन मान्यतानुसार वि०सं० ७९५ में भीनमाल के २४ ब्राह्मणों ने आचार्य उदयभद्र सूरि से प्रतिबोध प्राप्त कर जैनधर्म अपना लिया। ये ब्राह्मण ही आगे चलकर सेठिया कहलाये । | ३५ इन्होंने भीनमल में कई जिनालय बनवाये ।
कुवलयमाला की प्रशस्ति के अनुसार सातवीं शताब्दी में शिवचन्द्रगणि जिन वन्दन करने हेतु स्वयं भीनमाल आये थे। उनके शिष्य यक्षमहत्तर ने यहाँ पर जैन मन्दिर बनवाया था । आठवीं शताब्दी में भीनमाल के राजा भाण का उल्लेख मिलता है।
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भीनमाल में कई मन्दिर हैं जिनमें पार्श्वनाथ का मन्दिर बड़ा चमत्कारिक है। तीर्थमाला (पुण्यकलश) और तीर्थमाला स्तवन (शील विजय) के अनुसार • गजनीखां इस मन्दिर की प्रतिमा को तोड़ना चाहता था परन्तु वह आश्चर्यजनक रूप से बीमार हो गया। इसलिये उसने अपना विचार त्याग कर यह प्रतिमा वीरचन्द मूथा को सौंप दी, जिसने पार्श्वनाथ मन्दिर का पुनः जीर्णोद्धार करवाया। ३७ १६०५ ई० में पुण्य कमल ने पार्श्वनाथस्तवन रचकर जैन तीर्थङ्कर के प्रति श्रद्धासुमन अर्पित किये। ३८ जालोर मण्डल में जैन धर्म के अध्ययन स्त्रोत १. साहित्यिक स्रोत
(१) पट्टावलियाँ - जालोर क्षेत्र में जिनदत्तसूरि के प्रयासों के कारण खरतरगच्छ लोकप्रिय था। अत: जैनधर्म के अध्ययन की दृष्टि से खरतरगच्छपट्टावली, खरतरगच्छ बृहद्गुर्वावली (जिनपाल) का अध्ययन विशेष उपयोगी है। जैन धर्म के आचार्यों के जीवन के प्रमुख घटनाओं की जानकारी पट्टावलियों से प्राप्त होती है। विभिन्न गच्छों की पट्टावलियां भी इस दृष्टि से उपयोगी हैं।
(२) वंशावलियाँ- जैन समाज के विभिन्न गोत्रों की वंशावलियाँ जैन धर्म का अध्ययन करने में सहायक हो सकती हैं। विशेष रूप से जालोर मण्डल की जातियों की वंशावलियां इस सम्बन्ध में उपयोगी हैं। भीनमाल में श्रीमाल और पोरवाल आदि जातियों का जन्म हुआ। इसलिये वैश्य वर्ग की जातियों की वंशावलियों का अध्ययन भी अति आवश्यक है।
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(३) विज्ञप्तिपत्र - विज्ञप्तिपत्र मध्यकाल में जैन संघों द्वारा प्रतिष्ठित आचार्यों को अपने गांव या नगर में चातुर्मास करने के निमन्त्रण के सन्दर्भ में लिखे जाते थे। विज्ञप्ति पत्र दो प्रकार के होते थे, चित्रित और अचत्रित । अचित्रित विज्ञप्ति पत्र में निमन्त्रणपत्र के अलावा आचार्य वन्दना लिखी जाती थी । चित्रित विज्ञप्तिपत्र कागज पर जो लगभग १.५० डेढ़ फुट चौड़ा और २०-२५ फीट लम्बा होता था, लिखे जाते थे। इस कागज के पीछे कपड़ा लगा होता था । लेखन के पश्चात् विज्ञप्तिपत्र कलैण्डर की तरह समेट दिया जाता था । इस विज्ञप्तिपत्रों पर कई रंगों में चित्र बने हुए होते थे जिसमें आचार्य जहाँ से प्रस्थान करेंगे वहां से लेकर मार्ग में पड़ने वाले मुख्य स्थानों के चित्र, चातुर्मास स्थल का चित्र, वहां के मार्ग, मन्दिर और व्यवसाय आदि से सम्बन्धित चित्र होते थे । निमन्त्रित आचार्य को जो सन्देश भेजा जाता था उसमें गद्य-पद्य, छन्द में गुरु-वन्दना और प्रेषक का नाम होता था । इस प्रकार ये विज्ञप्तिपत्र राजस्थान में जैन धर्म, चित्रकला, वेश-भूषा और साहित्यिक विकास के अध्ययन के सम्बन्ध में अत्यन्त उपयोगी हैं। राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर में विभिन्न विज्ञप्तिपत्र संग्रहीत हैं। एक विज्ञप्तिपत्र, जो पाटण से जोधपुर भेजा गया था, उससे दोनों नगरों
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के मध्य जालोर के जैन धर्म का प्रसिद्ध केन्द्र होने की जानकारी मिलती है। सम्भव है ढूढने पर प्राचीन ग्रन्थ भण्डारों में जालोर मण्डल के भी विज्ञप्तिपत्र मिल जाएं।
(४) तीर्थमाला- जैनों द्वारा प्राचीनकाल में तीर्थ यात्राएं आयोजित की जाती थीं। कई जैन आचार्य व्यक्तिगत तीर्थ यात्रा भी किया करते थे। इन तीर्थयात्राओं का विवरण विभिन्न तीर्थमालाओं में मिलता है। १४ वीं शताब्दी में जिनप्रभसूरि ने विविध तीर्थकल्प तथा सौभाग्यविजय जी ने तीर्थमाला की रचना की। इन से मन्दिरों के निर्माण
और उनमें प्रतिमा स्थापित किये जाने के सम्बन्ध में प्रामाणिक साक्ष्य मिलते हैं। सिद्धसेनसूरि ने सकलतीर्थस्तोत्र में जालोर का जैन तीर्थ के रूप में वन्दन किया है।
(५) चित्रित पाण्डुलिपियाँ- जालोर में अनेक जैन आचार्यों ने चातुर्मास किया। अपने प्रवास के समय उन्होंने विभिन्न ग्रन्थों की रचना की। जालोर मण्डल से हमें कुछ ऐसे हस्तलिखित ग्रन्थ मिले हैं जो सचित्र हैं। जालोर से कल्पसूत्रटीका नामक ग्रन्थ मिला है जो संवत् १५६३ में तैयार हुआ। इसमें जो चित्र दिये हुए हैं, उनके निर्माण में स्वर्ण का प्रयोग हआ है। विभिन्न रंगों से चित्रित इन चित्रों से जैन चित्रकला
शैली, उस काल की पोशाक, धार्मिक जीवन और जैन आचार्यों के चित्रमय दर्शन होते हैं। अनेक चित्रित पाण्डुलिपियाँ विभिन्न जैन ग्रन्थ भण्डारों में उपलब्ध हैं।३९
(६) विदेशी यात्रियों का वृत्तान्त- जैन धर्म के विकास की प्रक्रिया का अध्ययन करने हेतु चीनी यात्री ह्वेनसांग का यात्रा विवरण अत्यन्त उपयोगी ग्रन्थ है। ह्वेनसांग ने सातवीं शताब्दी में भीनमाल की यात्रा की थी।
(७) प्रशस्तियाँ- प्रशस्तियों का महत्त्व अभिलेखों के समान ही है। उनका लेखन ८-९ वीं शताब्दी ईस्वी में प्रारम्भ हुआ। इनसे हमें उनके लेखन के समय विद्यमान आचार्य, संघ, गण और गच्छों की जानकारी मिलती है। इनमें दानदाता का नाम और गोत्र भी दिया जाता था। जालोर मण्डल में प्रशस्तियों जैसे शिलालेख भी मिलते हैं। प्रशस्तियां जैन साहित्य एवं इतिहास की कड़ियां जोड़ने का अत्यन्त उपयोगी साधन हैं।४०
(८) पत्र एवं पत्रावलियां--प्राचीन हस्तलिखित पत्र एवं पत्रावलियां जैन धर्म के इतिहास को जानने का प्रामाणिक स्रोत हैं। जैन आचार्य अपने शिष्यों, मित्रों और शासकों से पत्र व्यवहार करते रहते थे। इन पत्रों के संकलन जैन शास्त्र भण्डारों में ढूंढे जा सकते हैं। इन पत्रावलियों में शासकों द्वारा आचार्यों को समर्पित भूभाग के विवरण मिलते हैं। मध्यकाल में शासकों तथा अधिकारियों से पत्र व्यवहार करना जैन आचार्यों की सामान्य दिनचर्या का अंग था। जालोर क्षेत्र की ऐसी पत्रावलियों को ढूंढना अभी शोध का विषय है।४१
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(९) जातियों का इतिहास- जैन आचार्यों के उपदेशों से प्रभावित होकर समय-समय पर कई जातियों ने जैन धर्म को अपना लिया। इन जातियों का इतिहास जानना जरूरी है, जिनसे विभिन्न जातियों के प्रसिद्ध जैन श्रावकों की जानकारी उपलब्ध हो सकेगी। जैसे श्रीमाल या पोरवाल जाति का जन्म श्रीमाल में हुआ। इस जाति का जैनीकरण कैसे हुआ और इसमें कौन-कौन से प्रमुख व्यक्तित्व हुए, उनके सम्बन्ध में जानकारी जातियों के इतिहास के अध्ययन से मिलती है। जयमल्ल के सम्बन्ध में मुंणोत जाति के इतिहास का अध्ययन करने से और यशोवीर के बारे में श्री श्रीमाल जाति के इतिहास का अवलोकन करने पर उपयोगी जानकारी मिल सकती है।
(१०) पुराण ग्रन्थ- श्रीमालपुराण संस्कृत का एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है जो स्कन्दपुराण के ब्रह्म विभाग का ही अंग है। इसमें श्रीमाल नगर के तीर्थों, भौगोलिक स्थिति और वहां निवास करने वाली जातियों का उल्लेख मिलता है। इस ग्रन्थ की एक प्रति प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर में संरक्षित है। इसका रचनाकार कौन था, यह ज्ञात नहीं है। यह ग्रन्थ लगभग १५-१६वीं शताब्दी ईस्वी का है। इसमें घटनाओं का विवरण १२ वीं शताब्दी से मिलता है। इस ग्रन्थ में लक्ष्मी कहती हैं कि जैन धर्मावलम्बी श्रीमाल माहात्म्य का विरोध न करें। श्रीमालपुराण में गौतम गणधर द्वारा जैन धर्म अपनाने के पश्चात् जिन ग्रन्थों की रचना की, उनका विवरण मिलता है। यह ग्रन्थ तपागच्छ सहित ८४ गच्छों का उल्लेख करता है। यह पुराण ओसवालों की उत्पत्ति और श्रीमाल गोत्र पर भी प्रकाश डालता है।४२
(११) ग्रन्थ भण्डार- जालोर मण्डल में कई ग्रन्थ भण्डार हैं जिनमें बड़ी संख्या में जैन ग्रन्थ सुरक्षित हैं। इसमें आहोर का राजेन्द्रसूरि शास्त्रभण्डार प्रसिद्ध है। जालोर में मुनि कल्याणविजय शास्त्रसंग्रह और मुनि केसरविजय पुस्तकालय में हजारों जैन धर्म सम्बन्धी ग्रन्थ संगृहीत हैं। इनमें से कई शास्त्र भण्डार अब बन्द पड़े हैं। कई ग्रन्थ भण्डारों का पुस्तक संग्रह गुजरात-अहमदाबाद में स्थानान्तरित कर दिया गया है। इन जैन ग्रन्थों में अनेक हस्तलिखित ग्रन्थ, भोजपत्रों एवं ताड़पत्रों पर भी लिखे हुए थे।४३ राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर में जालोर, भीनमाल, सांचोर, तखतगढ़ में रचे गये ग्रन्थों की मूलप्रतियां संरक्षित हैं। साहित्यिक ग्रन्थ
११वीं शताब्दी में महाकवि धनपाल ने कादम्बरी के समकक्ष तिलकमञ्जरी (संस्कृत) तथा अपभ्रंश में सत्यपुरीयमहावीरउत्साह की रचना की। इसमें कवि ने सांचोर का अपभ्रंश में सच्चपुरी और संस्कृत में सत्यपुर नाम दिया है। इस ग्रन्थ में सांचोर के महावीर मन्दिर की प्रतिमा के चमत्कारों का वर्णन है। इसमें महमूद गजनवी द्वारा जो जैन तीर्थ नष्ट किये गये थे, उनका उल्लेख मिलता है।४४ इससे ज्ञात होता
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है कि तुर्कों ने भीनमाल तथा गुजरात में अणहिलवाड़ को भग्न कर डाला परन्तु वे सांचोर के वीर प्रभु की प्रतिमा को नहीं तोड़ पाये।४५
खरतरगच्छ की पिप्पलक शाखा के जिनशिवचन्द्रसूरि द्वारा रचित ऐतिहासिकरास को अगरचन्द नाहटा ने ऐतिहासिकजैनकाव्यसंग्रह में प्रकाशित किया है।४६ उनका सम्बन्ध भीनमाल, उदयपुर तथा आबू से रहा।।
प्राचीनगुर्जरकाव्यसंग्रह में कवि आसिगरचित जीवदयारास और चन्दनबालारास भी प्रकाशित हैं। जीवदयारास सहजिगपुर पार्श्वनाथ मन्दिर में संवत् १२५७ में रचा गया था। इससे ज्ञात होता है कि कुमारपाल ने हेमचन्द्रसूरि से प्रभावित होकर कुमारविहार नामक जैन मन्दिर बनवाया था।४९ कवि ने जैन तीर्थों में शत्रुञ्जय, आबू, सांचोर, मोढेरा, फलवद्धि-पार्श्वनाथ और जालोर के कुमारविहार का उल्लेख किया है। कवि आसिग ने बाला मन्त्री तथा अपने मोसाल की भी चर्चा की है। उसने चन्दबालारास जालोर में ही रचा था।४८
खरतरगच्छीय जिनेश्वरसूरि ने भीमपल्ली में महावीर मन्दिर की प्रतिष्ठा सं० १३१७ में की थी। उनके सम्बन्ध में कवि सोममूर्तिगणि ने 'जिनेश्वरसूरिसंयमश्रीविवाहवर्णनरास' नामक ग्रन्थ ३३ पद्यों में रचा था४९ जिससे ज्ञात होता है कि जिनेश्वरसूरि का जन्म संवत् १२४५ में (मारोठ) हुआ। श्री जिनपतिसूरि के उपदेशों से प्रभावित होकर उन्हें वैराग्य हो गया। उनकी दीक्षा खेड़ में हुई थी। आचार्य पद प्राप्त होने पर वे जिनेश्वरसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए। इसके पश्चात् वे धर्म प्रचार करते हुए जालोर पहुंचे। वहाँ पर उन्होंने अपना अन्त समय निकट जानकर वाचनार्य प्रबोधमूर्ति को आचार्य पद पर आसीन कर उनका नाम जिनप्रबोधसूरि रखा। संवत् १३३१ में उनका निधन हुआ। तब कवि सोममूर्ति ने जिनप्रबोधसूरिबोलिका नामक १२ पद्यों की रचना की। उन्होंने जिनप्रबोधसूरिचच्चरी नामक १९ पद्यों की दूसरी रचना की। इसके अलावा गुर्वावलिरेलुआ शीर्षक ग्रन्थ में खरतरगच्छ की आचार्य परम्परा पर प्रकाश डाला है।
जिनचन्द्रसूरि के सम्बन्ध में लखमसी ने जिनचन्द्रसूरिवर्णनरास की रचना की। इसमें जिनप्रबोधसूरि द्वारा खंभुकुमार नामक मन्त्री पुत्र को संवत् १३४१ में जालोर में दीक्षा देने का विवरण है, उन्होंने जिनचन्द्रसूरि के रूप में आचार्य पद प्राप्त किया। जालोर में उनके ही हाथों अजितनाथ जिनालय की प्रतिष्ठा हुई।
अपभ्रंश के ग्रन्थों में विजयदेवसरि का शीलरास (जालोर) और समयसन्दरजी के सीतारामचौपाई उल्लेखनीय ग्रन्थ हैं। राजस्थानी एवं अपभ्रंश के ग्रन्थ गद्य और पद्य दोनों में हैं। इनमें मन्दिरों में सम्पन्न उत्सवों के अलावा आचार्यों की महिमा प्रदर्शित की गई है। ये ग्रन्थ इतिहास, भूगोल, तीर्थ, आचार्यों, श्रावकों इत्यादि के सम्बन्ध में
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महत्त्वपूर्ण जानकारी प्रदान करते हैं।
भीनमाल के एक अन्य विद्वान् धाहिल ये का भी उल्लेख मिलता है जिन्होंने पउमसिरीचरिउ नामक ग्रन्थ रचा है। ये १०वीं शताब्दी में हुए थे।५°
हिन्दी राजस्थानी के अन्य ग्रन्थ- जालोर मण्डल में कुछ ग्रन्थ हिन्दी मिश्रित राजस्थानी में भी रचे गये हैं जिनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है
प्रसिद्ध विद्वान् समयसुन्दर जी के ग्रन्थ व्रतरत्नाकरवृति, चम्पक श्रेष्ठीचौपाई, सांचोरमण्डलवीरस्तवन और क्षुल्लककुमाररास; लक्ष्मीतिलक उपाध्याय का शान्तिनाथदेवरास, धर्मसमुद्रगणि का सुमित्रकुमाररास (१५१० ई०) भोजप्रबन्ध (१५९४ ई.) आदि ग्रन्थ जालोर की देन हैं। कवि दामी भी प्रसिद्ध विद्वान् हुए हैं। उन्होंने मदनशतक (१६६९ ई.) मदननरिंदचौपाई आदि प्रसिद्ध ग्रन्थों की रचना जालोर में ही की थी।
संस्कृत प्राकृत ग्रन्थ५१- जालोर क्षेत्र में जैन आचार्यों ने संस्कृत-प्राकृत के सैकड़ों ग्रन्थों की रचना की। राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर में ऐसे अनेक ग्रन्थ संकलित हैं जो संस्कृत एवं प्राकृत भाषा में हैं और जिनकी रचना जालोर मण्डल में हुई। ये सभी ग्रन्थ अभी तक अप्रकाशित हैं। इनमें से कुछ ग्रन्थों की प्रतिलिपि जालोर में की गई थी। पुरातात्त्विक स्रोत
(१) शिलालेख- जालोर मण्डल में जैनधर्म सम्बन्धी शिलालेख बहुतायत से मिलते हैं, जिन्हें देवदत्त रामकृष्ण भण्डारकर, पूरणचन्द नाहर, जैक्सन, मुंशी देवी प्रसाद और रामवल्लभ सोमानी ने प्रकाशित किया है। ये सभी शिलालेख प्रायः देवनागरी लिपि एवं संस्कृत भाषा में हैं। उनमें कई बार स्थानीय शब्दों एवं विक्रम संवत् की तिथियों का प्रयोग हुआ है। जालोर क्षेत्र के शिलालेखों को मोटे रूप में चार श्रेणियों५२ में बांटा जा सकता है, जो इस प्रकार है१. प्रतिमा स्थापना, मन्दिर निर्माण, जीर्णोद्वार सम्बन्धी लेख। २. मन्दिर की व्यवस्था हेतु अनुदान सम्बन्धी शिलालेख। इनमें मन्दिरों की प्रतिदिन
पूजा और उत्सव निमित्त व्यवस्था का उल्लेख मिलता है। ३. ऐतिहासिक शिलालेख- इनमें इतिहास सम्बन्धी तथ्य मिलते हैं। ४. धर्म संघ के यात्रा सम्बन्धी शिलालेख-जालोर क्षेत्र में प्रथम तीन श्रेणियों के
शिलालेख अधिक मिलते हैं। जालोर जिला से प्राप्त जैन शिलालेखों का विवरण इस प्रकार है
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(अ) जालोर
१. जालोर का शिलालेख ५३ वि० सं० १९७५यह शिलालेख जाबालिपुरीय चैत्य को अनुदान देने और निर्माण कार्य से सम्बन्धित है ।
२. जालोर का शिलालेख ५४ वि० सं० १२२१, १२५६, १२६८चौलुक्य महाराजाधिराज कुमारपाल ने पार्श्वनाथ मन्दिर का यहाँ निर्माण करवाया था। इस जिनालय का नाम कुमार (कुंवर) विहार था। अभिलेख में कहा गया है कि कुमारपाल ने जालोर के कांचनगिरि पर हेमसूरि के उपदेश से प्रभावित होकर श्री देवाचार्य से सद् विधिपूर्वक बिम्ब सहित चैत्य बनवाया। इस जिनालय का समरसिंह ने जीर्णोद्धार करवाया। रामचन्द्राचार्य ने सं० १२६८ में इसके ध्वज एवं स्वर्णकलश की स्थापना की व्यवस्था की । गोष्ठिकों सहित श्री श्रीमाल वंश के यशोदव एवं उसके परिवार के लोगों ने इस कार्य में सहायता की।
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३. जालोर का शिलालेख ५५ संवत् १२३९ - प्रतिहार नागभट्ट ने यक्षवसति नामक एक जैन मन्दिर बनवाया था । वत्सराज के समय दुर्ग में ऋषभदेव का मन्दिर विद्यमान था । श्रेष्ठी यशोवीर ने उसमें मण्डप बनवाया। इस शिलालेख में चन्द्रगच्छ का भी उल्लेख है ।
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४. जालोर का शिलालेख ५६ संवत् १२९४ - महावीर चैत्य को अनुदान देने सम्बन्धी विवरण |
५. जालोर का शिलालेख ५७ संवत् १३२० नाणकीय गच्छ से सम्बन्धित। इसमें महावीर स्वामी के मन्दिर के पुजारी भट्टारक राव लक्ष्मीधर द्वारा १०० द्रम्म का अनुदान देने का उल्लेख है। इस अभिलेख में गोष्ठिक शब्द आया है।
६. जालोर का शिलालेख५८ संवत् १३२३ - इस शिलालेख में कहा गया है कि महाराजा चाचिगदेव (चाहमान) के राज्यकाल में नाणकीय गच्छ के चन्दन विहार के महावीर मन्दिर की मासिक पूजा की व्यवस्था हेतु अनुदान प्रदान किया गया, ताकि उसके ब्याज से यह धार्मिक कार्य हो सके। इस अवसर पर गोष्ठिक भी उपस्थित थे।
७. जालोर का शिलालेख ५९ संवत् १३५३. पार्श्वनाथ मन्दिर हेतु नरपति ने महाराजा सामन्तसिंह के राज्यकाल में अनुदान दिया ।
८. जालोर का महावीर मन्दिर शिलालेख ६० संवत् १६८१. इस लेख में महाराज गजसिंह के शासनकाल में मुंणोत नैणसी के पिता जयमल्ल द्वारा एक जिन प्रतिमा स्थापित किये जाने का उल्लेख मिलता है।
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९. जालोर का शिलालेख ६१ संवत् १६८०- महाराजा गजसिंह के राज्यकाल में जालोर नगर के स्वर्णगिरि दुर्ग में मुंणोत गोत्र के जयमल्ल ने धर्मनाथ की प्रतिमा स्थापित की।
१०. जालोर का शिलालेख ६२ संवत् १६८३ - इसमें सूत्रधार उद्धारक तत्पुत्र तोडर और तपागच्छीय भट्टारक आचार्य श्री विजयदेवसूरि का उल्लेख है।
११. जालोर का शिलालेख ६३ संवत् १६८३ - इस लेख में मुंणोत गोत्र जयमल्ल की भार्या सरूपदे द्वारा पार्श्वनाथ बिम्ब समर्पित करने का उल्लेख मिलता है। जालोर का शिलालेख६४ संवत् १६८३
१२.
१३. जालोर का शिलालेख ६५ संवत् १६८४ - इस अभिलेख से ज्ञात होता है कि कुंथुनाथ की प्रतिमा की स्थापना तपागच्छ के भट्टारक आचार्य विजयदेवसूरि ने की।
१४. जालोर का शिलालेख ६६ (चौमुख जी का मन्दिर) संवत् १६८१- इस शिलालेख में मुंणोत सोहाग देवी द्वारा आदिनाथ की प्रतिमा स्थापित करने का वर्णन है।
१५. जालोर का शिलालेख६७ संवत् १६८६ - संस्कृत का यह लेख किसी मन्दिर से सम्बन्धित है।
(ब) रत्नपुर, हरजी एवं सांचौर के शिलालेख
जालोर के पास एक गांव है हरजी, वहाँ से ६ शिलालेख मिले हैं जो जैनधर्म से सम्बन्धित हैं। जिनपर संवत् १२३१, १५४५ तथा १५४७ उत्कीर्ण हैं । ६८
(१) सांचोर का शिलालेख संवत् १२२५ - इस अभिलेख से ज्ञात होता है कि भीमदेव के राज्यकाल में महावीर जिनालय की चतुष्किका की मरम्मत करवायी गई । ६९ इसकी संवत् १३२२ में पुन: मरम्मत की गई । वि० सं० १३३६ के अन्य शिलालेख से ज्ञात होता है कि उक्त महावीर मन्दिर मुस्लिम आक्रमण से नष्ट हो गया।' (२) रत्नपुर के शिलालेख - जसवन्तपुरा क्षेत्र में स्थित रत्नपुर का पार्श्वनाथ मन्दिर अत्यन्त प्रसिद्ध है। यहां से कई शिलालेख मिले हैं। संवत् १२०९ के शिलालेख में पशु हिंसा पर रोक लगाने का विवरण है । वि० सं० १२३८ में पार्श्वनाथ मन्दिर जीर्णोद्धार का और वि० सं० १३३८ के लेख में श्रेष्ठी डूंगरसिंह द्वारा प्रतिमा स्थापना का विवरण मिलता है । ७१ वि०सं० १२२३ के शिलालेख में यात्रा हेतु दो दुकानों का अनुदान देने, वि०सं० १३४८ के लेख में श्रेष्ठ मण्डलिक मदन द्वारा पुष्पाहार हेतु दो दुकानें दान में देने, वि०सं० १३४३ के लेख में आदिनाथ देवकुल हेतु पुष्पहार
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की व्यवस्था के लिये अनुदान देने और वि० सं० १३४६ के शिलालेख में मन्दिर के कल्याणक उत्सव के लिये ३० द्रम्म देने का विवरण मिलता है । ७२
(स) भीनमाल के शिलालेख
(१) भीनमाल जालोर मण्डल में जैन धर्म का मुख्य केन्द्र था । संवत् १३३३ एक अभिलेख से भगवान् महावीर के भीनमाल आने की सूचना मिलती है । ७३ वैसे भीनमाल में जैन धर्म नवीं शताब्दी के बाद अधिक लोकप्रिय हुआ । वि० सं० १८७३ के अभिलेख से वहाँ महावीर की प्रतिमा को पुनः स्थापित करने का उल्लेख मिलता है । ' ७४ इस प्रतिमा की स्थापना विजयजिनेन्द्रसूरि ने की । वि० सं० २०१८ में इस मन्दिर पर शिखर स्थापित किया गया। |७५ पार्श्वनाथ के घुम्मट युक्त मन्दिर में भी वि०सं० १६८३ का लेख उत्कीर्ण है जिससे ज्ञात होता है कि इस मन्दिर की प्रतिष्ठा विजयदेवसूरि ने की। ७६ शान्तिनाथ मन्दिर के वि०सं० १२१२ के लेख से ज्ञात होता है कि पूर्व
यह मन्दिर आदिनाथ का था, बाद में इसमें शान्तिनाथ की प्रतिमा स्थापित की गई। ७७ पार्श्वनाथ मन्दिर के प्रवेश द्वार (सेठों का बास- हाथियों की पोल ) पर वि०सं० १६७१
शिलालेख से मन्दिर के जीर्णोद्धार कराये जाने की जानकारी मिलती है। अभिलेख में वि० सं० १६७१ में इसी मन्दिर में चन्द्रप्रभ स्वामी की प्रतिमा स्थापित करवाने का उल्लेख है।७८
(२) मन्दिर एवं प्रतिमा लेख- जालोर क्षेत्र में जैन धर्म के उत्थान पर विचार करने हेतु उस भू-भाग में स्थित प्राचीन एवं अर्वाचीन मन्दिरों का अध्ययन करना आवश्यक है। मन्दिरों के शिलालेखों में गृह, विहार चैत्य, भवन, देवकुल, तीर्थ, वसति आदि शब्द मिलते हैं। प्रारम्भ में मन्दिर साधारण स्थापत्य के होते थे। बाद में श्वेताम्बर जैन मन्दिर अलङ्करण पूर्ण बनने लगे। कई मन्दिरों में तो बाद में उनके साथ मण्डप बनवाकर उन्हें सुन्दर बनाने का प्रयास किया गया। जैन मन्दिरों में समय - समय पर जो कलापूर्ण स्तम्भ बने उनपर तथा मण्डपों पर उनके निर्माता का नाम उत्कीर्ण मिलता है । प्राचीन मन्दिरों के निर्माण सम्बन्धी शिलालेखों की जालोर क्षेत्र में कमी नहीं है।
जालोर 'दुर्ग में प्रतिहार सम्राट् नागभट्ट प्रथम के समय यक्ष वसति नामक जैन मन्दिर बना था । कुवलयमाला के अनुसार वत्सराज के समय भी ऋषभदेव का विशाल मन्दिर था । श्रेष्ठी यशोवीर ने इसमें मण्डप का निर्माण करवाया। जालोर में तीसरा मन्दिर महावीर का था। जिसे कई अनुदान प्राप्त हुए थे। जालोर का अन्य प्रसिद्ध मन्दिर कुमार विहार था, जिसे वि०सं० १२२१ में कुमारपाल ने बनवाया था। मोहम्मद गोरी के आक्रमण से इस मन्दिर को भारी क्षति पहुंची थी। इसलिये २१ वर्ष बाद इसका पुनः निर्माण हुआ । चाहमान शासक समरसिंह ने इस कार्य में रुचि प्रदर्शित की। बाद में इस मन्दिर पर स्वर्णकलश और ध्वज की स्थापना की गई। वि०सं० १२९६ के
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आबू अभिलेख से ज्ञात होता है कि पार्श्वनाथ मन्दिर में आदिनाथ प्रतिमा स्थापित की गयी। नाणा से प्राप्त अभिलेख से वि० सं० १२७४ में जालोर में धनदेव तथा उसके परिवार के लोगों द्वारा पार्श्वनाथ की प्रतिमा स्थापित की जाने की जानकारी मिलती है। ७९
उपर्युक्त सभी मन्दिर अलाउद्दीन खिलजी के जालोर आक्रमण के समय नष्ट हो गये थे। उन मन्दिरों की कुछ सामग्री और अभिलेख आज भी तोपखाना की इमारत में सुरक्षित हैं। शेष बचे हुए मन्दिरों की मरम्मत स्वामीदास तथा जयमल्ल मुंणोत ने करवायी थी । 'जालोर चैत्य परिपाटी' में वहाँ बचे हुए ५ मन्दिरों का विवरण मिलता है । जालोर के पतन के बाद वहां पर कई मन्दिर नये सिरे से बने हैं। आजकल वहां
महावीर स्वामी का मन्दिर गगनचुम्बी मन्दिरों में से एक है। गौड़ी पार्श्वनाथ जिनालय तो वि० सं० १८६३ में वेद मूथा लक्ष्मीचन्द ने बनवाया। इसकी प्रतिष्ठा खरतरगच्छ आचार्य जिनहर्षसूर ने की। संवत् १९३३ में इस मन्दिर का जीर्णोद्धार किया गया। यह कार्य विजय राजेन्द्रसूरि के निर्देश पर सम्पन्न हुआ। इसमें ऋषभनाथ की प्रतिमा भी स्थापित की गई । ८° जालोर के जैन स्मारकों में वहाँ की दादावाड़ी, भाण्डवाजी, दुर्ग में स्थित ३ जैन मन्दिर विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। जैन मन्दिरों में पार्श्वनाथ मन्दिर तथा चौमुखा मन्दिर भी दर्शनीय हैं। '
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सम्भवतः जालोर में प्राचीन जैन मन्दिर मारु - गुर्जर शैली के थे। शेष बचे हुए मन्दिर नागर शैली के ही हैं। इनमें अलङ्कारिता, सहजता, लालित्य स्पष्टतया दृष्टिगोचर होती है।
जालोर क्षेत्र में स्थित सत्यपुर (सांचोर) भी जैन धर्म का प्रसिद्ध केन्द्र रहा है। १३१० ई० में अलाउद्दीन खिलजी ने सिवाना एवं जालोर अभियान के दौरान यहां पर स्थित महावीर मन्दिर को नष्ट कर दिया। इससे पूर्व यहां महमूद गजनवी तथा गुलामवंशीय शासकों के आक्रमण हो चुके थे। धनपाल ने यहां की महावीर प्रतिमा की छवि निहारते हुए अपभ्रंश भाषा में सत्यपुरमहावीरउत्साह नामक कृति की रचना की थी। मिश्र धातु से निर्मित यहां की महावीर प्रतिमा अत्यन्त सुन्दर थी । ८२ अब यह मन्दिर विद्यमान नहीं है, किन्तु इससे सम्बन्धित कई शिलालेख प्राप्त हुए हैं। गुर्जर राज्य के मन्त्री अल्हड़ ने तो इस मन्दिर में पार्श्वनाथ प्रतिमा स्थापित की थी। बाद में प्रद्युम्न सूरि के निर्देशन पर इस मन्दिर की मरम्मत की गई। आजकल इस मन्दिर की प्रतिमाएँ अचलगढ़ में सुरक्षित हैं । ८३
जालोर से १९ किलोमीटर की दूरी पर स्थित आहोर में सात जैन मन्दिर हैं, जिनमें से गुरुजी का मन्दिर अधिक प्रसिद्ध है । ८४
जालोर का सांस्कृतिक पड़ोसी नगर भीनमाल है । ८५ यहां पर स्थित बुधावास का महावीर मन्दिर यथेष्ट प्राचीन है। धनपाल ने इसका उल्लेख किया है । चचिग देव
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सोनगरा के मन्त्री ने इस मन्दिर हेतु १३ द्रम्म ७ विंशोपक का अनुदान दिया था । वि० सं० १८७३ में जैन संघ ने इसकी मरम्मत करवाकर मूलनायक महावीर स्वामी की प्रतिमा का तपागच्छ के आचार्य विजयजिनेन्द्रसूरि से अभिषेक करवाया। बाद में इस मन्दिर को शिखर युक्त बनवाया गया। तब वि०सं० २०१८ में आचार्य विजययतीन्द्रसूरि के शिष्य आचार्य विद्याचन्द्रसूरि ने मन्दिर की पुन: प्रतिष्ठा की।
इसी प्रकार द्वितीय मन्दिर गणेश चौक में शान्तिनाथ का है । वि०सं० १२१२ में इस मन्दिर के भण्डार हेतु १०० स्वर्ण मुद्राओं का अनुदान प्रदान किया गया, ताकि उनके ब्याज से रथ यात्रा (उत्सव) सम्पन्न हो सके ।
तृतीय मन्दिर भी शान्तिनाथ का है जो गांधी चौक में स्थित है। यह मन्दिर अकबर के समय बनवाया गया। वि०सं० १६८३ में श्रेष्ठी खेमा ने इसमें पार्श्वनाथ की प्रतिमा स्थापित की। उसका अभिषेक तपागच्छीय आचार्य विजयदेवसूरि ने किया।
चतुर्थ मन्दिर पार्श्वनाथ का है जो अपने चमत्कारों के लिये प्रसिद्ध है। शीलविजय के तीर्थमालास्तवन में कहा गया है कि इस मन्दिर को गजनी खां तोड़ना चाहता था किन्तु उसे अत्यन्त कष्ट उठाना पड़ा। तब उसने यहां की प्रतिमा वीरचन्द मूथा को सौप दी। उन्होंने इस मन्दिर का वि० सं० १६७१ में जीर्णोद्धार करवाया।
भीनमाल नगर की पश्चिमी दिशा में गौड़ी पार्श्वनाथ का मन्दिर भी दर्शनीय है। यहां के अधिकांश मन्दिरों का निर्माण सेठियों ने करवाया है। पार्श्वनाथ मन्दिर उन्हीं की देन है। आदिनाथ मन्दिर सेठ जीवण जी एवं नन्दकरण जी ने करवाया। इसी प्रकार धनजी ने पार्श्वनाथ, जगन्नाथ जी ने नेमिनाथ, वर्द्धमान जी ने आदिनाथ तथा अविचलजी ने नेमिनाथ के जिनालय बनवाये हैं । ८६
भीनमाल नगर से ४० मिलोमीटर दूर माण्डोली में भी प्रसिद्ध जैन मन्दिर है, जो गुरु शिखर कहलाता है। यहां आचार्य शान्तिसूरि का श्वेत संगमरमर द्वारा निर्मित प्रतिमा मानो साक्षात् गुरुवर को सामने बैठाकर बनवाई गयी है । ८७ इसके अलावा भीनमाल में जगवल्लभ पार्श्वनाथ मन्दिर और दादावाड़ी भी प्रसिद्ध साधना स्थल हैं । ४८
जालोर जिला के मुण्डवा गांव में महावीर स्वामी का मन्दिर है । प्राप्त विवरण अनुसार वि०सं० ८१३ में वीर प्रभु की मूर्ति की प्रतिष्ठा वैसाला गांव में हुई। बाद में उसी प्रतिमा को वि० सं० १२३३ माण्डव (मुण्डवा) गांव में स्थापित किया गया। "
९
जैन धर्म के उत्थान के विभिन्न चरणों का अध्ययन करने हेतु मूर्तिलेखों का भी विशेष महत्त्व है। इनसे प्रतिमा के स्थापक का नाम, स्थापना वर्ष और तीर्थङ्कर की पहिचान के सम्बन्ध में जानकारी मिलती है। जालोर दुर्ग के चौमुखा मन्दिर स्थापित प्रतिमाएं लेखयुक्त हैं। एक प्रतिमा पर वि०सं० १६८३, पश्चिमी द्वार पर कुन्थुनाथ
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की मूर्ति पर वि०सं० १६८४ और दूसरे जैन मन्दिर की तीन मूर्तियों पर वि०सं० १६८१, वि०सं० १६८३ (धर्मनाथ) और एक अन्य प्रतिमा पर वि०सं०१६८३ का लेख उत्कीर्ण है। इसी प्रकार भीनमाल में कई प्रतिमाओं पर उत्कीर्ण वर्ष का अध्ययन आसानी से किया जा सकता हैं।
उपर्युक्त विवरण के आधार पर कहा जा सकता है कि सम्पूर्ण जालोर मण्डल एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक भू-खण्ड है। यहाँ पर जैन धर्म का प्रारम्भ यथेष्ठ प्राचीन काल से ही हो चुका था। परवर्ती काल में हुए जैन आचार्यों ने अपनी धार्मिक परम्परा को जारी रखा। विशेष रूप से प्रतिहार काल में जालोर क्षेत्र में जैन धर्म का तेजी से उत्थान हुआ। बाद में परमारों, चौलुक्यों और चाहमानों का भी जिन-धर्म को संरक्षण मिलता रहा। मध्यकाल में मुस्लिम शासन के समय जैन धर्म के प्रसार की गति कुछ मन्द हो गई किन्तु मुगलकाल समाप्त होने और राठौड़ों के सत्ता हस्तगत करने पर उसकी लोकप्रियता में अत्यधिक वृद्धि हो गई। फलस्वरूप सांचोर, तखतगढ़, मुण्डवा, रत्नपुर, भीनमाल और जालोर जैन धर्म के तीर्थस्थल बन गये। यहां पर विभिन्न जैन आचार्यों ने चातुर्मास किया और विभिन्न ग्रन्थों की रचना की। उनके उपदेशों के फलस्वरूप कई कलात्मक मन्दिरों का निर्माण हुआ और उनमें तीर्थङ्करों की प्रतिमाएँ स्थापित की गईं। जालोर. मण्डल में जैन धर्म की प्रगति का लेखा-जोखा करने हेतु पट्टावलियों, विज्ञप्तिपत्रों, वंशावलियों अन्य साहित्यिक साक्ष्यों, अभिलेखों और मन्दिर स्थापत्य का अध्ययन अत्यन्त उपादेय है।
सन्दर्भ ग्रन्थ :
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पृ० १८५. २. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा, जोधपुर राज्य का इतिहास, खण्ड १, पृ० ५४. ३. जैन, पूर्वोक्त, पृ० १८५-१८७; के०के०, सहगल, गजेटियर, जालोर. ४. दशरथ शर्मा, राजस्थान श्रू द एजेज़, खण्ड १, पृ० ४१६-४१७. ५. जैन, पूर्वोक्त, पृ० १८७. ६. प्रोग्रेस रिपोर्ट, आयोलोजिकल सर्वे ऑव इण्डिया, वेस्टर्न सर्किल
१९०८-१९०९, पृ० ५५. ७. शर्मा, पूर्वोक्त, पृ० ४२०. ८. कैलाशचन्द्र जैन, जैनिज्म इन राजस्थान, पृ० २२, मोहनलाल गुप्त, जालोर
का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास, पृ० ९६; रामवल्लभ सोमानी, जैन इन्स्क्रिप्शन्स ऑफ राजस्थान, पृ० ११०-११२, राघवेन्द्र सिंह, 'जालोर
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दुर्ग', सुजस, वर्ष ७, अंक ३,पृ० ३५. ९. शर्मा, पूर्वोक्त, पृ० ४२०. १०. प्रोग्रेस रिपोर्ट आयोलोजिकल सर्वे ऑव इण्डिया वेस्टर्न सर्किल,
१९०८-१९०९, पृ० ५५. ११. जैनसत्यप्रकाश, दीपोत्सवाङ्क, कैलाशचन्द्र जैन, द्वारा एन्श्येण्ट सिटीज एण्ड
टाउन्स ऑव राजस्थान, पृ० १९० पर उद्धृत. १२. जैनसत्यप्रकाश, वर्ष १७, पृ० १५. १३. कैलाशचन्द्र जैन, पूर्वोक्त, पृ० १९०. १४. मुनि जिनविजय, खरतरगच्छबृहदगुर्वावली, पृ० ५०-१५१, के०के०
सहगल, गजेटियर जालोर, पृ० ३३९; जैन, जैनिज्म इन राजस्थान,
पृ० २०४. १५. जैनतीर्थसर्वसंग्रह, पृ० १८७. १६. कैलाशचन्द्र जैन, जैनिज्म इन राजस्थान, पृ० ६०. १७. जैन, वही, पृ० २०८. १८. वही, पृ० २११. १९. वही, पृ० २१८; रामवल्लभ सोमानी , मारवाड़ के अभिलेख, पृ० ६३;
९४-९६. २०-२१. सहगल, पूर्वोक्त, पृ० ३४३. २२-२५. कैलाशचन्द्र जैन, एन्श्येण्ट सिटीज एण्ड टाउन्स ऑव राजस्थान,
पृ० १५५-१५६. २६. वही, पृ० १५७. २७. वही, पृ० १५८. २८. इपिग्राफिया इंडिका, जिल्द ९, पृ० ७३. २९-३०.जैन, पूर्वोक्त, पृ० १५९. ३१. युवान च्यांग ट्रेवेल्स, पूर्वोक्त, पृ० २४९. ३२. भीनमाल दर्शन, पृ० २१. ३३. सी०डी० दलाल, संपा०- ए डिस्कृप्टिव कैटलॉग ऑफ मैन्ययुस्कृप्ट्स
इन जैन भण्डार्स ऐट पाटन, गायकवाड़ ओरियण्टल सिरीज, क्रमांक ७६, बड़ौदा १९३७ ई०, पृ० १५६.
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३४. प्रो०रि० आ० स०इ०, वेस्टर्न सर्किल, १९०८, पृ० ३९.
३५. सेठिया, पूर्वो, पृ० ३०-३१.
३६. जर्नल ऑफ बिहार-ओड़िसा रिसर्च सोसायटी, मार्च १९२३, पृ० २८. ३७-३८. जैन, पूर्वोक्त, पृ० १६२.
३९. गुप्ता, पूर्वोक्त, पृ० २०४.
४०-४१. अध्ययन स्रोत संख्या १-७ के सम्बन्ध में विस्तृत विवरण हेतु दृष्टव्य, कैलाशचन्द्र जैन, जैनिज्म इन राजस्थान, पृ० १-७.
५५
४२. भभूतमल एन० परमार, कल्चरल एण्ड क्रिटिकल स्टडी ऑफ श्रीमाल पुराण, पृ० ११५-११६.
४३. नाहटा, भानावत और कासलीवाल; (सम्पा० ), राजस्थान का जैन साहित्य, पृ० ७५; गुप्ता, पूर्वोक्त, पृ० २०४.
४४. नारायणसिंह भाटी (सं०) परम्परा, भाग ४८, पृ० १३ (विशेषांक - अगरचन्द नाहटा, राजस्थानी जैन साहित्य में ऐतिहासिक सामग्री ) ।
४५. प्रेमसुमन जैन, 'अपभ्रंश साहित्य', जिनवाणी, वर्ष ३२, अंक ३-४,
पृ० २२९-२३१.
४६. भाटी, पूर्वोक्त, पृ० ६३.
४७-४८. वही, पृ० २०.
४९. वही, पृ० २३-२४.
५०. प्रेमसुमन जैन, पूर्वोक्त, पृ० २००.
५१. संस्कृत प्राकृत कैटलॉग (रा०प्रा०वि०प्र०, जोधपुर ) - सं० २अ, ३, ४, १० और १६ दृष्टव्य है।
५२. रामवल्लभ सोमानी, जैन इन्सकृप्सन्स ऑफ राजस्थान, पृ० ३.
५३. वही, पृ० ५७.
५४. पूरनचन्द नाहर, जैनलेखसंग्रह, भाग १, पृ० २३९.
५५. नाहर, पूर्वोक्त, पृ० २३८-२३९.
५६. सोमानी, पूर्वोक्त, पृ० ५९.
५७-५८. नाहर, पूर्वोक्त, पृ० २४०, मारवाड़ के अभिलेख, पृ० ५३. ५९. सोमानी, जैन इन्सकृप्सन्स ऑफ राजस्थान, पृ० ६१; कैलाशचन्द्र जैन, जैनिज्म इन राजस्थान, पृ० २३, नाहर, पूर्वोक्त, पृ० २४०-२४१.
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६०. नाहर, पूर्वो., पृ० २४१. ६१-६५. वही, पृ० २४२. ६६-६७. वही, पृ० २४३. ६८. वही, पृ० २४३-२४४. ६९-७०. नाहर, पूर्वोक्त, पृ० २४८, सोमानी, जैन इन्सिकृप्सन्स, पृ० ११२-११३. ७१. वही, पृ० ११४. ७२. वही, पृ० ११४-११५, नाहर, पूर्वोक्त, पृ० २४८-२४९. ७३. प्रोग्रेस रिपोर्ट ऑव आयोलोजिकल सर्वे ऑव इण्डिया, वेस्टर्न सर्किल,
१९०७, पृ० ३५; कैलाशचन्द्र जैन, जैनिज्म इन राजस्थान, पृ० ८ पर
उद्धृत. ७४-७८. भीनमाल दर्शन, पृ० ५२-५६. ७९. रामवल्लभ सोमानी, जैन इन्सकृप्शन्स....., पृ० ११२-११३; के०के०
सहगल, गजेटियर जालोर, पृ० ३३८-३३९. ८०. सोमानी, पूर्वोक्त, पृ० ११२-११३. ८१. मोहनलाल गुप्त, पूर्वोक्त, पृ० २३३. ८२. कैलाशचन्द्र जैन, एन्श्येण्ट सिटीज...., पृ० २०१. ८३. सहगल, पूर्वोक्त, पृ० ३३८, सोमानी, पूर्वोक्त, पृ० ११३. ८४. सहगल, वही, पृ० ३३३. ८५. सोमानी, जैन इन्सकृप्शन्स ऑफ....., पृ० ११३-११४. ८६. सेठिया, पूर्वोक्त, पृ० ३३-३५. ८७. सैलानियों का आकर्षण स्थल-जालोर (जिला जन सम्पर्क कार्यालय द्वारा
प्रकाशित पुस्तिका). ८८. सेठिया, पूर्वोक्त, पृ० ६०. ८९. माणक, राजस्थानी मासिक, अक्टूबर १९८२, पृ० १३.
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शिवप्रसाद
राजस्थान प्रान्त के जोधपुर मंडल के अन्तर्गत स्थित सादड़ी नामक स्थान पर चिन्तामणि पार्श्वनाथ का एक महिम्न जिनालय है। इसमें प्रतिष्ठापित विभिन्न जिनप्रतिमाओं में पार्श्वनाथ की धातु की एक पञ्चतीर्थी प्रतिमा पर वि०सं० १५०१ का एक लेख उत्कीर्ण है। इस लेख में प्रतिमाप्रतिष्ठापक मुनि के रूप में मुनितिलकसूरि का नाम मिलता है साथ ही उनके पूर्ववर्ती तीन मुनिजनों- मुनितिलकसूरि के गुरु जयाणंदसूरि, जयाणंदसूरि के गुरु वीरचन्द्रसूरि और वीरचन्द्रसूरि के गुरु हेमतिलकसरि का नाम मिलता है।
प्रतिमालेखों में सामान्य रूप से प्रतिमाप्रतिष्ठापक मुनि तथा कभी-कभी उनके गुरु का भी नाम मिल जाता है, किन्तु इस लेख में प्रतिमाप्रतिष्ठापक मुनि के तीन पीढ़ियों का नाम मिलता है जो अपने आप में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। मुनितिलकसूरि किस गच्छ के थे? इस बारे में उक्त अभिलेख से कोई जानकारी नहीं मिलती, अत: इसके लिये अन्यत्र प्रयास करना होगा।
महावीर जिनालय, वरमाण से प्राप्त वि०सं० १४४६ के एक स्तम्भलेख में ब्राह्मणगच्छीय मुनिजनों की एक छोटी सी गुर्वावली दी गयी है, जो इस प्रकार है
मदनप्रभसूरि भद्रेश्वरसूरि विजयसेनसूरि रत्नाकरसूरि
हेमतिलकसूरि ब्राह्मणगच्छीय विभिन्न अभिलेखीय साक्ष्यों में उक्त सभी मुनिजनों का प्रतिमा-प्रतिष्ठापक के रूप में नाम मिल जाता है। मडार स्थित एक जिनालय से प्राप्त
*. प्रवक्ता. पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी.
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वि०सं० १३२७ के एक प्रतिमालेख में मदनप्रभसूरि का;३ मुनिसुव्रत जिनालय, मातर से प्राप्त वि०सं० १३७० के एक प्रतिमालेख में मदनप्रभसूरि के शिष्य भद्रेश्वरसूरि का; वि०सं० १३७५ और १३८० के एक-एक जिनप्रतिमाओं पर भद्रेश्वरसूरि के शिष्य विजयसेनसूरि का,५ वि०सं० १४१० से १४२९ तक की ५ प्रतिमाओं पर विजयसेनसूरि के शिष्य रत्नाकरसूरि का नाम मिलता है। इसी प्रकार १४३२ से १४५४ तक प्रतिष्ठापित ७ जिनप्रतिमाओं एवं वि०सं० १४४६ के एक स्तम्भलेख पर रत्नाकरसूरि के पट्टधर हेमतिलकसूरि का और वि०सं० १४४६ से १४७१ तक की ९ जिनप्रतिमाओं पर हेमतिलकसूरि के पट्टधर उदयाणंदसूरि का नाम मिलता है। इसे तालिका के रूप में निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है
मदनप्रभसूरि (वि०सं० १३२७) १ प्रतिमालेख भद्रेश्वरसूरि (वि०सं० १३७०) १ प्रतिमालेख विजयसेनसूरि (वि०सं० १३७५-१३८०) २ प्रतिमालेख रत्नाकरसूरि (वि०सं० १४१०-१४२९) ५ प्रतिमालेख हेमतिलकसूरि (वि०सं० १४३२-१४५४) ७ प्रतिमालेख एवं १ स्तम्भलेख उदयाणंदसूरि (वि०सं० १४४६-१४७१) ९ प्रतिमालेख
चूंकि सादड़ी से प्राप्त प्रतिमालेख के आधार पर मनितिलकसरि का समय वि०सं० १५०१ सुनिश्चित है और सामान्य रूप से एक आचार्य का नायकत्त्व काल २० वर्ष माना जाये तो उक्त लेख में उल्लिखित हेमतिलकसूरि का समय वि० सं० १४४० के आस-पास ठहरता है
हेमतिलकसूरि (वि०सं० १४४०) वीरचन्द्रसूरि (वि०सं० १४६०) जयाणंदसूरि (वि०सं० १४८०) मुनितिलकसूरि (वि०सं० १५०१ में पार्श्वनाथ की पंचतीर्थी प्रतिमा के प्रतिष्ठापक)
जैसा कि ऊपर हम देख चुके हैं ब्रह्माणगच्छीय रत्नाकरसूरि के पट्टधर हेमतिलकसूरि (१४३२-१४५४) का भी ठीक यही समय है। इस प्रकार समसामयिकता और नामसाम्य के आधार पर वि०सं० १४४६ के वरमाण स्तम्भलेख में उल्लिखित ब्रह्माणगच्छीय हेमतिलकसरि को वि०सं० १५०१ के सादड़ी के लेख में उल्लिखित मुनितिलकसूरि की चौथी पीढ़ी के पूर्वज हेमतिलकसूरि से अभिन्न माना जा सकता है। चूंकि इस काल में किन्ही अन्य गच्छों में भी इस नाम के (हेमतिलकसूरि) कोई आचार्य नहीं हुए हैं, इससे भी उक्त अनुमान की पुष्टि होती है। इस प्रकार सादड़ी
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प्रतिमालेख के आधार पर ब्रह्माणगच्छ के ३ उत्तरवर्ती आचार्यों के नाम ज्ञात हो जाते हैं और वरमाण स्तम्भ लेख तथा उक्त प्रतिमा लेख के आधार पर इस गच्छ के मुनिजनों की एक संयुक्त तालिका निर्मित होती है, वह इस प्रकार है
मदनप्रभसूरि (वि०सं० १३२७)
भद्रेश्वरसूरि (वि०सं० १३७०) विजयसेनसूरि (वि०सं० १३७५-१३८०) 'रत्नाकरसूरि (वि०सं० १४१०-१४२९) हेमतिलकसूरि (वि० सं० १४३२-१४५४)
उदयाणंदसूरि
वीरचन्द्रसूरि (वि०सं० १४४६-१४७१) प्रतिमालेख
जयाणंदसूरि मुनितिलंकसूरि
(वि०सं० १५०१) (सादडी स्थित चिन्तामणि पार्श्वनाथ जिनालय में प्रतिमा प्रतिष्ठापक) सन्दर्भ : १. १. संवत् १५०१ वर्षे श्रीपार्श्वनाथ: (प्रतिमा) स्थापित:
२. ने (?) ने (न) डूलाई प्रासा (द)++न परिन++श्रावके ३. द्दे श्री हेमतिलक सूरितः। तत् पट्टे श्री वीरचन्द्र सू (रि)++ देम त. ४. (श्री) जयाणंद सूरि प्रतिष्ठित गच्छनायक ५. (श्री) मुनितिलक सूरि श्रा०...
चिन्तामणि पार्श्वनाथ जिनालय, सादड़ी में प्रतिष्ठापित पार्श्वनाथ की धातु की पञ्चतीर्थी प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख श्री अरविन्द कुमार सिंह, 'चिन्तामणि पार्श्वनाथ मन्दिर का तीन जैन प्रतिमा लेख' Aspect of Jainology, Vol. 3, Ed. M.A. Dhaky and S.M. Jain, Varanasi, 1991 A.D., pp. 172-173.
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संवत् १४४६ वर्षे वैशाख वदि ११ बुधे ब्रह्माणगच्छीय भट्टारक श्रीमदनप्रभूसरि पट्टे श्रीविजयसेनसूरि पट्टे श्रीरत्नाकरसूरिपट्टे श्री हेमतिलकसूरिभिः पूर्वं गुरु श्रेयार्थं रंगमंडप: कारापितः।। मुनि जयन्तविजय, सम्पा०- अर्बुदाचलप्रदक्षिणाजैनलेखसन्दोह, लेखांक ६८. बुद्धिसागरसूरि, सम्पा०- जैनधातुप्रतिमालेखसंग्रह, भाग २, लेखांक ५१२. नाहर, पूर्वोक्त, भाग २, लेखांक १४३४.
एवं
बुद्धिसागरसूरि, पूर्वोक्त, भाग १, लेखांक ३३५. शिवप्रसाद, 'ब्रह्माणगच्छ का इतिहास', श्रमण, वर्ष ४८, अंक ७-९. ब्रह्माणगच्छीय मुनिजनों द्वारा प्रतिष्ठापित जिन प्रतिमाओं की तालिका, लेखांक
८२, ८४, ८५, ८८ एवं ९०. ७. वही, लेखांक ९३, ९५, ९७, ९८, ९९, १०३, १०७ एवं १०८. ८. वही, लेखांक १०५, ११०-११४, ११६ और ११९.
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राणाश्रममरमाण सामगठबकमया श्रमण-कण-श्रवणश्मन मान्यतया wunomim a noran .momतसर
TAIMELoan प्रात्यानमालककाल मश्रकरण प्रजासण
अगमकामयणप्रण मारमण-मर-कम-कमश्रवाश्रमण-armकणभमप्रमण
मामpuran omemaiDOm श्रमणमणरमण ISRUARRERatoभाइलामकायाालनमश्रमणमण श्रममा श्रममनमप्रमणमममेकर्मणश्रमण श्रमण प्रमण
राष्ट्रोत्थान में प्रागैतिहासिक कालीन जैन
डॉ० (श्रीमती) पुष्पलता जैन
महिलाएँ सृष्टिकाल से ही मूक सेविकाएँ रही हैं। उन्होंने प्रारम्भ से ही सामाजिक अस्मिता को सुधारने और आत्मोत्थान को जागृत करने में अपनी सारी शक्ति लगायी है, इसलिए प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से राष्ट्र को आगे बढ़ाने में उनके योगदान की उपेक्षा नहीं की जा सकती। अभी तक उनका विकासोन्मुख मूल्याङ्कन नहीं हुआ है। साहित्य इस विषय में प्राय: मौन रहा है और उन्होंने स्वयं कलम पकड़ी नहीं है इसलिए यह मूल्याङ्कन उतना सशक्त नहीं हो सकता; यह तथ्य भी हमारी दृष्टि में है।
__ जैन दर्शन वस्तु-स्वातन्त्र्य का जयनाद करता रहा है और महिला और पुरुष के बीच समानता को स्थापित करने में अग्रणी भी रहा है, पर व्यावहारिक सत्ता में उसने महिला वर्ग की दुर्बलता का शङ्खनाद भी किया है। यहां हम उन प्रागैतिहासिक महिलाओं का स्मरण करेंगे, जो इतिहास और पुरातत्त्व की शुष्क परिधि से बाहर रही हैं। आगमों
और पुराणों में उनके अवदान पर विशेष कलम नहीं चलायी गयी, इसलिए यह कठिनाई भी हम सभी के सामने है।
तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ और महावीर के पूर्व का काल हम साधारणत: प्रागैतिहासिक मानकर चल रहे हैं। कुलकर-परम्परा से ऋषभदेव का काल और ऋषभदेव से तीर्थङ्कर नेमिनाथ का काल साहित्य और इतिहास की दृष्टि से अन्धकाराच्छन्न है। इस पर तर्कों का प्रहार नहीं किया जा सकता। हमें जो कछ भी पुराणों में सामग्री मिलती है उससे ही सन्तोष करना पड़ता है और यह सामग्री ना के बराबर है। ___इतिहास के दौरान नारी को अनेक परिस्थितियों से गुजरना पड़ा है। जैनेतर समाज की वस्तुस्थिति से भी वह अप्रभावित नहीं रह सकी। प्रारम्भ में समाज मातृसत्तात्मक होने के बावजूद पुरुष उसके आसपास घूमता रहा है और उसने उसे पितृसत्तात्मक स्थिति में पहुंचाकर ही सांस ली है। ऋग्वेद की अपाला, घोषा, लोपा तथा मुद्रा आदि नारियों की ऋचाओं का उद्घोष हमारे सामने है तो उपनिषद्कालीन गार्गी और “मैत्रेयी की ज्ञानधारा से भी हम अपरिचित नहीं है। उत्तर-वैदिककाल में नारी का सामाजिक महत्त्व * अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, एस०एफ०एस० कालेज, नागपुर.
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और सम्मान और भी बढ़ता दिखायी देता है । ब्रह्मवादिनी कहकर उसके अवदान का स्मरण भी किया जाता है पर कर्मकाण्ड की जटिलता ने उसकी स्वतन्त्रता पर जबर्दस्त आघात किया और बदलते हुए सामाजिक परिवेश में उस पर धार्मिक प्रतिबन्ध लगा दिये गये। नारी की शारीरिक और भावनात्मक दुर्बलता ने इन प्रतिबन्धों के सामने उसे झुकने के लिये विवश भी किया। सुरक्षा और पवित्रता की दृष्टि से यह आवश्यक भी था। छुटपुट उद्धरणों को छोड़कर साधारण तौर पर हम नारी को एक प्रश्न चिह्न के घेरे में खड़ी ही पाते हैं जहां वह पुरुष के पीछे हाथ बांधकर चलती रही है।
द्रव्यस्त्री और भावस्त्री की परिभाषाओं में घूमते हुए वेद, नामकर्म, मोहनीयकर्म आदि की अवधारणा देकर नारी की शारीरिक और मानसिक स्थिति का चित्रण भी किया गया है और 'उपलअग्निवत्', मोक्षपथ की अर्गला, दरिद्रता का घट, विषधर सर्प की भांति कुपित होने वाली, कृष्ण सर्प की तरह अविश्वसनीय, मायावी, चपला, निष्करुणा, कुलक्षणा, बध्या आदि जैसे सैकड़ों अपमानजनक शब्दों का प्रयोग भी उसके लिए किया गया है । फिर भी वह सहिष्णु बनी रही है। अपनी दुर्बलता को दूसरे के शिर मड़ना सशक्त पक्ष की मानसिकता होती ही है। इसलिए आचार्यों के इन सम्बोधनों को बुरा न मानकर उनकी पृष्ठभूमि में छिपी भावात्मक शक्ति की ओर ही हमें विशेष ध्यान देना होगा । चातुर्याम से पञ्चयाम का दौर हमारे जैन इतिहास और परम्परागत दर्शन में द्रष्टव्य ही है।
राष्ट्रोत्थान में शिक्षा और अध्यात्म एक सशक्त साधन के रूप स्वीकारे गये हैं। प्रागैतिहासिक काल से ही महिलायें इन दोनों क्षेत्रों में कभी पीछे नहीं रहीं । यद्यपि उन्हें दृष्टिवाद, महापरिज्ञा, अरुणोपपात आदि के अध्ययन से वञ्चित किया गया पर गणिनी, प्रवर्तिनी, गणावच्छेदिनी आदि पद देकर उन्हें सम्मानित भी किया गया। यद्यपि यह भी सही है कि नारी को आचार्य नहीं होने दिया गया, उसे उपदेश देने का अधिकार नहीं मिला और सद्य: दीक्षित साधु को भी वर्षों से दीक्षित साध्वी के लिये वन्दनीय माना गया, फिर भी उसने अपनी अस्मिता बनाये रखी। अपनी निष्ठा, कर्त्तव्यशीलता और आध्यात्मिक साधना के बल पर नारी ने स्वयं का तो उत्थान किया ही, साथ ही परिवार, समाज और राष्ट्र के विकास में भी भरपूर योगदान दिया।
प्रागैतिहासिककालीन महिलाओं की जानकारी के लिये हमारे समक्ष आगमिक व्याख्या साहित्य तथा पौराणिक साहित्य के अतिरिक्त और कोई साधन नहीं है। पौराणिक इतिहास में तृतीय काल के पल्य का आठवां भाग कितना महत्त्वपूर्ण रहा होगा जब आकाश में सूर्य-चन्द्रमा का दर्शन हुआ होगा। प्रतिश्रुत आदि चौदह कुलकरों की उत्पत्ति तथा अन्तिम कुलकर नाभिराज के समय कल्पवृक्षों के अभाव हो जाने से उत्पन्न आजीविका की विभीषिका की भी हम कल्पना कर सकते हैं। उपलब्ध साधनों का उपयोग कर नवीन दण्ड- व्यवस्था, सामाजिक-व्यवस्था तथा पारिवारिक - व्यवस्था बनाने का
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उत्तरदायित्व तीर्थङ्कर ऋषभदेव तथा उनके पुत्र चक्रवर्ती भरत ने बखूबी निभाया इसलिए उन्हें भी कुलकर जैसा सम्मान देकर हमने अपनी कृतज्ञता व्यक्त की ।
प्रागैतिहासिक महिलाओं का इतिहास तीर्थङ्कर ऋषभदेव के इतिहास से जुड़ा हुआ है जिसका वर्णन जिनसेन ने अपने आदिपुराण में किया है। प्राचीनतम महिला के नाम की खोज की जाये तो हमारा ध्यान सर्वप्रथम अतिबल विद्याधर की पत्नी मनोहरा राज्ञी पर टिक जाता है जिसके विषय में कहा गया है कि वह कामदेव का विजयी बाण जैसी सुन्दर, पति के लिये हास्यरूपी पुष्प से शोभायमान लता के समान प्रिय तथा जिनवाणी के समान हित चाहने वाली और यश को बढ़ाने वाली थी (४.१३० - १) । मनोहरा की ये चारों विशेषतायें नारी के लिए धरोहर रही हैं। उसके जीवन का भव्य प्रासाद इन्हीं चारों स्तम्भों पर खड़ा है।
मनोहरा के क्रम में वज्रबाहु की रानी वसुन्धरा, वज्रदन्त की रानी लक्ष्मीवती और उसकी पुत्री श्रीमती का नाम भी उल्लेखनीय है । वज्रबाहु के द्वारा अपने पुत्र ललितांगदेव के जीवरूप में आये वज्रसंघ के लिये श्रीमती की याचना करना नारी के प्रति सम्मान प्रदर्शित करना ही समझा जा सकता है। दमधर नामक मुनिराज से वज्रसंघ और श्रीमती के भवान्तरों का वर्णन, मतिवर, आनन्द, धनमित्र और अकम्पन तथा शार्दूल, नकुल, वानर और सूकर के भवान्तरों का साथ-साथ चलना, तथा आठवें भव में वज्रसंघ का तीर्थङ्कर होना और श्रीमती का दानतीर्थ के प्रवर्तक के रूप में श्रेयांस राजा के नाम से जन्म ग्रहण करना भी नारी की अस्मिता का ही सूचक है।
भवान्तरों के वर्णन के प्रसंग में जिनसेन ने सूर्यप्रभदेव के गगनगामी विमान को देखकर जातिस्मरण आदि का वर्णन किया है। इसी वर्णन परम्परा में उन्होंने श्रीधर, वज्रनाभि और अहमिन्द्र की पर्यायों में भ्रमण करता हुआ वज्रसंघ का जीव अन्तिम कुलकर नाभिराज और उनकी पत्नी मरुदेवी के पुत्र के रूप में जन्में ऋषभदेव का वर्णन किया है । श्रीमती का जीव भी स्त्री पर्याय छेदकर केशव आदि के रूप में आगे बढ़ता हुआ श्रेयांस राजा बना। इधर ऋषभदेव की पत्नी के रूप में कच्छ और महाकच्छ की बहनें यशस्वती और सुनन्दा परिदृश्य में आयीं । यशस्वती से भरत, वृषभदेव आदि पुत्र और ब्राह्मी नाम की पुत्री हुई तथा सुनन्दा से पुत्र बाहुबली तथा पुत्री सुन्दरी का जन्म हुआ। जैन महिलाओं की कहानी ब्राह्मी और सुन्दरी से ही प्रारम्भ होती है। नीलांजना अप्सरा का नृत्य भगवान् ऋषभदेव के वैराग्य का कारण बना यह भी एक महिला के लिये गौरव का ही विषय कहा जायेगा। यहां यह उल्लेखनीय है कि भागवत (५.४.८; ५५७) में सुनन्दा के स्थान पर जयन्ती का नाम आता है ।
जिनसेन ने ब्राह्मी को दीप्ति के समान और सुन्दरी को चांदनी के समान बताया (६.७०) और यह कहा कि विद्यावती स्त्री भी सर्वश्रेष्ठ पद को प्राप्त करती है- नारी
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६४ च तवती धत्ते स्त्री-सष्टेरनिमं पदम् (६.९८)। तदनुसार उन्होंने ब्राह्मी को सिद्धमातृका तथा सुन्दरी को गणितशास्त्र की शिक्षा दी (१०५-८)। कल्पसूत्र (टीकासूत्र २११ प. ४४१) के अनुसार ब्राह्मी ने ६४ कलायें तथा १८ प्रकार की लिपियों का ज्ञान प्राप्त किया। अन्त में दोनों ने जिनदीक्षा ग्रहण की।
__ आश्चर्य की बात है कि जिनसेन ने इन दोनों महिलाओं के अतिरिक्त अन्य किसी महिला का विशेष उल्लेख नहीं किया। गुणसेन ने अकम्पन की सुपुत्री सुलोचना के विषय में अवश्य लिखा है कि जब उसके पति चक्रवती जयकुमार हाथी सहित गंगा में डूबने लगे तब सुलोचना ने पञ्च नमस्कार मन्त्र की आराधना से इस उपसर्ग को दूर किया (४५.१४२-७)।
इसके आगे तीर्थङ्करों की माताओं का ही उल्लेख मात्र प्राय: मिलता है जो इस प्रकार है- द्वितीय तीर्थङ्कर अजितनाथ की माता विजयसेना या (४८.२१-२४) या विजयादेवी (समवायांग, १५७), सगर चक्रवर्ती की राज्ञी जयसेना (४८.५८-९), तीर्थङ्कर सम्भवनाथ की माता सुषेणा (४९.१४-१६) या सेना (त्रिषष्टिशलाका०, २.६६५-६७३), अभिनन्दननाथ की माता सिद्धार्थ (५५.१६-१८; सम० १५७), सुमतिनाथ की माता मंगला जो सत्य तथा न्यायोचित निर्णय देने में प्रवीण थीं, पद्मप्रभ की माता सुसीमा, सुपार्श्वनाथ की माता पृथ्वी, चन्द्रप्रभ की माता लक्ष्मणा, चन्द्रप्रभ या सुविधिनाथ की माता रामादेवी, शीतलनाथ की माता नन्दा, श्रेयांसनाथ की माता विष्णुदेवी, वासुपूज्य की माता जयादेवी, विमलनाथ की माता श्यामा, अनन्तनाथ की माता सुयशा, धर्मनाथ की माता सुव्रता, शान्तिनाथ की माता अचिरा, कुंथुनाथ की माता श्रीदेवी, अरनाथ की माता महादेवी, मल्लिनाथ की माता प्रभावती, मुनिसुव्रत की माता पद्मावती, नमिनाथ की माता वप्रा देवी और नेमिनाथ की माता शिवादेवी। इनके विषय में उत्तरपुराण और त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित द्रष्टव्य हैं। इनमें भी इन महिलाओं के चरित को उभारा नहीं गया, मात्र नामोल्लेख-सा होकर रह गया है।
यहां हम तीर्थङ्करों की माताओं के अतिरिक्त कुछ विशिष्ट महिलाओं के विषय में यथासम्भव जानकारी प्रस्तुत कर रहे हैं। यहां यह उल्लेखनीय है कि दिगम्बर-परम्परा से भिन्न श्वेताम्बर-परम्परानुसार उन्नीसवें तीर्थककर मल्लिनाथ महिला थीं। छद्मपूर्वक तपस्या करने के कारण उन्हें स्त्रीवेद का बंध हुआ। उसकी बुद्धिमत्ता, सुन्दरता, योग्यता
और नीतिपरायणता अनुपम थी। यहाँ भी आचार्यों को महिला के स्वभाव को छद्म दिखाने में संकोच नहीं हुआ। एक ओर मल्लि को महिला बताकर उसके प्रति सम्मान व्यक्त किया तो दूसरी ओर उसे प्रवञ्चक कहकर अपमानित भी किया।
__ अहिंसा और करुणा की प्रतिमूर्ति तीर्थङ्कर अरिष्टनेमि की होने वाली पत्नी राजुल या राजीमती का उल्लेख भी अपरिहार्य है जिसने विवाह निश्चित होने के साथ ही अपने
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पति के रूप में उन्हें स्वीकार कर लिया और नेमिनाथ द्वारा प्रव्रज्या लेने के बावजूद अन्यत्र सम्बन्ध करने के लिये तैयार नहीं हुई। अपने देवर रथनेमि को प्रबोधित भी किया और स्वयं संयम के मार्ग पर चल पड़ी। ध्यानस्थ रथनेमि ने एकाकी गुफा में गीले वस्त्रों को सुखाने के लिये नग्न हुई राजामती को देखकर कामेच्छा पूर्ति करने की प्रार्थना की तो पुन: उसने उसे आत्मकल्याण की ओर मोड़ा। इसे हम महिला की चारित्रिक. दृढ़ता और आध्यात्मिकता का प्रतीक कह सकते हैं। राजीमती की इस घटना पर जैनाचार्यों ने शताधिक रचनाएँ लिखी हैं।
इसी तरह कृष्ण वासुदेव की माता देवकी का नाम भी उल्लेखनीय है। देवक राजा की पुत्री तथा कंस की बहिन का विवाह सौरीपुर के राजा वसुदेव से हुआ था। "बहिन देवकी के पुत्रों द्वारा मेरी मृत्यु होगी" इस भविष्यवाणी के कारण कंस ने उसके सभी पुत्रों को मार डालने की योजना बनायी। हरिणैगमेषी देव ने अपनी देवमाया से देवकी के छ: पुत्र सुलसा गाथापति के यहां तथा सुलसा के छ: मृत पुत्र देवकी के यहां अज्ञात रूप से पहुंचा दिये। उन छ: पुत्रों को वसुदेव ने प्रसव के तुरन्त बाद कंस को सौंप दिया और कंस ने उन्हें मृत समझकर फेंक दिया। संयोग से अरिष्टनेमि के संघ में ये छहों पुत्र कालान्तर में मुनि बन गये जिन्हें देखकर देवकी के स्तनों से दूध झरने लगा। स्थिति का पता चलते ही वह संसार का चिन्तन करने लगी और हर्षित हो गयी। इससे महिला की मातृत्व शक्ति और निश्छल वात्सल्य संकेतित हो रहा है।
सातवीं बार देवकी के गर्भ धारण होने पर उसे गजसुकुमाल नामक पुत्र हुआ जो इसी नाम से जैन-परम्परा में एक तपस्वी मुनि के रूप में प्रसिद्ध हुए हैं।
इस सन्दर्भ में जैन और वैदिक-परम्परा में अन्तर है। वैदिक-परम्परा में सभी पुत्रों को कंस मार डालता है, पर जैन-परम्परा के अनुसार देवकी आठ अलौकिक सन्तानों की माता थी।
द्रौपदी महाभारत कथा की प्रमुख महिला पात्र है। जैन-परम्परा के अनुसार धर्मरुचि मुनि को कड़वी तुम्बी का आहार देने के फलस्वरूप वह व्याधियों से ग्रस्त होकर मरी और सुकुमालिका के रूप में जन्म लेकर सागरदत्त सार्थवाह के साथ विवाहित हुई। उसके शरीर में विद्युत होने के कारण किसी के भी साथ विवाह नहीं हुआ। साध्वी होने के बाद उद्यान में देवदत्ता गणिका को पांच पुरुषों के साथ सांसारिक भोग भोगते हुए देखकर उसने भी दृढ़ निदान किया कि वह भी अगले जन्म में ऐसा ही भोग करे। इसी ।नदान के फलस्वरूप द्रौपदी के रूप में जन्म लेकर उसके पांच पति हुए। नारद के रुष्ट होने पर उसे पद्मनाभ की कैद में रहना पड़ा, फिर भी वह पथ विचलित नहीं
जैन-परम्परा में द्रौपदी कथानक पर पच्चीसों ग्रन्थ रचे गये हैं। यहां वासुदेव को
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भावी तीर्थङ्कर ‘अममस्वामी' के रूप में प्रस्तुत किया गया है। वैदिक परम्परा से भिन्न द्रौपदी का कथानक जैन - परम्परा में प्रसिद्ध हुआ है । वासुदेव के रूप में कृष्ण द्रौपदी को मुक्त कराने धातकीखण्ड के अमरकंका जाने का वृत्तान्त जैन- परम्परा में पांचवां आश्चर्य माना जाता है। जैन परम्परा में द्रौपदी कथानक में कुछ और विशेषतायें है जैसे द्रौपदी के पूर्वभव की कथा, जन्म-प्रयोजन, जन्म, जन्मभूमि, माता, पांचों पतियों की प्राप्ति, निदान का प्रतिफल, स्वयंवर शर्त, स्वयंवर के प्रसंग में विद्याधर- गन्धर्व का वृत्तान्त, स्वयं मण्डप में पाण्डवों का आगमन, कुन्ती के स्वयंवर स्थल पर उपस्थिति, द्रौपदी की पूर्वभव कथा बताने वाले पात्रों में अन्तर, पाणिग्रहण संस्कार का स्वरूप, पति - सान्निध्य का नियम, हस्तिनापुर त्याग, कौरव-पाण्डव युद्ध, वनवास के पश्चात् राज्यप्राप्ति, महाभारत के प्रमुख पात्रों द्वारा जिनदीक्षा ग्रहण करना तथा महाप्रस्थान में भी पर्याप्त अन्तर दृष्टिगत होता है। इसी के साथ नागश्री सुकुमालिका सहित अनेक पूर्वभव, विद्याधर द्वारा गाण्डीव प्रदान, वनवास के स्थान पर पाण्डवों का द्वारकागमन, द्रौपदी हरण, कृष्ण द्वारा जरासन्ध वध, द्रौपदी द्वारा जिनदीक्षा ग्रहण आदि भी विशेषताएँ और हैं। द्रौपदी की उत्पत्ति भी यहां यज्ञवेदी से नहीं मानी गयी है । पञ्चपतित्व को पूर्वभवकृत पाप का परिणाम बताकर जैनधर्म ने उसे तार्किक बना दिया। महाभारत युद्ध वस्तुत: जैन परम्परा में जरासन्ध - कृष्ण युद्ध है, कौरव पाण्डव तो उनके सहायक हैं।
द्रौपदी के समान सीता भी एक उच्चतम आदर्श की प्रतीक महिला है। वनवास काल में राम-लक्ष्मण का अतिवीर्य से युद्ध होता है । द्रौपदी की सलाह पर यह युद्ध एक दिलचस्प मोड़ लेता है। सीता को जिन मन्दिर में आर्यिकाओं के साथ छोड़कर राम-लक्ष्मण मनोहर नर्तकी का रूप धारण कर अतिकीर की राज्यसभा में जाते हैं और नृत्यरस में डूब जाने पर उसे बन्दी बना लेते हैं। लक्ष्मण ने जब उसका वध करने लगता है तो सीता उसे अहिंसा का पाठ देती है ।
इसी कथानक में शम्बूक का वध राम से नहीं, लक्ष्मण से होता है। रावण यह सुनकर राम-लक्ष्मण से युद्ध करने आता है और सीता के सौन्दर्य को देखकर उसका हरण कर लेता है। यहां अन्त में सीता जिनदीक्षा ले लेती है।
मन्दोदरी रावण की पटरानी थी। वह बड़ी व्यवहार कुशल थी। रावण को खरदूषण बध से उसी ने रोका। यह एक महिला की दूरदर्शिता थी ।
दशरथ की पत्नी कैकेयी रथ संजालन कला में निपुण थी। उसने युद्ध के समय विशेष चातुर्य से राजा दशरथ के रथ की बागडोर सम्भाले थी जिसके कारण उसे वरदान मिला। जैन- परम्परानुसार राजा दशरथ से 'वर' मांगकर उन्हें प्रतिज्ञा के बन्धन से मुक्त करने, भरत को असमय संसार त्यागने से रोकने तथा राम को वन जाने पर कई अनार्य राजाओं को जीतकर चारों ओर शान्ति स्थापित करने का श्रेय कैकेयी को ही है।
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अंजना की गौरव गाथा भी जैन- परम्परा में बहुत प्रसिद्ध है। पिता महेन्द्र ने उसका सम्बन्ध पवनंजय के साथ तय कर दिया। पवनंजय अंजना के सौन्दर्य से आकर्षित होकर विवाह के पूर्व ही अपने मित्र प्रहसित को लेकर अंजना के महल पहुंच गया। यहाँ उसे गलतफहमी हो गयी कि अंजना किसी और पर मोहित है। फलतः पवनंजय ने विवाह होने पर उसका तिरस्कार किया। युद्ध यात्रा के दौरान चकवे चकवी के विरह को देखकर उसे अंजना की याद आयी और राजप्रासाद पहुंचकर उसके साथ सहवास किया तथा नामांकित मुद्रिका दी। गर्भवती हो जाने पर अंजना को अनेक विपत्तियाँ उठानी पड़ी, जो उसके अशुभ कर्मों का फल था। गर्भकाल पूर्ण होने पर अंजना ने एक तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम हनुमान रखा गया। किसी तरह पवनंजय की भेंट अंजना और हनुमान से हो सकी।
इसी प्रकार दमयन्ती, मयणा सुन्दरी, मदनसेना, तिलकसुन्दरी, मदनरेखा, गुणसुन्दरी आदि अनेक महिलाएँ हुई हैं जिन्होंने जैनधर्म की पताका अपने विशुद्ध चरित्र और व्यवहार से फहराई है।
प्रागैतिहासिक इन महिलाओं के जीवन वृत्तान्त का अध्ययन करने पर यह तथ्य बड़ा स्पष्ट हो जाता है कि ये महिलाएँ आध्यात्मिक क्षेत्र में अधिक रची- पची थीं। सभी तीर्थङ्करों के तीर्थ में साधुओं की संख्या की अपेक्षा साध्वियों की संख्या का अधिक होना भी इस स्थिति का द्योतक है कि प्राचीनकाल में भी महिलाएँ अध्यात्म क्षेत्र में अधिक बढ़ी चढ़ी थीं। आज भी वही स्थिति हम पाते हैं। इसी के साथ ही वे नीतिनिपुण और व्यवहारकुशल थीं, करुणा और वात्सल्य की मूर्ति थी । आत्मजागरण, सामाजिक विकास और राष्ट्र के उत्थान में उन्होंने अपना सतत् योगदान दिया है।
यह हमारे महिला वर्ग का गौरव का विषय है कि उसे इस प्रकार की चरित्रनिष्ठ महिलाओं का आदर्श थाती के रूप में प्राप्त हुआ है। अब यह हमारा कर्तव्य है कि हम उसे पूरी तरह सहेजें और समाज तथा राष्ट्र के विकास में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दें।
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TO र अवस्था ह
अक्षर
रसशास्त्र के विकास में जैनाचार्यो का योगदान
अञ्जु श्रीवास्तव, डॉ० चन्द्रभूषण झा* *
आयुर्वेद शब्द आयु और वेद इन दो शब्दों से मिलकर बना है। यज्ञ पुरुष से प्रकट होने वाले चतुर्वेदों से आयुर्वेद पाँचवाँ उपवेद बना। आयुर्वेद चारों वेदों का उपवेद है, ऐसा महर्षि काश्यप का मत है।
आयुर्वेद के आठ अंगों में से एक अंग रसायन है। रसायन का ही विकास रसशास्त्र के रूप में हुआ। इसके विकास का प्रारम्भिक काल ८वीं - ९वीं शती माना जाता है। १.६ वीं शताब्दी में यह पूर्ण विकसित अवस्था में था । रसशास्त्र या रसविद्या के आचार्यों को सामान्यतः शैव या शैव सम्प्रदाय के अनुयायी के रूप में जाना जाता है। अधिकांश रसग्रन्थों में जो मंगलाचरण मिलता है उसमें शिव और पार्वती को ही नमस्कार किए जाने का उल्लेख है। रसशास्त्र के विकास में विभिन्न धर्मों और सम्प्रदायों जैसे- जैन, बौद्ध, शैव और नाथ सम्प्रदायों का अमूल्य योगदान रहा है ।
एवमेवायमृग्वेद यजुर्वेद सामवेदाथर्ववैदम्य: पञ्चमों भवत्यायुर्वेदः । । (काश्यपसंहिता, विमान स्थान - १ ) १
जैन आगम साहित्य में चिकित्सा विज्ञान को 'प्राणावाय' कहते हैं। अहिंसावादी जैन आचार्यों ने अपने धार्मिक सिद्धान्तों के आधार पर ही शल्य चिकित्सा का निषेध किया और उन्होंने रसयोगों (पारद से निर्मित धातुयुक्त व भस्मों) और सिद्धयोगों का बाहुल्येन उपयोग करना प्रारम्भ किया । २ अतः रसौषधि रसशास्त्र में विभिन्न जैन आचार्यों का योगदान अविस्मरणीय है। आज अनेक जैन आचार्यों द्वारा प्रणीत उनके बहुमूल्य ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं। यह हमारा दुर्भाग्य है। वर्तमान काल में जैन प्राणावाय परम्परा का एक मात्र ग्रन्थ उग्रादित्याचार्यकृत कल्याणकारक प्राप्त होता है। जैन प्राणावाय के अनेक दुर्लभ ग्रन्थ पाण्डुलिपि के रूप में राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक आदि
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शोधछात्रा (पी-एच्०डी० स्कालर), चिकित्सा विज्ञान संस्थान, बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी, वाराणसी.
रीडर, रसशास्त्र विभाग, चिकित्सा विज्ञान संस्थान, बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी, वाराणसी.
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स्थानों के विभिन्न ग्रन्थागारों में संरक्षित हैं। इनका सम्पादन, प्रकाशन एवं अध्ययन अत्यन्त आवश्यक है।
प्रस्तुत निबन्ध के माध्यम से मैंने जैनाचार्यों का रसशास्त्र के विकास में किए गए योगदानों को क्रमबद्ध रूप में ऐतिहासिक ग्रन्थों के अध्ययन के आधार पर प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। विभिन्न जैन आचार्य एवं उनका योगदान
१. पादलिप्तसूरि (प्रथम-द्वितीय शती)- विशेषावश्यकभाष्य और निशीथचूर्णी में इनका उल्लेख मिलने से इनका काल प्रथम-द्वितीय शती ज्ञात होता है। इनका जीवनवृत्त प्रभावकचरित्र, प्रबन्यकोष और प्रबन्धचितामणि में विस्तार से मिलता है। तरंगवती, ज्योतिषकारण्डक प्रकीर्णक, निर्वाणकलिका और प्रश्नप्रकाश पादलिप्त के ग्रन्थ हैं। पदालिप्तसूरि सिद्धविद्या और रसायन कर्म में निपुण थे। आचार्य पादलिप्तसूरि ने गाहाजुअलेण से शुरू होने वाले वीरथम(?) की रचना की है और उसमें सुवर्ण सिद्धि तथा व्योमसिद्धि (आकाश गामिनीविद्या) का विवरण गुप्त रीति से दिया है। यह स्तव प्रकाशित है। प्रसिद्ध रसायनज्ञ नागार्जुन इनके शिष्य थे। पादलिप्त की सेवा करके इन्होंने सिद्ध विद्या और रसायन में निपुणता प्राप्त की थी। वे पादलिप्त के समान पादलेप द्वारा आकाश विचरण करते. थे।३
२. नागार्जुन, जैन सिद्ध नागार्जुन, (दूसरी एवं तीसरी शती)- प्रसिद्ध बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन (प्रथम शती ई०) एवं सिद्ध नागार्जुन (सातवीं शती के अतिरिक्त जैन परम्परा में भी नागार्जुन हुए हैं। जैन परम्परा में जिस नागार्जुन का वर्णन प्राप्त होता है वह पादलिप्त सूरि के शिष्य थे। इन्होंने तन्त्र-मन्त्र और रसविद्या में सिद्धियाँ प्राप्त की थीं। इनके जीवनवृत पर इन जैन ग्रन्थों में विवरण प्राप्त होता है-प्रभावक चरित्र, विविधतीर्थकल्प, प्रबन्धकोष, प्रबन्धचिन्तामणि, पुरातनप्रबन्धसंग्रह और पिण्डशद्धि की टीकाएँ। इन ग्रन्थों के विवरण से ज्ञात होता है कि नागार्जुन 'सौराष्ट्र' प्राप्त के अन्तर्गत ढंकगिरि के निवासी और पादलिप्त के शिष्य थे। परन्तु अलबिरूनी (११ वीं शती) ने अपने भारत वर्णन में नागार्जुन के सम्बन्ध में लिखा है- रसविद्या के नागार्जुन नामक प्रसिद्ध आचार्य हुए जो सौराष्ट्र में सोमनाथ के निकट दैहक में रहते थे। जैन नागार्जुन द्वारा प्रणीत रसशास्त्र के तीन ग्रन्थ मिलते हैं- योगरलमाला, लौहशाख और नागार्जुनीकल्प।
३. समन्तभद्र- दिगम्बर परम्परा में आचार्य समन्तभद्र का नाम स्मरणीय है। इनका काल ४ थी से ५ वीं शती समझा जाता है। जिनस्तुतिशतक के एक पद्य से ज्ञात होता है कि इनका मूल नाम शान्ति वर्मा था। समन्तभद्र वैद्यक और रसविद्या में निपुण थे।
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समन्तभद्रकृत सिद्धान्तरसायनकल्प- उग्रादित्याचार्य ने कल्याणकारक की रचना समन्तभद्र द्वारा रचित अष्टाङ्गयुक्त ग्रन्थ (सम्भवत: अष्टाङ्गसंग्रह) के आधार पर की थी, जैसा कि उनके निम्न कथन से स्पष्ट है।
अष्टांगमध्यखिलन समन्तभद्रैः प्रोक्तं रसविस्तारवचो विभवैर्विशेषात्। संक्षपतो निगदितं तदिहात्मशक्त्या कल्याणकारकमशेषपदार्थयुक्तम्।।
कल्याणकारक, २/८६. आचार्य समन्तभद्र ने 'सिद्धरसायनकल्प' नामक १८,००० श्लोकयुक्त ग्रन्थ की रचना की थी। दुर्भाग्यवश आज यह ग्रन्थ अनुपलब्ध है। कहीं-कहीं इसके कुछ श्लोक मिलते हैं। इसमें जैन पारिभाषिक शब्दों के प्रयोग और संकेत के भी उपयोग किए गए हैं। जैसे- 'रत्नत्रयौषध' कहने से जैन सिद्धान्तानुसार सम्यक्दर्शन, ज्ञान
और चारित्र इन तीनों रत्नों का ग्रहण होता है। दूसरे अर्थ में पारद, गन्धक और पाषाण ये तीनों पदार्थ लिए जाते हैं। इनसे निर्मित रसायन वात, पित्त, कफ इन त्रिदोषों को नष्ट करता है। औषधि निर्माण में द्रव्यों के प्रमाणों को तीर्थङ्करों की संख्या और चिह्नों के द्वारा सूचित किया गया है। जैसे- रससिन्दूर निर्माण में पारद, गन्धक का प्रमाण 'सूतं केसरी गंधकं मृगनवा-सारदूम' कहा गया है। यहाँ केशरी महावीर का चिह्न है
और महावीर २४ वें तीर्थङ्कर हैं, अत: पारद् की मात्रा २४ भाग लेनी चाहिए। मृग १६ वें तीर्थङ्कर का चिह्न होने से गंधक की मात्रा १६ भाग लेनी चाहिए।
पुष्पायुर्वेद भी समन्तभद्र की कृति है। उन्होंने इसमें अठारह हजार जाति के कुसुम (पराग रहित) पुष्पों से ही रसायनौषधियों के प्रयोगों को लिखा है। इस ग्रन्थ में (ईस्वी सन् तीसरी शती) की कर्णाटक की लिपि उपलब्ध होती है। अभी तक पुष्पायुर्वेद की रचना जैनाचार्यों के अतिरिक्त और किसी ने नहीं किया है।४
४. आचार्य पूज्यपाद- पूज्यपाद का काल विक्रमी छठी शताब्दी का प्रारम्भ प्रमाणित होता है। व्याकरण, वैद्यक, योगशास्त्र, रसशास्त्र और दर्शन के क्षेत्र में इनका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण योगदान है। इन्होंने गगनगामिनी विद्या में कौशल प्राप्त किया था। यह पारद के विभित्र प्रयोगों के ज्ञाता थे। बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन से भित्र एक अन्य नागार्जुन भी थे, जो पूज्यपाद के भान्जे थे। इनको पूज्यपाद ने अपनी वैद्यक विद्या सिखाई थी। विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी के विद्वान् कवि मंगराज ने कनड़ भाषा में खगेन्द्रमणि दर्पण नाम का एक चिकित्सा ग्रन्थ रचा है और उसमें उन्होंने पूज्यपाद के वैद्यक ग्रन्थ का भी आधार रूप में उल्लेख किया है। अनेक रसयोग उनके नाम से प्राप्त होते हैं। बसवराजीयम, योगरत्नाकर, रसप्रकाशसुधाकर, कल्याणकारक आदि ग्रन्थों में उनका उल्लेख प्राप्त होता है।
आचार्य पूज्यपाद ने कल्याणकारक नामक वैद्यक ग्रन्थ का निर्माण किया था।
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इस तथ्य की पुष्टि कर्नाटक (कनड़) भाषा एवं संस्कृति के मनीषी विद्वान् जगद्दल सोमनाथ ने भी की है। उन्होंने पूज्यपाद द्वारा रचित कल्याणकारक ग्रन्थ का कनड़ भाषा में भाषानुवाद कर उसे कनड़ लिपि में लिप्यन्तरित किया था। १२ वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में रचित ग्रन्थ वसवराजीयम् में पूज्यपादकृत पूज्यपादीय ग्रन्थ का उल्लेख है। इस ग्रन्थ में पूज्यपादाचार्य द्वारा निर्मित अनेक रसकल्पों का उल्लेख निम्न प्रकार से है, जैसेसर्वज्वरादिहर गुटिका (पृष्ठ २९) शोफमुद्गर रस (पृष्ठ ८५) ज्वरगजाङ्कुश (पृष्ठ ३०) गंधकरसायनम् (पृष्ठ ११०) चण्डभानरस (पृष्ठ ३०)
रसेन्द्र गुटिका (पृष्ठ १४५) कालाग्निरुद्ररस (पृष्ठ ३३) नागेन्द्र गुटिका (पृष्ठ १६३) त्रिनेत्ररस (पृष्ठ ३४, १४३) मृतसंजीवनी गुटिका (पृष्ठ १९७) लोकनाथरस (पृष्ठ ७८)
शैलेन्द्ररस (पृष्ठ २१३) व्याधिहरणरस (पृष्ठ २३२) गरुडांजनम् (पृष्ठ २६६) पारदादि गुटिका (पृष्ठ २९१) स्थौल्यान्तकरस (पृष्ठ २७४)
शिमोगा जिलान्तर्गत हुम्मच क्षेत्र में क्रमांक ४६ के शिलालेख में पूज्यपाद का आयुर्वेदाचार्य के रूप में उल्लेख है। उपरोक्त उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि आचार्य पूज्यपाद का रसौषधि में योगदान बहुमूल्य रहा होगा। योगरत्नाकर में मृत संजीवनीवटी के निर्माण के प्रसंग में आचार्य पूज्यपाद का उल्लेख आविष्कारक के रूप में प्राप्त होता है। जैसेमूर्छा- प्रमोगरोगंच वान्ति पित्तं च नाशयेत्। मृत-संजीवनी नाम्ना पूज्यपादैरूदीरिता।।
(योगरत्नाकर २५/३) - इसी प्रकार चन्दनादिचूर्ण के सन्दर्भ में भी आचार्य पूज्यपाद का नाम आता है। कामलांश्च प्रमेहाश्च पित्तज्वरविनाशनम् चन्दनाद्यमिदं चूर्ण पूज्यपादेन् भाषितम्।।
(योगरत्नाकर २५/१) ५. कल्याणकारक और उसके कर्ता उप्रादित्याचार्य- दिगम्बर जैनाचार्यों द्वारा रचित आयुर्वेद या प्राणावाय के उपलब्ध ग्रन्थों में उग्रादित्याचार्य का कल्याणकारक नामक ग्रन्थ सबसे प्राचीन, मुख्य और महत्त्वपूर्ण है। ईस्वी सन् की आठवीं शताब्दी में प्रचलित चिकित्सा प्रयोगों और रसौषधियों से भिन्न और सर्वथा नवीन प्रयोग हमें इस ग्रन्थ में देखने को मिलता है। ग्रन्थ में प्राप्त प्रशस्ति एवं अन्य उद्धरणों
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से ज्ञात होता है कि श्रीनन्दिशिष्य उग्रादित्याचार्य ने प्राचीन त्रिकलिंग (वर्तमान में तेलंगाना) देशान्तर्गत वेंगी राज्य (गोदावरी जिले में वेड वेंगी नगर राजधानी थी) में स्थित “रामगिरि" में पूर्वी चालुक्य राजा विष्णुवर्धन 'चतुर्थ' (७६४-७९९) के शासनकाल में कल्याणकारक ग्रन्थ की रचना की। ये आदिपुराण रचयिता जिनसेन (७८३ ई०) के शिष्य थे। सम्भवत: गणितज्ञ महावीराचार्य (८५० ई०), धवलाकर, वीरसेनाचार्य (८१५ ई०) और शाकटायन इनके समकालीन थे।
कल्याणकारक सखाराम नेमचन्द्र ग्रन्थमाला, शोलापुर से १९४० ई० में प्रकाशित हुआ है। इस ग्रन्थ में २५ परिच्छेद और २ परिशिष्टाध्याय हैं। इसमें रसायनिक महत्व की बातें हैं। कल्याणकारक में रसविषयक एक स्वतन्त्र अध्याय चतुर्विंश परिच्छेद "रसायन विध्यधिकार" नाम दिया गया है। इसमें रस-पारद के उपयोग का वर्णन किया गया है। इस ग्रन्थ की तीन विशेषताएँ हैं। (१) इसमें केवल ऐसे औषधियों का वर्णन है जो वनस्पति या खनिज जगत् या उसके संसाधन से प्राप्त हो सकता है। (२) इस ग्रन्थ के अन्तिम हिताहिताध्याय में जैन मत के अनुसार मद्य, मांस और मधु का उपयोग अनुचित बताया गया है। (३) इसका आयुर्वेदिक विवरण भी जैनेतर ग्रन्थों से भिन्न है। यद्यपि यह त्रिदोषों पर आधारित है।६ यह अकेला ग्रन्थ उग्रादित्याचार्य को अमरत्व प्रदान करता है।
६. गुणाकर (वि० सं० १२९६/ई०स० १२३९)- ये श्वेताम्बर मुनि थे। ये गुजरात विशेषतः सौराष्ट्र प्रान्त के निवासी थे। इन्होंने नागार्जुनकृत आश्चर्ययोगमाला पर गुजराती भाषा में अमृतरत्नावली नामक टीका रची थी जिसकी हस्तप्रति भण्डारकर रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पूना में संरक्षित है।
७. श्री अनन्तदेवसूरिकृत रसचिन्तामणि (१४ वीं-१५ वीं शती)- यह ग्रन्थ संवत् १९६७ में श्री वेंकटेश्वर प्रेस, बम्बई द्वारा प्रकाशित हुआ था। यह लगभग ९०० श्लोकों में है। टोडरानन्द के आयुर्वेद सांख्य में इसे उद्धृत किया गया है। इसकी दो हस्तलिखित प्रतियाँ भण्डारकर ओरियण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पूना में संरक्षित हैं।
८. माणिक्यचन्द्र (१४-१५ वीं शती)- इनके द्वारा रचित रसावतार नामक रस सम्बन्धी ग्रन्थ मिलता है। इसकी हस्तलिखित प्रति यादव जी त्रिक्रमजी आचार्य के पास थी। भण्डाकर ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पूना में भी यह ग्रन्थ संग्रहीत है।
९. मेरुतुंग- इन्होंने कंकालयोगी द्वारा रचित रसाध्याय पर वि०सं० १४४३ में टीका की रचना की।
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१०. हर्षकीर्तिसूरि (वि० सं० १६५७ ई०) कृत योगचिन्तामणि- इस महत्त्वपूर्ण चिकित्सा योग ग्रन्थ के रचयिता भिषग्वर जैनाचार्य श्री हर्षकीर्तिसूरि हैं। यह तपागच्छ की नागपुरीय (नागौरी) शाखा के आचार्य ‘चन्द्रकीर्तिसूरि' के शिष्य थे। हस्तलिखित प्रतियों में इसके योगचिन्तामणि के अतिरिक्त वैद्यकसारसंग्रह, वैद्यकसारोद्धार नाम भी मिलते हैं। कुछ हस्तलिखित प्रतियों में तीनों नाम एक साथ भी मिलते हैं।
“नागपुरीयतपोगणराज 'श्री हर्षकीर्ति संकलिते' 'वैद्यक सारोद्धारे' तृतीयो गुटिकाधिकारः।। इति श्री नागपुरीय तपागच्छीय 'श्री हर्षकीर्तिसूरि संकलिते योगचिन्तामणो वैद्यकसारसंग्रहे' गुटिकाधिकारः तृतीयः"।।३।।
(रा.प्रा.वि.प्र., उदयपुर, ग्रन्थांक १४६५, तृतीय अधिकार के अन्त की पुष्पिका)।
___ इस ग्रन्थ में प्राचीन पूर्व प्रचलित सिद्ध औषधयोगों का ही संग्रह किया गया है। इस ग्रन्थ में कल्पनाओं के नाम पर सात अध्याय हैं यथा- पाक, चूर्ण, गुटी, क्वाथ, घृत, तैल और मिश्र। योगचिन्तामणि पर तेलुगु भाषा में भी टीका उपलब्ध है।
११. समरथकृत रसमञ्जरी- समरथ द्वारा रचित ग्रन्थ रसमञ्जरी की एक प्रति श्री अमरचन्द नाहटा के निजी संग्रह में भी है। इस ग्रन्थ का रचनाकाल वि०सं० १७६७ है। यह रसविद्या सम्बन्धी ग्रन्थ है। इसका प्रकाशन वेकटेश्वर प्रेस, बम्बई से वि०सं० १९७८ में हुआ था।
१२. सोमप्रभाचार्यकृत रसप्रयोग- रसप्रयोग नाम के ग्रन्थ का उल्लेख श्री अम्बालाल शाह ने "जैन साहित्य का बृहद् इतिहास" भाग ५ में किया है। जिनरलकोश में भी यह ग्रन्थ उल्लिखित है।६ तालिका द्वारा जैन आचार्य, उनके काल एवं रचनाओं का दिग्दर्शन क्र.सं. जैन आचार्य काल
रचनाएँ १. पादलिप्तसूरि प्रथम-द्वितीय शती तरंगवती, ज्योतिषकरण्डक
प्रकीर्णक, निर्वाणकलिका,
प्रश्नप्रकाश। २. नागार्जुन दूसरी एवं तीसरी शती योगरत्नमाला, नागार्जुनीकल्प,
लौहशास्त्र, ४थी से ५वीं शती अष्टांगसंग्रह, पुष्पायुर्वेद,
सिद्धान्तरसायनकल्प।
समन्तभद्र
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४. पूज्यपाद ६ठीं शती
पूज्यपादीयकल्याणकारक, वैद्यामृत शालाक्यतन्त्र, मदनकामरत्नम्, रलाकरो
षधयोगग्रन्थ,समाधिशतक। ५.. उग्रादित्याचार्य ८वीं शती
कल्याणकारक गुणाकर वि०सं०१२३९ ई० अमृतरत्नावली
श्री अनन्तदेवसूरि १४-१५ वीं शती रसचिन्तामणि ८. माणिक्यचन्द्र १४-१५ वीं शती रसावतार ९. मेरुत्तुंग वि०सं० १४४३/ रसाध्यायटीका
ई०स० १३८९ १०. हर्षकीर्तिसूरि वि०सं० १६५७ • योगचिन्तामणि ११. समरथ वि०सं० १७६४ रसमञ्जरी १२. सोमप्रभाचार्य
रसप्रयोग उपरोक्त अध्ययन के आधार पर निष्कर्ष के रूप में हम कह सकते हैं कि रसशास्त्र के विकास में जैनाचार्यों ने भी अपना बहुमूल्य योगदान दिया।
सन्दर्भ : १. तेजसिंह गौड़, जैन आयुर्वेद साहित्य की परम्परा, पृ० १. २. डॉ० राजेन्द्र प्रकाश भटनागर, जैन आयुर्वेद का इतिहास, पृ० २२. ३. वही, पृ० ७२-७३. ४. वही, पृ० ४०-४१. ५. डॉ० नन्दलाल जैन, 'उग्रादित्याचार्य का रसायन के क्षेत्र में योगदान',
पृ० १८९; जैन साहित्य के आयाम, भाग ३, पं० दलसुखभाई मालवणिया
अभिनन्दन ग्रन्थ, वाराणसी १९९१ ई०, पृष्ठ १८४-९३. ६. जिनरलकोश, पृ० ३२९.
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भंवरलाल नाहटा
जिनवाणी द्रव्यानुयोग आदि चार भागों में विभक्त है, जिसमें जनसाधारण के लिए उपदेशादि द्वारा बोधदायक कथानुयोग का अधिकारिक प्रचार हुआ। हृदय स्पर्शी उदाहरणों द्वारा श्रोता के हृदय में तुरन्त असर होता है और जनता सदाचरण एवं धर्मध्यान की ओर विशेष प्रवृत्त हो जाती है। यही कारण है कि जैन विद्वानों ने हजारों-हजार कथाओं का संकलन किया है जिनके अन्त में आत्मा के सुख और कल्याण के लिए परमोपयोगी तत्त्व बतलाया गया है। प्रतिदिन के व्याख्यान में कठिन तत्त्वज्ञान का वितरण करने वाले गुरुजन भावनाधिकार में प्राय: कथा साहित्य के आश्रय द्वारा जनता को आकृष्ट करते हैं। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और मरु-गुर्जरी हिन्दी देश्य भाषा में गुफिंत प्रचुर साहित्य की उपलब्धि इसका प्रबल प्रमाण है। __अंचल गच्छ के विद्वान् साहित्यकार महाकवि श्री जयशेखर सूरि ने सं० १४६२ में धम्मिलकुमारचरित्र की ३५०३ श्लोकों में रचना की है। साध्वी श्री पुण्योदयाश्री जी की शिष्या साध्वीश्री मोक्षगुणा श्री जी महाराज ने महाकवि जयशेखर सूरि के साहित्य पर शोध हेतु विषय चुना और बम्बई विश्वविद्यालय के गुजराती विभागाध्यक्ष प्रो० रमणलाल चीमनलाल शाह के कुशल मार्गदर्शन में महानिबन्ध लिखकर प्रस्तुत किया। इस ग्रन्थ को दो भागों में आर्य जय कल्याण केन्द्र, बम्बई ने प्रकाशित किया है, जिसके प्रथम भाग में धम्मिलकुमारचरित्र का सार संक्षेप प्रकाशित है।
धम्मिलकुमारचरित्र की कथा परम्परा अति प्राचीन है। प्राकृत भाषा में धर्मदासगणि ने वसदेवहिण्डी में धम्मिलहिण्डी सविस्तार विक्रम की सातवीं शताब्दी में रची है। सं० १५९१ में सोमविमलसूरि ने मध्यकालीन गुजराती में धम्मिलरास की रचना की। सं० १७१५ में कवि ज्ञानसागर ने एक हजार से अधिक गाथाओं में तथा सं० १८९६ में कवि वीरविजय ने ३६०० कड़ी परिमित धम्मिलकुमाररास रचा है। जयशेखरसूरि ने, जो संस्कृत रचना की है, उसका मूल श्रोत अवश्य ही अति प्राचीन है और वह २५०० वर्ष प्राचीन सम्भवित है। कवि वीरविजय ने इसका सम्बन्ध भगवान् महावीर के उपदेशों से जोड़ा है। प्राकृत रचनाओं के बाद और जयशेखरसूरि के बीच एतद्विषयक रचनाएँ अवश्य हुई होंगी पर वे उपलब्ध नहीं हैं। यह कथा धम्मिल कुमार *. ४, जगमोहन मल्लिक लेन, कलकत्ता ७००००७. .
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के छ: मास पर्यन्त आयम्बिल की उग्र तपश्चर्या से प्रभावान्वित है। इस कथा में अनेक अवान्तर कथाएँ हैं जो परवर्ती लोक-कथाएँ सम्भावित हैं। उत्सर्ग-अपवाद और आसीनिरासी भाव का प्रणयन आदि सम्भवत: चैत्यवास की विचारधाराओं से प्रभावित हो।
जयशेखरसूरिजी ने अपनी प्रतिभा से काव्य में याप्रसंग अनेकश: उपमाएँ और उदाहरण युक्त उपदेशादि गुंफित श्लोक दिये हैं। साध्वी जी ने अपने महाप्रबन्ध में अर्थ सहित वे सब उद्धृत किये हैं।
इस चरित्र महाकाव्य की अवान्तर कथाओं में कुछ तो उल्लेख मात्र किया गया है। जैसे धर्मदत्त-सुरूपा कथा २ गोपाल कवि कथा ३ सोमिल द्विज कथा ४ शिव विप्र कथा, ५ विजयपाल नृप कथा, ६. गुणवर्मा कथा, ७ अगडदत्त मुनि कथा, ८. धनश्री कथा, ९. शीलवती कथा, १०. वसुदत्त कथा, ११. अरिदमन कथा में प्रसंगोपात उल्लेख है पर इनमें १. गुणवर्मा कथा (श्लोक) १०६३ से १६१३), २. धनश्री कथा (श्लोक २१६१ से २३१६), ३. शीलवती कथा (श्लोक २४९२ से २८०५) एवं वसुदत्त कथा का श्लोक २८८० से ३०३६ तक का पादटिप्पणी में उल्लेख है। - इस धम्मिलकुमारचरित्र की कथावस्तु में कथा-पात्रों आदि की ३४ तक की सूची विस्तृत है। यहाँ पू. साध्वीश्री मोक्षगुणाश्री जी के महाकवि जयशेखरसूरि, प्रथम भाग के छठे प्रकरण से धम्मिलचरित्र साभार प्रकाशित किया जा रहा है।
भरतक्षेत्र के मध्यभाग में समृद्धशाली कुशाग्रपुर नगर था। इस नगर के मन्दिर राजमहल से भी सुन्दर आदर्शमय थे। प्रजा धर्मिष्ट थी। राजा जितशत्रु प्रजा का न्यायपूर्वक पालन करने वाला निष्कलंक शासक था। प्रजावत्सल नरेश्वर की पटरानी धारिणी शील गुण सम्पन्न और अत्यन्त सुन्दरी थी। राजकुमार अमित्रदमन रूपवान् और गुणवान् तो था पर मन्दबुद्धि होने के कारण राजा से भी अधिक चिन्ता प्रजा को थी। प्रजा अपने भावी शासक के लिए अपने इष्टदेव से प्रार्थनारत रहती थी कि राजकुमार की बुद्धिमन्दता दूर होकर विलक्षणता प्राप्त हो।
इसी कुशाग्र नगर में धनकुबेर सेठ समुद्रदत्त निवास करता था जिसकी अति प्रिय पत्नी सुभद्रा एक आदर्श नारीरत्न थी जिससे श्री लक्ष्मी देवी ने भी अपनी चञ्चलता त्याग कर सेठ की हवेली में ही चिर निवास कर लिया था।
एकदा सौभाग्यवती सुभद्रा ने श्वेत हाथी पर बैठे हुए इन्द्र को स्वप्न में देखा। इन्द्र ने मधुरवाणी से उसे कहा सुभद्रा! तुम्हें अल्प समय में श्री और सुमतियुक्त पुत्ररत्न की प्राप्ति होगी। यह अमृत वाणी सुनते ही वह पति के पास गयी और स्वप्न का वृत्तान्त कहते हुए फल सम्बन्धी पृच्छा की। सेठ ने कहा अपने कुल के आभूषणस्वरूप पुत्र की तुम्हें प्राप्ति होगी। सुभद्रा ने गर्भ धारण किया और समयपूर्ण होने पर सूर्य के समान तेजस्वी पुत्र उत्पन्न हुआ, सभी लोग आनन्दित हुए।
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बालक की नाभिनाल छेदकर उसे गाड़ने के लिए गड्डा खोदा गया तो उसमें धन का भण्डार प्रकट हुआ। अपार हर्षपूर्वक सेठ ने खोलकर देखा तो उसमें एक मणि की भी प्राप्ति हुई जिसके लिए परची में लिखा हुआ था कि इस मणि स्पृष्ट पानी को पीने वाला पशु की भाँति जड़बुद्धि मनुष्य भी विद्या प्राप्त कर पण्डितों से भी पूजनीय बन जाता है। सेठ ने प्राप्त सारे धन को पुत्र जन्मोत्सव में व्यय कर दिया।
सेठ समुद्रदत्त को धन भण्डार और मणि की प्राप्ति से इन्द्र के वचनों की दृढ़ प्रतीति हुई और पुत्र का नाम सुरेन्द्रदत्त रखा। पाँच धायों द्वारा धूमधाम से पालन-पोषण होते द्वितीया के चन्द्र की भाँति बड़ा होने लगा। कला के सागर विश्वभूति आचार्य के पास उसे विद्याभ्यास करने भेजा गया। मणि पवित्रित जलपान के प्रभाव से वह तीक्ष्णबुद्धि ज्ञानी होकर शास्त्र समुद्र से पारंगत हो गया।
अमित्रदमन राजकुमार भी सुरेन्द्रदत्त के साथ पढ़ता था। उसी नगर में गुणवान् सेठ सागर निवास करते थे, जिनकी स्त्री का नाम सत्यभामा था। उनकी पुत्री सुभद्रा भी राजकुमार और श्रेष्ठिपुत्र सुरेन्द्रदत्त के साथ ही पढ़ती थी। जिस प्रकार तीव्रगति वाले के साथ चलने वाला मनुष्य पीछे रह जाता है उसी प्रकार राजकुमार पढ़ाई में पीछे रह गया। इसी प्रकार अन्य विद्यार्थी भी पढ़ते थे। एक दिन आचार्य विश्वभूति ने विद्यार्थियों की परीक्षार्थ कहा- बुद्धिमान विद्यार्थियों! जो राजा को दोनों पैरों से लात मारे उसे क्या दण्ड मिले? विद्यार्थियों ने कहा मृत्युदण्ड दिया जाना चाहिए अथवा उसके पैर काटे जाएँ। यह सुनकर सुरेन्द्रदत्त ने कहा जो राजा को पैर से मारता है वह आदरणीय है!
इस उत्तर के आशय से अनभिज्ञ सभी विद्यार्थी कोलाहल करने लगे। सुरेन्द्रदत्त ने कहा राजा जब अपने बालक को खोले में या गोद में खेलाता है और वह लात मारे तो राजा के प्राणप्रिय पुत्र को कौन मार सकता है? वह तो आदर ही पावेगा। __सुरेन्द्रदत्त का बुद्धि कौशल्य देखकर अध्यापक अपने श्रम को सफल मानने लगा। सभी विद्यार्थियों का मस्तक नीचा हो गया। सुरेन्द्रदत्त गुरु का बहुमान करता था, अत: गुरुजी ने उसके भावी कल्याण हेतु इष्टदेव की पूजा करने का विचार किया। उन्होंने शिष्यों को आज्ञा दी कि बुद्धिशालियों! तुम लोग पूजा हेतु स्वर्णाभ कमल की माला लाओ।
अन्य शिष्य उत्तम पुष्प लाए जिनसे पण्डित जी पूजा करने लगे। मन्दबुद्धि राजकुमार घर से सुनहरी कान्तिवाली पद्ममाला नामक दासी को ले आया। पूजन के समय अमङ्गलकारी दासी का आगमन देखकर सोचा, मैंने सुरेन्द्रदत्त के कल्याण हेतु पूजन का आयोजन किया किन्तु यह जड़बुद्धि दासी को ले आया जिससे लगता है कि वह पहले कुबेर जैसा धनवान् होकर नीच स्त्री के संग से आपदाग्रस्त होगा।
फिर से पण्डित ने स्नान किया। विद्यार्थियों तथा सुभद्रा से विशेष हास्यपात्र हुआ
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राजकुमार लज्जावश एकदम कुम्हला गया और विचारने लगा मैंने ऐसा क्या पाप कर्म किया था जिससे मैं अज्ञानी हुआ। हे भाग्य! मेरे हृदय के दो टुकड़े कर दो जिससे मूर्खता का कांटा सूख जाय! हे सरस्वती माता! मैंने ब्रह्महत्या, बालहत्या अथवा नीच की संगत भी की नहीं, फिर तुम मेरे से दूर क्यों रहती हो?
इस प्रकार राजकुमार को चिन्तामग्न देखकर सुरेन्द्रदत्त ने कृपापूर्वक कहा- मित्र! खेद मत करो, अब तुम्हारे पश्चाताप से सरस्वती तुम्हारे पास आना चाहती हैं। ज्ञानवरणीय कर्म का भी तुम्हारे आत्मनिन्दा से क्षय हो रहा है। उसने मणि को प्रक्षालित कर राजकुमार को पिलाया जिससे उसका हृदय पुनर्जन्म की भाँति परिवर्तित हो गया और उसमें विवेक पूर्वक बुद्धि प्रादुर्भूत हो गई।
राजकुमार ने सुरेन्द्रदत्त का उपकार माना और आलिंगनपूर्वक मन में विचार किया, मैं राजा होऊँगा, तब इसे नगर सेठ का पद दूंगा। दोनों साथ-साथ अभ्यास करते जिससे उनकी मित्रता दृढ़ हो गई। अध्ययन पूर्ण होने पर सब अपने-अपने घर गये। सुभद्रा भी पढ़ाई पूर्व कर युवावस्था को प्राप्त हुई। . सागर सेठ सुभद्रा को वयस्क हुई देखकर वर के लिए चिन्ता करने लगा। सुभद्रा ने कहा पिता जी आप चिन्ता क्यों करते हैं, मैं स्वयं समय आने पर योग्य वर शोध दूंगी।
एक बार वसन्त ऋतु में सभी नागरिक उपवन में गये। सुरेन्द्रदत्त भी मित्रों के साथ क्रीड़ा करने बगीचे में गया। सागर सेठ की पुत्री सुभद्रा भी सखियों के साथ गई हुई थी। सखियों ने कहा सुभद्रा! तुमने पिता को विवाह के लिए अस्वीकृति क्यों दी? उसने कहा-योग्यायोग्य का विचार कर ही निर्णय लूँगी। जो मेरे चार प्रश्नों का सन्तोषजनक उत्तर देगा उसी से विवाह करूँगी। अत:
सुकृतस्यात्र किं सारं, किं सारं नर जन्मनः ।
विद्याया शापि किं सारं, किं सारं शर्मणा पुनः।। (इस जगत् में पुण्य का सार क्या है? मनुष्य जन्म का सार क्या है? विद्या का सार क्या है? और सुख का सार क्या है?)
सभद्रा और सखियों की इस चर्चा को वृक्ष की ओट में घूमते हए खड़े सुरेन्द्रदत्त ने सुन लिया। उसने तुरन्त चारों प्रश्नों के उत्तरस्वरूप निम्न श्लोक लिखकर सुभद्रा की जाते समय नजर पड़ जाय, ऐसे वृक्ष पर टांग दिया। सुभद्रा ने जाते हुए उस पत्र को देखकर पढ़ा, उसके प्रश्नों के उत्तर सुरेन्द्रदत्त ने इस प्रकार लिखा था।
सुकृतस्य कृपा सारं, सत्कर्म नर जन्मनः विद्या वास्तत्त्वधीः सारं संतोष शर्मणा पुनः
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(पुण्य का सार दया है, मनुष्य जन्म का सार सत्कार्य है, विद्या का सार तत्त्व बुद्धि है तथा सुख का सार सन्तोष है।) ।
इस प्रकार अपने पत्रों का समाधान पाकर ध्यानपूर्वक देखने पर सुभद्रा ने सहपाठी सुरेन्द्रदत्त के अक्षरों को पहचान लिया, फिर सोचने लगी वह गुण का निधान और सौन्दर्य में कामदेव सदृश है, मुझे पसन्द करेगा कि नहीं? क्यों मैं परीक्षा करके वर पसन्द कर निर्णय करना चाहती थी, वह भी वैसे ही परीक्षापूर्णक निर्णय करना चाहता हो? __मैं तो मन्द बुद्धि हूँ, उनके प्रश्नों का उत्तर मैं कैसे दे पाऊँगी? वियोग दग्ध हो वह नगर में आते ही जिन मन्दिर में गई और भक्तिपूर्वक गद्-गद् होकर प्रार्थना की। उसने विचार किया अधिष्ठाता देव कृपा करें ताकि मैं स्वामी के प्रश्नों का सन्तोषजनक उत्तर दे सकूँ। वह वहाँ से घर चली गई।
सखियों द्वारा पिता सागरदत्त ने सुभद्रा का सुरेन्द्रदत्त के साथ विवाह का संकल्प ज्ञात कर सेठ समुद्रदत्त से कहलाया। सागरदत्त ने स्वीकार किया, किन्तु सुरेन्द्रदत्त ने कहा- आप धर्मदत्त (१) का दृष्टान्त सुनिये, बुद्धिमान् व्यक्ति परीक्षा किये बिना कन्या स्वीकार नहीं करते। उसने चार प्रश्न निम्न श्लोक में लिखकर दिए ताकि कन्या की परीक्षा हो जाय, मैं उत्तर देने वाली को ही स्वीकार करूँगा।
निश्चल: स्नेहलः कोऽत्र कः प्रकाशो निरन्तरः
को वा सर्वोत्तमो लाभः, किं च रूप भविस्वसं (निश्चल स्नेही कौन? निरन्तर प्रकाश कौन सा? सर्वोत्तम लाभ क्या? अविनश्वर रूप कौन सा है?
ये श्लोक सागर सेठ को भेजे गए। सुभद्रा ने अधिष्टायक देवों की सानिध्यता से तुरन्त प्रश्नों के उत्तरस्वरूप श्लोक लिख दिया
निश्चल स्नेहलो धर्मः चित्प्रकाशो निरन्तरः
विद्या सर्वोत्तमो लाभः शीलं रूप भविस्वसः (निश्चल स्नेह वाला धर्म है, निरन्तर प्रकाश वाला ज्ञान है, विद्या सबसे उत्तम लाभ और शील अविनश्वर रूप है।)
सुभद्रा से लेकर पिता ने वह श्लोक सुरेन्द्रदत्त को भेज दिया, उसे प्रश्नों का समाधान पाकर सन्तोष हो गया। उत्तम मुहूर्त में उनका परस्पर विवाह सम्बन्ध हो गया।
दोनों पति-पत्नी सम स्वभावी होने से सुखपूर्वक काल निर्गमन करने लगे। सुभद्रा ने नित्य जिन दर्शन करने का नियम लिया हुआ था, वह भी सुख में इतनी भूल गई कि घर रखी हुई जिन प्रतिमा को वन्दन करना भी उसे भी विस्मृत हो गया।
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अब सुरेन्द्रदत्त के गृह भार वहन करने में समर्थ हो जाने से उसे सब कुछ सौंप कर सेठ समद्रदत्त ने मोक्ष लक्ष्मी, प्राप्त्यर्थ गुरु महाराज के पास भागवती दीक्षा लेकर तपश्चरण करते हुए समाधिपूर्वक स्वर्ग प्राप्त किया।
__ इधर अमित्रदमन राजकुमार ने भी इन्द्र की भाँति पराक्रमी होकर पिताश्री की मृत्यु के बाद राज्य भार संभाला और अपने मित्र सुरेन्द्रदत्त को नगर सेठ का पद दिया। सुभद्रा द्वारा धर्म कार्य विस्मृत हो जाने से अधिष्ठाता देवों ने उसे शिक्षा देने के लिए उसकी गर्भोत्पत्ति रोक दी।
__एक दिन सुभद्रा आँगन में बैठी थी तो उसने गली साफ करने वाली स्त्री जिसके तीन-चार बालक थे, जिन्हें देखकर अपने बन्ध्यत्व पर चिन्तित होकर स्वयं को निर्भागी अनुभव करने लगी। विचारों में अपनी हीनता की भावधारा से मुख म्लान देखकर उसकी उदासीनता का कारण ज्ञात कर सुरेन्द्रदत्त ने ज्ञानी वैद्यों से औषध, तन्त्र-मन्त्रादि सारे उपाय किए। इतने ही में युगन्धर नामक ज्ञानी मुनिराज पधारे। उन्हें वन्दन कर धर्मोपदेश श्रवण कर जनता के चले जाने पर सुरेन्द्रदत्त ने अपनी प्रिया के साथ रथारूढ़ जाकर वन्दन किया और अपनी समस्या कही। मुनिराज ने आरम्भ-समारम्भ, सावध व्यापार की बात में दिलचस्पी न लेकर धर्म-ध्यान, जिनपूजा, दान-शील सम्बन्धी उपदेश दिया। सुभद्रा को अपने जिनदर्शन व धर्मकृत्यों का नियम भंग कर अवज्ञा की हुई याद आने पर उसे ही बंध्यत्व का कारण समझ कर गुरुवन्दन कर सीधी मन्दिर गई और पूजा पाठ कर अधिष्ठाता देवों से क्षमा याचना की। सुरेन्द्रदत्त भी धर्मराधना में लीन हो गया।
और अढ़ाई महोत्सव आदि करने लगा। अधिष्ठाता भी इन्हें धर्मध्यान में संलग्न देख प्रसन्न हो गए। सुभद्रा ने गर्भधारण किया, यथासमय पुत्र जन्म होने पर उत्सव कर उसका सार्थक नाम “धम्मिल'' रखा।
धम्मिल कुमार पाँच धायों से पाला जाकर कलाचार्य के पास अल्प समय में सर्वकलाओं में निष्णात हो गया। गुरु भगवन्तों के पास धर्मशास्त्र का भी पर्याप्त अभ्यास कर सूक्ष्म विचारों में प्रवीण हो गया। सुरेन्द्रदत्त उसके विवाह के योग्य होने से विचार करने लगा। पिता को योग्य कन्या की शोध में देखकर धम्मिल ने गोपालकवि (२) का दृष्टान्त देकर विवाह करने की अनिच्छा बतलाई। पिता के आग्रह से उसी नगर के दानवीर सेठ धनवसु की पत्नी धनदत्ता की पुत्री यशोमती के साथ विवाह सम्पन्न हुआ। वह विषय सुख को विष सदृश मानने लगा।
उसे विरक्त ज्ञात कर यशोमती ने अपनी माता के समक्ष उपेक्षित होने की बात की। माता ने उसे आस्वस्त कर सुभद्रा सेठाणी से पुत्री का दुःख कहा। सुभद्रा ने अपनी पति को उपालम्भ देते हुए तरुण धम्मिल के बालक की भाँति विद्याध्ययन में संलग्नता और गृहस्थ सम्बन्धी आचार-विचार विमुखता दूर करने के लिए प्रेरित किया। सुरेन्द्रदत्त
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ने कहा-कुमार्ग में पड़ जाने से लड़का हाथ से निकल जायेगा, किन्तु सुभद्रा के आग्रह से उसने व्यभिचारी पुरुषों को बुलाकर कहा कि मैं तुम्हें धन देता रहूँगा, तुम मेरे पुत्र को कामचेष्टा में आसक्त एवं प्रवीण बनाओ।
इस प्रकार कुसंग के प्रभाव से धम्मिल भी दुराचरण करने लगा क्योंकि ऊँचा चढ़ना कठिन है, किन्तु नीचे गिरना सहज है। जिस प्रकार महल बनाना श्रमसाध्य है किन्तु उसे गिराने में कोई कठिनाई नहीं। उसी नगर में वसन्ततिलका वेश्या रहती थी जिसके राजसभा में आयोजित नृत्य में मण्डली के साथ धम्मिल भी गया और उसके प्रति आकष्ट हो उसने उसके घर जाकर प्रथम मिलन में ही वहीं स्थायी निवास बना लिया। मित्रों ने सुभद्रा सेठाणी से बात कर उसे सन्तुष्ट कर दिया। सेठ इसका दुष्परिणाम समझते थे पर दुष्ट मित्रों को धन देकर रवाना कर दिया।
वेश्या को मुँह माँगा धन मिलने लगा। उसने धम्मिल को स्नान, भोजन आदि भक्ति से इतना प्रसन कर दिया कि वह रात-दिन वहीं पड़ा रहने लगा और माता-पिता, बन्धु-बान्धव सबको भुला दिया। इस प्रकार लम्बा समय बीत जाने पर सुभद्रा ने सुरेन्द्रदत्त को कहा कि आदमी भेजकर धम्मिल को बुलाओ? अन्यथा उसका मुख देखे बिना मेरे प्राण निकल जाएँगे। सेठ ने नौकरों भेजा और घर आने के लिए आग्रह किया। उसने कहा, मैं वहाँ नहीं आ सकता यहाँ बैठे ही माता-पिता को नमस्कार करता हूँ। नौकरों के निराश लौटने पर सुभद्रा रोने लगी। सुरेन्द्रदत्त ने कहा जो मनुष्य दीर्घ दृष्टि से सोचे बिना काम करते हैं उन्हें सोमिल ब्राह्मण (३) की भाँति पश्चाताप ही करना पड़ता है। “आप कमाया कामण केनै दीजै दोष" अब तो धर्मध्यान का आश्रय लो जिससे भविष्य सुधरे, सुभद्रा ने कहा प्रियतम आपका कहना सत्य है किन्तु भाग्य ही मनुष्य को मूर्ख बना देता है। इसके लिये शिव ब्राह्मण (४) का दृष्टान्त विचारणीय है। कर्म की विपरीतता से मनुष्य की बुद्धि बिगड़ जाती है।
दम्पति परस्पर दुःख के दिन कथोपकथन से निर्गमन करने लगे। उनके नेत्र आँसुओं से भीगे रहते। धम्मिल-धम्मिल करते उनके प्राण निकल गए। सास-ससुर के मरणोपरान्त अन्य पारिवारिक जन भी चले गए तो यशोमती अपने गृहगुफा में सिंहनी की भाँति अकेली रहने लगी। मात-पितारूपी सूर्यास्त हो जाने से रस लोलुप भ्रमर जैसे कमलिनी को नहीं छोड़ता, उसी प्रकार धम्मिल ने वसन्ततिलका को नहीं छोड़ा। उसके बारह वर्ष वेश्या गृह में बीत गए। धीरे-धीरे सारा धन समाप्त हो गया। जब अक्का ने धन लेने के लिए दासी को भेजा तो उसने यशोमती के पास जाकर कहा धम्मिल ने धन मंगाया है। पति के नाम से हर्षित होकर यशोमती ने अपने बचे-खुचे आभूषण दे दिये। पति-वियोग में वह आभूषणों का क्या करती।
दासी ने जब अक्का को आभूषण दिए तो उसने यशोमती जैसी सती स्त्री की
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महानता और विपन्नता अनुभव कर आभूषणों को एक हजार आठ स्वर्ण मुद्राओं के साथ दासी के हाथ यशोमती को वापस भेज दिया। यशोमति निराधार अकेली कहाँ तक घर में रहती, उसने घर बेचकर पितृगृह में जाकर आश्रय लिया।
अब श्रेष्ठीपुत्र धम्मिल को निर्धन ज्ञात कर अक्का ने उसका त्याग कर देने के लिए वसन्ततिलका से कहा । वह उसे सच्ची प्रीति के कारण छोड़ने को तैयार नहीं हुई। एक दिन अक्का ने मौका पाकर धम्मिल को एवं सबको खूब मद्यपान करा के दासियों द्वारा उसे सन्ध्या समय नगर के बाहर फेंकवा दिया। प्रातःकाल अपने को धूल
लोटते हुए पाक जागृत दशा में विपन्न होने पर वेश्या संग को सर्वदा के लिए त्यागने में अक्का को अपना गुरु मानता हुआ अपने घर गया। माता-पिता की मृत्यु, हवेली का बिक्री हो जाना व यशोमती के पीहर चले जाना सुनकर खेदपूर्वक नगर के बाहर जाकर आत्मघात करने के लिए एक वन में चला गया। वन देवता ने खङ्गधार को केलपत्र सदृश कोमल कर दी। जब वह जीवन से तंग आकर अग्नि प्रवेश करने लगा तो उसे भी देवता ने शीतल कर दिया। मरणोपाय व्यर्थ होने से दिग्मूढ़ धम्मिल ने आकाशवाणी सुनी “जीवन्नरो भद्राणि पश्यति" और वह वन से लौट आया।
इधर वसन्ततिलका भी धुम्मिल को न देखकर दुःखी होने लगी। उसने नियम ले लिया कि जब तक धम्मिल को नहीं देखूँगी. ताम्बूल भक्षण, आभूषण धारण और शृङ्गार नहीं करूँगी। इस प्रकार वियोगिनी अपने दुःख के दिन बिताने लगी।
धम्मिलकुमार वन से निकल कर द्राक्षा मण्डप वाले बगीचे में गया। वहाँ गुण समूह के रोहणाचल सदृश तेजस्वी मुनि महाराज को देखा। उनके दर्शनों से उसकी पराभव व्यथा शान्त हो गई। मुनिश्री ने धर्मरत्न का पुष्टकारी उपदेश देते हुए गुणवर्मा (५) का दृष्टान्त सुनाया । धम्मिलकुमार ने कहा कि भगवन् मैने भी विषयेच्छा के कारण बहुत दुःख पाया है। मुनिश्री के पूछने पर उसने कहा- जिसने दुःख नहीं देखा वह पराये दुःख से कैसे दुःखी होगा और कैसे दुःख हरण करेगा? अतः कहने से क्या लाभ? मुनिश्री ने कहा -- मैंने दुःख भोगा है और दुःख हरण करने में समर्थ भी हूँ, अतः अपना दुःख प्रकट करो! धम्मिल ने वेश्या से पराभव प्राप्त अपना जीवनवृत्त सुनाया। मुनिराज ने भी अपने जीवन में प्राप्त कष्टों का वृतान्त कहते हुए बतलाया कि इस अगड़दत्त को मुझे ही समझना । सुख की आशा से स्त्रियों को स्वीकार करना भ्रान्ति, मोह, मूर्खता और कदाग्रहरूप है । मैंने इस प्रकार के अनेक कष्ट सहे अतः तुम भी स्त्रियों के पराभव से प्राप्त कष्टों से बचने के लिए धैर्यवान् बनना ।
मुनिराज से स्त्रियों के दोष सुनकर भी दुःखी धम्मिल भोगेच्छा क्षीण न होने से कहने लगा कि सभी स्त्रियाँ क्या एक सी ही होती हैं। मुनिराज ने कहा- स्त्रियाँ रत्नों की खान भी हैं जिनकी कोख से तीर्थङ्कर, चक्रवर्ती आदि उत्पन्न होते हैं वे निन्दापात्र
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नहीं हो सकतीं। उसने सती धनश्री (६) की कथा कह कर निवेदन किया मुझे भोगेच्छा समाप्त न होने से संसार के सुख फिर से मिले, ऐसा उपाय बतलावें। मुनिश्री अगड़दत्त ने छ: महीनों तक आयंबिल तप पूर्वक धर्माराधना करने का उपदेश दिया जिससे मनोवांछित लक्ष्मी की प्राप्ति हो।
धम्मिल द्रव्य मुनिवेष धारण कर भ्रमण करता हुआ किसी अपरिचित नगर में गया और एक मन्दिर में रहा। वह आयंबिल तप करता और जल के साथ मुट्ठी भर अन्न से अपना गुजारा करते हुए परीषह सहन करता हुआ प्राय: मौनपूर्वक अपना आचार-विचार पालन करने लगा।
इस प्रकार छ: मास पूर्ण किए। एक दिन दिव्य वाणी सुनी, “धम्मिल: तुम मनुष्य भव में भी देवों जैसा सुख भोग करोगे और तुम्हें विद्याधरादि की ३२ स्त्रियाँ प्राप्त होगी।" इस प्रकार दिव्य वाणी सुनकर चित्त मन्दिर में बैठे हुए रात्रि के अन्धकार में उसे किसी तापसी ने द्वार के पास आकर पुकारा, “यहाँ धम्मिलकुमार है?" उसने साश्चर्य उत्तर दिया हाँ, है, उस स्त्री ने कहा-आओ! इस रथ में बैठो, हमें चम्पापुरी जाना है। वह क्षणभर विचार कर मुनिवेश त्यागकर रथारूढ़ हो गया। वहाँ पहले से एक राजकन्या बैठी थी, तापसी भी बैठ गई। अन्धकार तो था ही एक दूसरे को न देख सके। प्रभात होते ही नदी किनारे रथ ठहरा, धम्मिल घोड़ों को पानी पिलाने ले गया। राजकन्या ने उसे देखते ही विस्मित होकर सोचा यह दुर्बल और दरिद्र श्यामवर्ण वाला पुरुष लगता है! उसके दुःखित उद्गार सुनकर भी धम्मिल ने घोड़ों को पानी पिला कर रथ को जोड़ा। राजकन्या के तिरस्कार करने पर भी धायमाता ने उसे शान्त किया। आगे चलते भोजन का समय होने पर धम्मिल ने रथ को रोककर कहा- आप लोग ठहरें, मैं गाँव में जाकर भोजन सामग्री ले आता हूँ।
गाँव में जाकर धम्मिल ने देखा, गाँव के अधिपति ठाकुर का घोड़ा वेदनाग्रस्त हो दुःख पा रहा है, उसने उपचार करके उसे स्वस्थ कर दिया। ठाकुर साहब ने प्रसन्न होकर धम्मिल को उतरने के लिए अपना मकान दे दिया। धम्मिल दोनों स्त्रियों को बुला लाया और तीनों भोजन कर विश्राम करने लगे। राजकन्या के निद्राधीन होने पर धम्मिल ने एकान्त में तापसी से राजकन्या का वृतान्त पूछा। उसने कहा यह कमला नामक राजकन्या मागधपुर के राजा अरिदमन की पुत्री है, मैं इसकी धायमाता हूँ। यह कमलाकुमारी पुरुषद्वेषिणी है, फिर भी एक दिन किसी पुरुष पर यह आसक्त हो गई, उसका नाम धम्मिल था। उसके साथ रात्रि में भूतघर (मठ) में आने का संकेत किया था, वह नहीं आया, तुम आ गए। कमला तुम्हारे से बिलकुल प्रेम नहीं अपितु द्वेष करती है।
धाय माता के परिचय पूछने पर उसने कहा, “मैं कुशाग्रपुर के सेठ सुरेन्द्रदत्त
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का पुत्र धम्मिल हूँ। तुम कमला को मेरे प्रति रागवती बनाने की कृपा करो !” धायमाता ने अनुकूलता के प्रयत्न करने की स्वीकृति दी ।
दूसरे दिन प्रातः काल ठाकुर से आज्ञा प्राप्त कर इन्होंने चम्पानगरी को प्रयाण किया। मार्ग में धम्मिल ने हाथी, चोर आदि को पराजित कर अपना पराक्रम बतलाया । धायमाता ने कमला से कहा, "ये पराक्रम से महान् कुलवान मालूम देता है अत: तुम इस धम्मिल को ही स्वीकार करो। स्त्रियों को अविवाहित नहीं रहना चाहिये ! " कमला ने कहा, "सती स्त्री यदि अपरिणीत हो तो भी उसे कोई भय नहीं रहता। अकेली महासती शीलवती ने राजा, मन्त्री आदि को हरा दिया था।" फिर उसने शीलवती की कथा कही ।
चम्पापुरी के निकट पहुँचने पर सामने आते बहुत से मनुष्यों को देखकर धम्मिल सोचने लगा- ये लोग कौन होंगे? इतने में ही एक व्यक्ति ने आकर कहा- आपके द्वारा मारा गया चोर अर्जुन हमारे पल्लीपति अजितसेन का शत्रु था । इसलिए हमारे स्वामी आप पर प्रसन्न हो कर आपसे मिलना चाहते हैं । धम्मिल पल्लीपति से मिला, उसने पल्ली में ले जाकर उसका बड़ा सत्कार किया।
कुछ दिन रहकर ये लोग चम्पापुरी की ओर चले। चम्पापुरी के बाहर रथ को रखकर रहने के लिए स्थान देखने धम्मिल शहर की ओर चला। मार्ग में चन्द्रा नदी में स्नान करने के लिए प्रविष्ट हुआ और कमल पत्रों पर अपने नख द्वारा कलापूर्ण आकृति बनाकर नहाते हुए नदी में बहाने लगा। आगे वाले घाट पर चम्पानरेश कपिल का राजकुमार मित्र परिवार सहित नहा रहा था। उसने कमल पत्रों पर बहकर आई कलाकृतियाँ देखकर सोचा अवश्य ही यहाँ कोई महान् कलाकार व्यक्ति होना चाहिये । उसने कला से मुग्ध होकर कलाकार (धम्मिल) को बुलाने के लिए अपने अनुचरों को भेजा। जब धम्मल आकर राजकुमार से मिला तो उनमें परस्पर मित्रता स्थापित हो गई।
फिर राजकुमार सुन्दर हाथी पर बैठ कर धम्मिल के साथ कमला कुमारी के रथ के पास आया और उनका धूमधाम से नगर प्रवेश करा के एक सुन्दर विशाल महल में उन्हें उतारा। वहाँ खान-पान की पर्याप्त सामग्री भेजकर निवास की सुन्दर व्यवस्था कर दी। राजकुमार प्रतिदिन धम्मिल के साथ घूमने जाता और उसके कला-कौशल व चतुराई से वह सन्तुष्ट हो गया ।
एक दिन किसी मित्र ने राजकुमार से कहा- तुम्हारे मित्र धम्मिल के साथ रहने वाली कमलाकुमारी उसकी पत्नी तो नहीं लगती। क्योंकि उनका व्यवहार पार्थक्य प्रतिभासित होता है । अतः राजकुमार ने इस बात की प्रतीति करने के लिए दूसरे दिन प्रातः काल सब मित्रों को बगीचे में आयोजित गोठ में सपत्नीक आने का आदेश दिया। धम्मल ने धायमाता से सारी बात बतलाकर चिन्तातुर हो कहीं चले जाने का कहा क्योंकि कमला मुझसे द्वेष रखती है और साथ न चलने से मुझे मित्रों में हास्यास्पद बनना होगा।
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धायमाता ने राजकुमारी को बहुत समझा कर कहा कि तुम धम्मिल कुमार के साथ बगीचे में अवश्य जाओ। उदाहरण के तौर पर उसने स्वच्छन्दता से दुःखी होने वाली वसुदत्त की वार्ता कही। फिर राजा लोग भी हित वचन न मानने से अरिदमन राजा की भाँति कष्ट पाते हैं। राजकुमारी कमला ने धायमाता ने वचन स्वीकार किया तो उसी रात्रि में कमला का धम्मिल के साथ गांधर्व विधि से पाणिग्रहण हो गया। उसे लेकर, प्रात:काल उद्यान में जाने से राजकुमार को प्रतीति हो गई कि कमला धम्मिल की पत्नी है। सन्ध्या समय विविध क्रीड़ाएँ कर वे उद्यान से वापस घर आ गये और धम्मिल-कमला का वैवाहिक जीवन सुखपूर्वक व्यतीत होने लगा।
एक दिन कमला के साथ प्रेम कलह में धम्मिल के मुँह से निकल गया किवसन्ततिलका तुम अति कोपायमान न बनो। कमला ने यह सुनते ही क्रुद्ध होकर धम्मिल पर पाद प्रहार किया। उसने उसे मनाने की बहुत चेष्टा की आखिर कमला के शान्त न होने से वह घर से बाहर निकल पड़ा।
उसने राजमार्ग पर चलते-चलते किसी नाग देवता का मन्दिर देखा। वहाँ नगर के समृद्धिशाली सार्थवाह की तरुण पुत्री नागदत्ता नागदेव की पूजा करने आयी हुई थी। उसने पूजनोपरान्त प्रार्थना की कि मुझे अपने योग्य वर सम्प्राप्त हो। मूर्ति के पीछे छिपकर धम्मिल ने कहा “तुम्हारी इच्छा आज ही पूर्ण होगी" यह सुनकर प्रसत्रतापूर्वक नागदत्ता बाहर निकली, धम्मिल उसे दृष्टिगोचर हुआ। परस्पर वार्तालाप होते प्रीतिदृढ़ हो गई क्योंकि नागदेव के वरदान से विश्वस्तमन थी नागदत्ता। वह उसे रुकने को कहकर घर आई और माता-पिता को नागदेवता के वरदान से अवगत कराया। वे योग्य वर प्राप्ति से प्रसन्न हुए और धूमधाम से नागदत्ता का धम्मिल के साथ पाणिग्रहण करवा दिया। ___चम्पापुरी के राजा कपिल की पुत्री कपिला भी नागदत्ता की प्रिय सखी थी। वे दोनों एक पति से विवाहित होने को संकल्पित थीं। कपिला ने पिता को अवगत कराया। राजा ने इसके लिए स्वयंवर मण्डप की रचना कराई, धम्मिल भी आमन्त्रित किया गया था। कपिला ने उसे वरमाला पहनाई। दोनों का महोत्सवपूर्वक विवाह हुआ। राजा के दिए हुए महल में धम्मिल कपिला और नागदत्ता के साथ सुखपूर्वक रहने लगा।
इधर धम्मिल को तिरस्कत करने के पश्चात राजकमारी कमला अपने मन में अपार खेद खित्र होकर पश्चाताप करने लगी। कवि के वर्णनानुसार उसके ये उद्गार हैं
"अरे! मैंने अपने पति का अपमान करके अमृत कुम्भ को फोड़ दिया, कल्पवृक्ष को जला दिया, चिन्तामणि रत्न को चूर-चूर कर दिया।"
धम्मिल भी उसे स्मरण किया करता था। एक दिन वह गजारुढ़ होकर नगर में घूमने निकला और कमला के गृहद्वार पर आकर हाथी को खड़ा किया। कमला ने नीचे
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आकर पति को बधाया । धम्मिल ने उसे क्षमा करके हाथी पर बैठाकर राजा से प्राप्त महल में ले आया। इस प्रकार धम्मिल अपनी तीन स्त्रियों के साथ आनन्दपूर्वक रहने
लगा।
एक दिन राजा को किसी ने वक्रगति वाला अश्व भेंट किया। राजा की आज्ञा धम्मल उस अश्व पर आरूढ़ होकर घूमने निकला। उसने नगर के बाहर जाकर उसे रोकने के लिए लगाम खींचा। किन्तु वह पवन वेग से दौड़ता हुआ निर्जन जंगल में ले आया और थककर नदी तट पर रुक कर खड़ा हो गया । धम्मिल घोड़े से उतरकर सुन्दर भूमि पर घूमने लगा। उसने एक वृक्ष पर लटकती हुई हीरों से जड़ी हुई मूठवाली सुन्दर तलवार देखी। उसने साश्चर्य सोचा यहाँ तलवार कहाँ से आई। उसे हाथ में लेकर धार की परीक्षा हेतु वंशजाल पर चलाई । उस झाड़ी में स्थित विद्या साधक का मस्तक धड़ से अलग होकर जा गिरा। यह ज्ञातकर धम्मिल को अपार पश्चाताप हुआ । धम्मिल उसके किसी सम्बन्धी की खोज में इधर-उधर देखने लगा तो एक अप्सरा की भाँति कमलमुखी चित्रसेना नामक विद्याधरी को देखा, धम्मिल ने उसके पास जाकर प्रेम पूर्वक पूछा- हे देवी! आप कौन हो और यहाँ कहाँ से आयी हो ? उसने कहा वैताढ्य पर्वत पर शङ्खपुर के राजा पुरुषानन्द के विद्युन्मती और विद्युतलता नामक दो पुत्रियाँ और कामोन्मत्त नामक एक पुत्र है । एक दिन ज्ञानी भगवंत शंखपुर नगर में पधारे। धर्मदेशना श्रवणानंतर रानी ने पूछा कि प्रभो ! मेरी दोनों पुत्रियों का स्वामी कौन होगा, तो धर्मघोष नामक ज्ञानी भगवंत ने कहा जिसके हाथ से तुम्हारा पुत्र मारा जाएगा वही पुत्रियों का स्वामी होगा। वह कामोन्मत राजकुमार सोलह विद्याधर पुत्रियों का हरण करके लाया है और उसने अपनी दोनों बहिनों के साथ उन सोलह कन्याओं को एक मनोहर महल में रखा है। वह राजकुमार विद्या साधनार्थ इस जंगल में आया है, अब थोड़ी देर में उसे चन्द्रहास नामक खङ्ग सिद्ध होने वाला है।
यह सुनकर धम्मिलकुमार ने बतलाया कि वह कामोन्मत्त कुमार अपनी ही तलवार द्वारा मारा गया है। उस विद्याधरी ने कहा- आप यहीं खड़े रहें, मैं अपने स्थान में जाकर उसकी बहनों आदि सभी से बात करती हूँ । यदि सब राजी हुईं तो मैं आपको आने के लिए लाल रंग की ध्वजा ऊँची कर संकेत करूँगी और नाराज हुईं तो श्वेत ध्वजा बताऊँगी तो आप चले जाना। धम्मिल वहाँ खड़ा रहा, किन्तु थोड़ी देर बाद श्वेत ध्वजा देखकर वहाँ से चल निकला।
धम्मल वहाँ से चलता हुआ करबट नामक गाँव में आया। उस गाँव में चम्पानगर के राजा कपिलदेव का लघुभ्राता वसुदत्त राज्य करता था। उसका अपने भाई के साथ संघर्ष हुआ था। उसकी तरुण पुत्री पद्मावती कुष्टरोग से पीड़ित थी, अनेक उपचार करने पर भी रोग न मिटता था।
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धम्मिल ने उपचार करके पद्मावती का कुष्ट रोग मिटा दिया जिससे वसुदत्त राजा ने प्रसन्न होकर धम्मिल के साथ पद्मावती का पाणिग्रहण करा दिया। अब चम्पापति के साथ सुलह कराने के लिए धम्मिल चम्पानगर गया। कहते हैं कि प्रीति भंग कराने वाले तो बहुत होते है पर भग्न प्रीति को जोड़ने वाले जगत् में विरले ही होते हैं।
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धम्मिल चम्पानगर आया, उस समय दरबार का हाथी छूट जाने से लोगों में कोलाहल मचा हुआ था । श्रेष्ठी पुत्र सागरदत्त आठ कन्याओं के साथ विवाह करने जा रहा था, किन्तु उन्मत्त हुए हाथी को देखकर कन्याओं को छोड़कर वह पलायन कर गया। निराधार विह्वल कन्याएँ वहीं खड़ी थीं । धम्मिल कुमार ने अपनी कला कौशल्य से मदोन्मत्त हाथी को वशवर्ती कर कन्याओं को बचा लिया। उसने हाथी महावत को सौंपा और स्वयं राजसभा में आया। राजा ने अपने जमाता द्वारा हाथी वश में किया ज्ञातकर प्रसन्नतापूर्वक उसका सत्कार किया । धम्मिल अपनी तीनों स्त्रियों से मिला और अश्वहरण के बाद का सारा वृत्तान्त बतलाया। उन आठों कन्याओं ने सागरदत्त से विवाह करना अस्वीकार कर अपनी रक्षा करने वाले धम्मिल कुमार के साथ विवाह किया। धम्मिल ने चम्पापति और उसके भाई वसुदत्त राजा के साथ सुलह करा दी। वसुदत्त पद्मावती को धम्मल के पास चम्पापुरी भेज दिया।
एक दिन धम्मिलकुमार अपने महल में हिण्डोला खाट पर बैठा आराम कर रहा था। उस समय अकस्मात आकाश से एक विद्याधरी विद्युल्लता उतर कर आयी। उसने अपना परिचय देकर कहा— खङ्ग साधक को मार कर आप भाग क्यों आये ? धम्मिल ने कहा- श्वेत ध्वज का संकेत जो मिला। उसने कहा ओह ! संकेत देने में भूल हो गई थी। फिर धम्मिल की आज्ञा से अठारह विद्याधारियाँ अपने माता-पिता के साथ वहाँ आईं और धम्मिल के साथ उनका पाणिग्रहण हुआ । इसप्रकार कुल तीसों स्त्रियों के साथ धम्मिल चम्पानगर में आनन्दपूर्वक रहने लगा ।
एक दिन पारस्परिक वार्ता प्रसंग में विद्युन्मती ने कमला से पूछा बहिन ! अपने पति को लात मारने का क्या प्रयोजन था ? उसने कहा यदि इस पैर से पति को लात न मारती तो तुम सब ऐसे पतिदेव को कहाँ से प्राप्त करती। मेरा पैर तुम 'सबके लिए उपकारी है अतः इसकी पूजा करो। इन शब्दों द्वारा सबको विनोद वार्ता से आनन्दित कर दिया।
विद्युन्ती ने धम्मिल से कहा नाथ! अपन मात्र शरीर से जुदे हैं किन्तु हृदय से एक हैं। आपकी जिह्वा पर हमेशा किसका नाम रहता है वह वसन्ततिलका कौन है । धम्मिल ने वसन्ततिलका का वृतान्त कहा। यह सुनकर विद्युन्मती ने कहा, देव आप कृपया मुझे आज्ञा दें, मैं आकाश मार्ग से जाकर उसकी खोज खबर ले आऊँ । अनुमति पाकर वह शीघ्र जाकर उसके समाचार ले आई और धम्मिल से कहा
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“स्वामी! मैं पुरुष रूप में वसन्ततिलका के घर गई, वह मैले-कुचैले वस्त्रों में दयनीय हालत में एक कोने में पड़ी थी उसके मुख से केवल 'धम्मिल धम्मिल' नाम ही उच्चरित होता सुनाई देता था। मैंने उसके पास जाकर कुशल समाचार पूछे तो वह मुझे पुरुष वेश में देखकर मौन रही। जब मैने स्त्री रूप धारण किया और उसके पास जाकर कहा मुझे धम्मिल ने यहाँ भेजा है। यह सुनते ही वसन्ततिलका ने अत्यन्त हर्षित होकर बार-बार आपके समाचार पूछे। मैं उसकी दुःखदायी अवस्था ज्ञात कर आई हूँ। धम्मिल ने तत्काल कुशाग्रपुर जाने की तैयारी की। वह सपरिवार अपने नगर की ओर रवाना हो गया। धम्मिल क्रमश: कुशाग्रपुर पहुँचा और वसन्ततिलका के यहाँ अनभ्र वृष्टि की भाँति जाकर मिला। राजा अमित्रदमन ने उसका खूब सत्कार किया और धम्मिल को समृद्धिपूर्ण आवास समर्पित किया। लोगों में सर्वत्र धम्मिल की प्रशंसा हुई और सभी आत्मीय जन मिलने के लिए आए जिन्हें धम्मिल ने दान-मान से सन्तुष्ट किया। धम्मिल के श्वसुर ने यशोमती को लाकर समर्पित किया। अपने पिता की कुम्लाई कीर्तिवल्ली को दान रूपी जल वृष्टि द्वारा फिर से धम्मिल ने नवपल्लवित कर दी।
सांसारिक सुख भोगता हुआ धम्मिल आनन्दपूर्वक रहता था। एक दिन वसन्ततिलका ने उसके निकट बैठकर पछा स्वामिन! कल आप मेरे पास वेश बदलकर कैसे आये? धम्मिल यह सुनते ही चौंका और किसी रहस्य की बात के गुप्त उद्घाटन हेतु उसने कहा---- तुम्हारे मन को आनन्दित करने के लिए ऐसा किया गया था। उसने सोचा अवश्य ही कोई व्यक्ति अदृश्य विद्या से यहाँ आया है, जिसे पकड़ना चाहिये। धम्मिल ने महल की परिधि में सिन्दूर बिछा दिया और स्वयं छिपकर खड़ा रहा। उसने सिन्दूर पर किसी विद्याधर के पदचिह्न देखे और खङ्ग प्रहार द्वारा उसे मारकर जमीन में गाड़ दिया।
एक दिन धम्मिल अपने उद्यान में अशोक वृक्ष के नीचे बैठा था तो उसके पास मेघमाला नामक विद्याधरी आकाशमार्ग से आकर उतरी। उसने कहा-मेरा मेघजय नामक भ्राता तीन दिन पूर्व निकला था उसके न लौटने पर खोज में निकली और आपके द्वारा मारा गया ज्ञात कर क्रुद्ध होकर यहाँ आई, किन्तु आपको देखकर मेरा क्रोध शान्त हो गया क्योंकि मुझे प्रज्ञप्ति विद्या ने कहा था तुम्हारे भाई को मारने वाला ही तुम्हारा पति होगा। अत: अब आप कृपा कर मुझे स्वीकार करें। धम्मिल ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर तुरन्त उसके साथ गांधर्व विवाह कर लिया। अब उसके बत्तीस पत्नियाँ हो गईं। कवि कहते हैं जिस प्रकार बत्तीस दाँतों से मुख, बत्तीस अक्षरों से अनुष्टुप छन्द और बत्तीस लक्षणों से पुरुष सुशोभित होता है उसी प्रकार धम्मिल सुशोभित हुआ।
धम्मिल की स्त्री राजकुमारी कमला के पद्मनाभ नामक पुत्ररत्न उत्पन्न हुआ। वह क्रमश: लालन-पालन होता बड़ा होने लगा। कितने ही अरसे बाद चार ज्ञानधारी धर्मरुचि अणगार के पधारने पर धम्मिलकुमार उन्हें वन्दनार्थ गया। धर्मदेशना श्रवणानन्तर उसने
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निवेदन किया प्रभो! मेरी सम्पत्ति का क्षय और वृद्धि का क्या कारण है? मुनिराज ने इस प्रकार धम्मिल का पूर्वभव वृत्तान्त कहा
इसी भरत क्षेत्र में भृगुकच्छ नामक नगर है। वहाँ महाधन नाम का एक कौटुम्बिक रहता था। मरुदेश में दुर्लभ हंसिनी की भाँति उसके कानों में कभी दयामय जिनवाणी का प्रवेश ही नहीं हुआ था अत: वह हिंसा-अहिंसा के मर्म से अज्ञानी था, उसकी स्त्री भी पापों में मलिन थी। किन्तु उसका पुत्र सुनन्द जन्म से ही उत्तम स्वभाव व चरित्रवाला था।
एक दिन महाधन के यहाँ उसके कई मित्र आये जिनके लिये सम्मानपूर्वक भोजन का आयोजन किया गया। उसने एक अतिथि के साथ सुनन्द को मांस लाने के लिए बाजार में भेजा। मांस शेष हो जाने से मच्छी बाजार में गये वहाँ भी मृतक मत्स्य न मिले। सनन्द के इनकार करने पर भी मेहमान ने जीवित मत्स्य खरीदे और घर आते तालाब के निकट मेहमान के देह चिन्ता के लिए जाते मत्स्य भार सुनन्द को सौंपा। सुनन्द ने पानी के बिना तड़फती मछलियों को दयाभाव से जलाशय में डाल दिया
और दया धर्म का विचार करने लगा। मेहमान ने जब सुनन्द से पूछा मछलियाँ सब कहाँ हैं? उसने कहा मैंने तो जलाशय में डाल दी। मेहमान क्रुद्ध हुआ और घर आकर पिता से कहा। निर्दयी पिता ने सुनन्द को लाठी से खूब पीटकर घर से निकाल दिया। सुनन्द ने अपने हृदय से दया को न छोड़कर जैसे-तैसे आजीविका चलाई और मनुष्य गति का आयुष्य बंधकर मरा।
किसी पार्वत्य गुफाओं वाली एक पल्ली में निर्दय-निष्ठुर स्वभाव वाला मंदर नामक पापी राजा था जिसकी पत्नी बनमाला भी तदनुरूप थी। सुनन्द का जीव उसकी कोख में उत्पन्न हुआ। उसका नाम सरभ रखा गया। वह अपने कुलयोग्य शिक्षा पाकर तरुण हुआ तो उसका पिता मरणांत व्याधिग्रस्त होकर दुर्गति में गया। सरभ उसका उत्तराधिकारी बना और सबका प्रिय हुआ। एक दिन वह सशस्त्र अपने परिवार के साथ किसी निकटवर्ती पर्वत पर गया। उसने देखा कितने ही दुर्बल देह वाले नि:शस्त्र पुरुष पृथ्वी पर दृष्टि रखकर चले आ रहे थे। उसने सोचा, ये लोग हमारी पल्ली से भिन्न ही प्रकार के हैं। उनके निकट जाने पर “धर्मलाभ' आशीर्वाद पाकर सरभ ने पूछा, आप कौन हैं? उन्होंने मुंहपत्ती के उपयोगपूर्वक मधुर वचनों से कहा- महानुभाव! हम धर्मज्ञ धर्मोपदेश देने वाले श्रमण हैं। धीमे-धीमे चलते हुए हम साथी से बिछुड़ गये और मार्ग से अनभिज्ञ होने से पहाड़ पर आ गये। उनकी मधुर वाणी से आकृष्ट सरभ ने सानन्द पूछा, आप क्या और कौन सा धर्मपालन करते हैं? मुनियों ने उसे सरल स्वभावी आत्मा ज्ञात कर धर्म का मर्म समझा कर पुण्य मार्ग पर चढ़ाया। सरभ ने उन्हें साथ जाकर मार्ग बतलाकर अपना कर्तव्य निभाया।
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एक दिन वह अपने सशस्त्र साथियों के साथ धाड़ पार कर लूट-पाट करने निकला. यही उसकी आजीविका थी। सूर्यास्त तक सभी भील लोग छिपे रहे। सरभ को पुण्योदय से मुनियों के वचन स्मरण हुए और कुमार्ग चढ़े चित्त पर मुनि वचनों ने अंकुश का काम किया। वह अपने परपीड़क कार्यों को धिक्कारते हुए शस्त्रों का त्याग कर अकेला चल निकला। वह पापभीरु निराभिमानी होकर सदाचारी जीवन व्यतीत करने लगा। अन्त में समाधिपूर्वक मरकर कुशाग्रपुर के सेठ सुरेन्द्रदत्त के कुल में धम्मिल के रूप में उत्पन्न हआ। पूर्वभाव के दया परिणामों से तुम्हारा क्षीण वैभव भी पुन: पृष्ट हुआ। गुरु महाराज के वचनों से उसे पूर्वभव का स्मरण हो आया। वैराग्यपूर्ण हृदय से उसने अपने पुत्र पद्मनाभ को गृहभार सौपकर दीक्षा ले ली और ग्यारह अंगों का अभ्यास कर अप्रमत्त निरतिचार संयम आराधना कर अन्त में तीस दिन अनशन सल्लेखना पूर्वक धम्मिल मुनि ने अच्युत देवलोक में बाईस सागरोपम की आयुवाला देवत्व प्राप्त किया और वहाँ से महाविदेह में जन्म लेकर संयम आराधना कर मोक्ष प्राप्त करेंगे।
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दीघनिकाय में व्यक्त सामाजिक परिवेश
डॉ० दीनानाथ शर्मा भारतीय इतिहास में महात्मा बुद्ध ऐसे विचारक थे, जिनके उदय से भारत का निश्चयात्मक इतिहास जाना जा सकता है। उनसे ही समस्त संसार ने सर्वप्रथम मनुष्यता सीखी। उनकी बुद्धत्व प्राप्ति से लेकर उनके परिनिर्वाण तक उन्होंने जो कुछ और जहाँ कहीं भी कहा उसी का संकलन पालि त्रिपिटकों में किया गया है। जैसा कि सर्वविदित है पालि भाषा तत्कालीन जनसाधारण की भाषा थी जो मगध प्रदेश में बोली जाती थी। इसी भाषा के माध्यम से महात्मा बुद्ध अपने उपदेश को जन-जन तक पहुँचाते थे। बुद्ध वचन को तीन भागों में विभक्त किया गया है जो विषय और शैली के कारण एक दूसरे से भिन्न हैं। भिक्षु संघ के निर्माण तथा अनुशासन सम्बन्धी नियम विनयपिटक में संगृहीत हैं। बुद्ध द्वारा भिन्न-भिन्न स्तर के लोगों को दिये गये उपदेशों का संकलन सत्तपिटक में है और पारिभाषिक शब्दों में उपदिष्ट गम्भीर धर्मदर्शन का विवेचन अभिधम्मपिटक में है। बुद्ध उपदेश वास्तव में सत्तपिटक में संग्रहीत हैं। सूत्तपिटक पाँच निकायों में विभक्त है- दीघनिकाय, मज्झिमनिकाय, संयुक्तनिकाय, अंगुत्तरनिकाय और खुद्दकनिकाय।
बुद्ध के समकालीन श्रमणों, ब्राह्मणों और परिव्राजकों के जीवन और सिद्धान्तों के विवरण, गौतम बुद्ध के विषय में उनके मत और दोनों के पारस्परिक सम्बन्ध, साधारण जनता में प्रचलित उद्योग और व्यवसाय, मनोरञ्जन के साधन, कला और विज्ञान, तत्कालीन राजनैतिक परिस्थिति और राजन्यगण, ब्राह्मणों के धार्मिक सिद्धान्त, जातिवाद, वर्णवाद, यज्ञवाद, भौगोलिक परिस्थितियां जैसे-गाँव, निगम, नगर, जनपदादि के विवरण और उनके निवासियों के जीवन की साधारण अवस्था, नदी-पर्वत आदि के विवरण, साहित्य और ज्ञान की अवस्था, कृषि और वाणिज्य, सामाजिक रीतियां, जीवन का नैतिक स्तर; स्त्रियों, दास-दासियों और भृत्यों की अवस्था आदि के विवरण सुत्तपिटक में भरे पड़े हैं, जो बुद्ध और उनके शिष्यों के जीवन और उपदेशों के साथ-साथ तत्कालीन भारतीय सामाजिक और राजनैतिक परिस्थिति आदि का अच्छा दिग्दर्शन कराते हैं। १ प्रस्तुत आलेख में दीघनिकाय में व्यक्त सामाजिक परिवेश की चर्चा की गयी है। *. व्याख्याता, प्राकृत विभाग, भाषासाहित्य भवन, गुजरात युनिवर्सिटी, अहमदाबाद,
३८०००९.
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सामाजिक विधान पितृपरम्परागत वर्षों पर आधारित था। अम्बट्ठसुत्त से ज्ञात होता है कि ब्रह्मा के विभिन्न अंगों से चार वर्णों की उत्पत्ति की प्राचीन पौराणिक कल्पना के आधार पर ब्राह्मण अपने को क्षत्रियों और श्रमणों से श्रेष्ठ समझते थे--- चत्तारों में भो गोतम, वण्णा- खत्तिया, ब्राह्मणा वेस्सा सुद्दा। इमेसं हि भो गोतम चतुनं वण्णानं तयो वण्णा-खत्तिया च वेस्सा च सुद्दा च अञदत्थु ब्राह्मणस्सेव परिचारिका सम्पज्जन्ति।२
ब्राह्मणों और क्षत्रियों के बीच होने वाले अन्तर्जातीय विवाहों की स्थिति कुछ इस प्रकार है- क्षत्रिय पुरुष और ब्राह्मण स्त्री अथवा ब्राह्मण पुरुष और क्षत्रिय स्त्री से उत्पन्न पुत्र ब्राह्मणों से जल और आसन-भोजन तथा यज्ञ के अवसर पर निमन्त्रण, वेदों की शिक्षा तथा विवाह की सुविधा पाता था, लेकिन क्षत्रिय उसे राजा नहीं बनाते थे। ब्राह्मणों द्वारा जाति बहिष्कृत व्यक्ति ब्राह्मण घर में उपर्युक्त सुविधाएं नहीं पाता था, लेकिन क्षत्रियों द्वारा जातिबहिष्कृत व्यक्ति सारी सुविधाएं पाता था।
ब्राह्मण अपने सामाजिक सम्मान की रक्षा कर लेते थे यहाँ तक कि एकबार बुद्ध की महत्ता से पूर्णत: सन्तुष्ट सोणदण्ड ने जनता के बीच उनका अभिवादन आदि करने में संकोच किया था। बुद्ध स्वयं समाज में जातिभेद को महत्त्व नहीं देते थे फिर भी सामान्य लोगों की मान्यता का आदर करते थे। यही कारण है कि सोलह परिष्कारों और त्रिविध सम्पदावाली यज्ञविधि का कूटदन्त को उपदेश देते हुए चक्रवर्ती राजा तथा पुरोहित के आवश्यक गुणों में मातृ एवं पितृ पक्ष से उच्चकुलीन होने के गुण को सम्मिलित किया है— राजा महाविजितो अट्ठहङ्गेहि समत्रागतो। उभतो सुजातो मातितो च पितितो च।३
शूद्रों को समाज में निम्नतर समझा जाता था, लेकिन इसके कुछ अपवाद भी हैं। राजा ईक्ष्वाकु के दासीपुत्र ‘कण्ह' जैसे कुछ व्यक्तियों का उल्लेख मिलता है, जिन्होंने अपनी शिक्षा और आध्यात्मिक उपलब्धियों के आधार पर समाज में ऋषिपद प्राप्त किया था। सम्भव है उस समय शिक्षा देने और पात्रों को उचित स्थान देने में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं रखा जाता था। इसीलिए वेश्यापुत्र 'जीवक' वैद्यक की श्रेष्ठ शिक्षा प्राप्त करने और अजातशत्रु का राजवैद्य नियुक्त होने में सफल हुआ।
जनता के मनोरञ्जन के साधन निम्नवत् थे- नृत्य, गीत, संगीत, नाटकलीला, गागर बजाना, लोहे की गोली का खेल, बाँस का खेल, हस्तियुद्ध, अश्वयुद्ध, महिष युद्ध, वृषभयुद्ध, बकरों का युद्ध, भेडों का युद्ध, मुर्गा लड़ाना, लाठी का खेल, मुष्टियुद्ध तथा युद्ध प्रदर्शन- (यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुञ्जित्वा ते एवरूपं विसूकदस्सनं अनुयुत्ता विहरन्ति सेय्यथिदं-नच्चं गीतं वादितं पेक्खं अवखानं पाणिस्सरं वेताकं, कुम्भथूणं, सोभनकं चण्डालं वंसं धोवनं हत्थियुद्ध,
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अस्सयुद्धं महिसयुद्धं, उसभयुद्धं अजयुद्धं, मेण्डयुद्धं कुक्कुटयुद्धं वट्टकयुद्धं......इत्यादि)।५
उस समय खेले जाने वाले जुए निम्नवत् थे- अट्टपद (शतरंज), दसपद, आकास, परिहार पथ, संतिकरवलिका घटिका सलाकहत्थ, अक्ख पङ्गचीर, बङ्कक, मोक्खचिक, चिङ्गलिक, पताक्हक, रथक अक्खरिका मनेसिक- (एवरूपं जूतप्पमादट्ठानानुयोगं अनुयुत्ता विहरन्ति सेय्यथिदं अट्ठपदं दसपदं आकासं परिहारपथं सन्तिकं खलिकं घटिकं सलाकहत्थं अक्खं पङ्गचीरं वङ्ककं मोक्खचिकं इत्यादि)।६ ___'सामञफलसुत्त' में जिन व्यवसायों का उल्लेख हुआ है, वे हैं- हस्ति आरोहण, अश्वारोहण, रथिक धनुहि कल्पक सैनिक अधिकारी, आळारिक, चेलक, शूर, नाई, माली, रजक पेसकार, नलकार कुम्भकार, गणक इत्यादि (यथा नु खो इमानि भन्ते पुथुसिप्पायतनानि सेय्यथिदं हत्थारोहा अस्सारोहा रथिका धनुग्गहा चेलका चलका पिण्डदायका उग्गा राजपुत्ता पविखन्दिनो इत्यादि)।
दीघनिकाय में तत्कालीन दार्शनिक सिद्धान्तों और मतों का उल्लेख प्राप्त होता है। पूरण कस्सप, मक्खलिगोसाल, अजित केसकम्बल, पकुधकच्चायन और निगण्ठ नातपुत्त जैसे आचार्यों के विचारों में भौतिकवाद, नास्तिकता, जड़वाद आदि के बीज विद्यमान थे। इनके अतिरिक्त अन्य विचारकों के उल्लेख ब्रह्मजालसुत्त में हुए हैं जिन्हें किसी सम्प्रदाय विशेष से जोड़ा नहीं गया है, यथा आत्मा और लोक दोनों नित्य हैं (सस्सतो अत्ता च लोको च वझो कूटट्ठो एसिकट्ठायिट्ठितो)।'
आत्मा और लोक अंशत: नित्य और अंशत: अनित्य हैं- (सन्ति भिक्खवे एके समणब्राह्मणा एकच्च सस्सतिका एकच्च सस्सतिका एकच्चं सस्सतं एकच्चं असस्सतं अन्तानं च लोकं च पञपेन्ति चतुहि वत्थूहि) - लोक सान्त है या अनन्त(सन्ति भिक्खवे एके समणा ब्राह्मणा अन्तानन्तिका अन्तानन्तं लोकस्स पज्ञापेन्ति चतूहि वत्थूहि)।१०
इसके अतिरिक्त अनेक दार्शनिक प्रश्नों की सूची उपलब्ध होती है जिनसे पता चलता है कि उस समय ऐसे प्रश्नों पर विचार करने वाले उपलब्ध थे, जैसे-तेविज्जसत्त में ब्रह्मलोक प्राप्ति का प्रश्न उठाया गया है, बुद्ध ने अपने उपदेश में बतलाया कि परलोक में जीव की उत्पत्ति मेत्ता, करुणा, मुदिता तथा उपेक्खा- इन चार ब्रह्मविहारों का अभ्यास करने से होती है।
दीघनिकाय में विविध धार्मिक सम्प्रदायों का भी उल्लेख मिलता है जो अनेक व्रतों और क्रियाओं का अनुष्ठान किया करते थे। वे अपने पारमार्थिक लाभ से भिन्न लौकिक यश और भौतिक लाभ के लिए प्रयत्नशील थे। ऐसे उल्लेख ब्रह्मजालसुत्त में मिलते हैं। कुहका, लपका, नेमित्तिका, निप्पेसिका लाभेन लाभं निजिगिंसितारो आदि। इनमें जादू-टोना करने वाले थे जो अपने विविध विद्याओं से लोगों को ठगते थे।११
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'सामञ्जफलसुत्त' में उल्लिखित छ: तीर्थकों के मतों के अपने-अपने संगठन अवश्य रहे होंगे। उदाहरणार्थ निगण्ठनातपुत्त (महावीर स्वामी) का संगठन तो ज्ञात ही है जो निग्रन्थ धर्म के नाम से ख्यात था और स्वयं निगण्ठ नातपुत्त उसके चौबीसवें
और अन्तिम तीर्थङ्कर थे। पूरणकस्सप और अजितकेसकम्बल प्रसिद्ध नास्तिक और भौतिकवादी दार्शनिक चार्वाक के अनुयायी प्रतीत होते हैं। अचेलकस्सप नामक नग्नपरिव्राजक, जो महासीहनादसुत्त में वर्णित है,सम्भवत: एक जैन मुनि है।
इस प्रकार दीघनिकाय में व्यक्त सामाजिक परिवेश जिसमें समाज, धर्म दर्शन सम्मिलित है, का अवलोकन किया गया। जैसा कि ऊपर कहा गया है कि महात्मा बुद्ध
और उनकी वाणी, जो पालि साहित्य में निहित है, से ही भारत के निश्चयात्मक इतिहास पर प्रकाश पड़ता है। दीघनिकाय के अतिरिक्त सुत्तपिटक के अन्य निकायों में भी इसी प्रकार के तथ्य सामने आ सकते हैं। जरूरत उनके सूक्ष्मावलोकन की है। १. पालि साहित्य का इतिहास, पृ० १४०-४१. २. दीघनिकाय, पृ० ८०.
वही, पृ० ११७. ४. वही, पृ० ४१.
वही, पृ० ८.
वही, पृ० ८. ७. वही, पृ० ४४. ८. वही, पृ० १३. ९. वही, पृ० १७. १०. वही, पृ० २१. ११. वही, पृ० १०-१२.
सन्दर्भ : १. भरतसिंह उपाध्याय, पालि साहित्य का इतिहास, हिन्दी साहित्य सम्मेलन,
प्रयाग, द्वितीय संस्करण, प्रयाग १९६३. दीघनिकाय, भिक्खु जगदीसकस्सप, बिहार राजकीय पालिप्रकाशन मण्डल, पटना १९५८.
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ગુજરાતની કેટલીક પ્રાચીન જિનમૂર્તિઓ
લેખક સારાભાઈ મણિલાલ નવાબ ભારતીય વિદ્યાભવન અંધેરીના “ભારતીય વિવા” નામના વૈમાસિક મુખપત્રના વર્ષ ૧ ના અંક ૨ માં પૃ. ૧૭૮ થી ૧૯૪ માં “ગુજરાતની પ્રાચીનતમ જિનમર્તિઓ” નામનો એક સચિત્ર લેખ લખેલ પ્રસિદ્ધ થઈ ગએલો છે. આ લેખ પ્રસિદ્ધ થયા પછી તાજેતરમાં જ અમદાવાદ શહેરમાં માંડવીની પળમાં, નાગજીભૂદરની પાળના જૈન દેરાસરમાં મારા જેવામાં આવેલી વિક્રમના બારમા સૈકાની અને કલિકાલસર્વજ્ઞ હેમચંદ્ર સૂરિની વિવમાનતાના સમયની તથા તેઓશ્રીની વિલમાનતાના સમય પહેલાંની ધાતુની ત્રણ પ્રતિમાઓની જનમર્તિવિધાનશાસ્ત્રના અભ્યાસમાં રસ લેનાર વિદ્વાનોને તથા જૈન બંધુઓને ઓળખાણ કરવાનું આ ટુંક લેખમાં મેં યોગ્ય ધાર્યું છે. સમયના અભાવે આ અંકની સાથે આ ત્રણ મતિઓના ચિત્રો આપી શકાયા નથી. - મૂળ ગભારામાં મૂળનાયક શ્રીસંભવનાથજીની જમણી બાજુએ આરસની એટલી ઉપર આ સંવત ૧૧૦૨ ની જિનર્ત આવેલી છે?
મૂર્તિ ૧ –આ જિનમતિના પરિકરને ધણોખરો ભાગ (ઉપરને બે ભાગ તથા ડાબી બાજુના ચામર ધરનારની આખી આકૃતિ) નાશ પામેલ છે. આ જિનમૂર્તિની નીચે કોઈ પણ જાતનું લંછન નહિ હોવાથી ચોવીશ તીર્થકરો પૈકીના કયા તીર્થકરની આ મૂર્તિ છે તે શોધી કાઢવું અશકય છે. આ જિનમૂર્તિના કપાળમાં આ જાતનું (હાલમાં વૈષણવ સંપ્રદાયના અનુયાયીઓએ સ્વીકારેલું) તિલક રસ્પષ્ટ દેખાય છે. મધ્યમાં પદ્માસનની બેઠકે બેઠેલી આ જિનમૂર્તિની મુખાકૃતિ બહુ જ સુંદર છે. મૂળ મતિની જમણી બાજુએ એક ચામર ધરનાર ૫રિચારકની ઊભી સુંદર આકૃતિ છે, પરિચારકના પબા હાથમાં ચામર પકડેલે છે અને તેને જમણે હાથ પગ ઉપર ટેકવેલો છે.
- પદ્માસનની નીચેના ભાગમાં જમણું બાજુએ બે હાથવાળા યક્ષરાજની સુંદર મૂર્તિ છે, અંબિકા યુલિનીના જમણા હાથમાં આંબાની લેબ સ્પષ્ટ દેખાય છે, તથા ડાબા હાથથી પકડેલું બાળક ખેાળા ઉપર બેસાડે છે, બાળકના શરીરને ઉપરને અડધો ભાગ ખંડિત થએલો છે. પદાસનની નીચેના ભાગમાં નવગ્રહોની નાની નાની નવ આકૃતિઓ કોતરેલી છે. એકંદરે આ સુંદર શિલ્પ જૈનાશ્રિત શિલ્પકલાના ખૂટતા અંકેવાઓ મેળવવા માટે વધારે મહત્વનું છે. આ મૂર્તિના પાછળના ભાગમાં ત્રણ લીટીને લેખ કોતરેલા છે, જે આ પ્રમાણે છે –
(1) ગાન () છે.......... (2) વિષ્ણુ અાયાના ચઢી (3) જિર્ણ વિ . સંવત ૧૧૨
ઉપરોક્ત ત્રણ લીટીના લેખ પરથી આ પ્રતિમા બહાણુગછીય કોઈ જૈન ગૃહસ્થે મોક્ષ મેળવવાની અભિલાષાથી સંવત ૧૧૦૨ માં બનાવરાવી.
મૂળ ગભારામાં ડાબી બાજુની આરસની એટલી ઉપર આ સંવત ૧૧૨ ની છીપાર્શ્વનાથની મર્તિ આવેલી છે.
• આ ગણે મૂર્તિના પિરો માટે અને સત્ય પ્રાણ" માસિાના ઉત્સવ માં પ્રસિદ્ધ છે. “o કલાની પ્રાચીન ધાતુમતિમાઓ” નામના મારા લેખની સાથેનાં પાએલા ચિત્રો . શ્રીમહાવીર જૈન વિદ્યાલય રજત મહોત્સવ સ્મારક ગ્રન્થ સે સાભાર
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ગુજરાતની કેટલીક પ્રાચીન જિનમતિઓ ૯૦ મૂર્તિ ૨ –આ જિનમતિના મુખારવિંદને ભાગ તથા પરિકરની બધી આકૃતિઓ ધણી ધસાઈ ગએલી છે. મૂળ મૂર્તિના મસ્તકના ઉપર ભાગમાં સાત ફગાઓ દેખાઈ આવે છે, અને તેથી આ મૂર્તિ શ્રી પાર્શ્વનાથજીની છે એમ સાબિત થાય છે. શ્રી પાર્શ્વનાથજીની બંને બાજુ એક ચામર ધરનાર પરિચારકની આકૃતિ છે, તથા પદાસનની નીચેના ભાગમાં જમણી બાજુએ બે હાથવાળા યક્ષરાજની તથા ડાબી બાજુએ બે હાથવાળી અંબિકા યક્ષિણીની આકૃતિ શિપીએ રજૂ કરેલી છે. આ બંને આકૃતિઓ પણ ધસાઈ ગએલી છે. આ મૂર્તિની પાછળના ભાગમાં પરિકર પર ફરતે કતરેલો લેખ છે, જેને પણ ખરે ભાગ વાંચી શકાય છે. જે આ પ્રમાણે છે:
૩. ૧૧૨......... પરાકાષ્ઠ કલંદરમા......માયા તોળ્યા હતા
ઉપરોક્ત લેખ પરથી આ પ્રતિમા કાશદગચ્છના શ્રાવક શ્રીસિંહલની સ્ત્રી ના પુત્ર.. ની]સ્ત્રી સેહણિએ કરાવેલી છે, એમ સાબિત થાય છે.
નાગજીભૂદરની પળના જ દેરાસરના મેડા ઉપરના ગભારામાં મૂળનાયક શ્રીધર્મનાથજીની જમણી બાજુની આરસની એટલી પર અગિયારમા સૈકાની શ્રી ઋષભદેવ ભગવાનની મૂર્તિ આવેલી છે.
મૂર્તિ ૩:–શીષભદેવ. આ મૂર્તિનું શિલ્પ પણ સુંદર છે. મધ્યમાં જિનમૂર્તિના મસ્તક પર ગીની માફક વાળના છ ગુંચળાં શિલ્પી એ સુંદર રીતે કોતરેલાં છે. જેના વીશ તીર્થકો પૈકીના પ્રથમ તીર્થકર શ્રી ઋષભદેવ ભગવાનની પ્રાચીન મૂર્તિઓ પૈકીની ઘણી ખરી મૂર્તિઓના બંને ખભા પર વાળની લો કોતરેલી મળી આવે છે (જુઓ ભારતીય વિવા વર્ષ ૧, અંક ૨ના પૃ૪ ૧૮૫ની સામેનાં ચિત્ર નંબર ૬ અને ૭ તથા તે જ અંકને પૃઇ ૧૮૦ની સામેનું ચિત્ર નંબર ૨ અને પૃઇ ૧૯૧ની સામેનું ચિત્ર નંબર ૮) વળી કઈક દાખલામાં પ્રતિમાના મરતકની પાછળના ભાગમાં પણ વાળ કતરેલા મળી આવે છે (જુઓ હવે પછી પ્રસિદ્ધ થનાર “ભારતનાં જૈન તીર્થો અને તેમનું શિલ્પ સ્થાપત્ય” નામના ગ્રંથમાં ચિત્ર નંબર ૪૧) પરંતુ મારા આસધીનાં નિરીક્ષણ દરમ્યાન મસ્તક પર વાળની લટોના ગુંચળાવાળી શ્રી અષભદેવ પ્રભની પ્રતિમા જોવામાં આવી નથી, તેટલી આ પ્રતિમાની ખાસ વિશિષ્ટતા છે. શ્રી ઋષભદેવ પ્રભુની મૂર્તિઓમાં વાળની લટ મળી આવે છે, તેનાં કારણો હું મારા “ભારતીય વિવા”ના ઉપરોક્ત લેખમાં દર્શાવી ગએલે છું, તેથી તેના ઉલ્લેખ અહીયાં ફરી આપવા યોગ્ય લાગતા નથી.
આ મૂર્તિના પરિકરના પાછળના ભાગમાં કેટલાક અક્ષરો કોતરેલા છે, જેમને મેટા ભાગ કાટથી દબાએલો હોવાથી સ્પષ્ટ વાંચી શકાયું નથી, પરંતુ તેની લિપિ લખવાની રીતથી અભ્યાસીઓને જણાઈ આવે તેમ છે કે આ મૂર્તિ અગિયારમાં સૈકા પછીની તે નથી જ.
આ વિષયમાં વધારે જાણવાની ઇચ્છાવાળા જિજ્ઞાસુઓને તાજેતરમાં પ્રસિદ્ધ થએલ જૈન સત્યપ્રકાશ માસિકના દીપોત્સવી અંકમાને “બારમા સૈકા પહેલાંની પ્રાચીન ધાતુ પ્રતિમાઓ” નામને મારે સચિત્ર લેખ તથા ટુંક વખતમાં મારા તરફથી પ્રસિદ્ધ થનાર “ભારતનાં જૈન તીર્થો અને તેમનું શિલ્પસ્થાપત્ય” ભાગ ૧ લો જોઈ જવા મારી ભલામણ છે.
મારા આ ટુંકા લેખથી જૈનમૂર્તિવિધાનશાસ્ત્રના અભ્યાસીઓને તથા જેન શિલ્પકળામાં રસ લેનાર રસને અને મારા જેન બંધુઓને પિતાના પૂર્વજોએ સંધરેલ મૂર્તિવિધાનના અભ્યાસ તથા તેને સંરક્ષણ તરફ થોડી પણ દરવણું મળશે તો મારે આ લેખ લખવાનો પ્રયાસ હું સફળ માનીશ.
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સિદ્ધસારસ્વતાચાર્ય અમરચંદ્ર સૂરિ
(એક સ્વાધ્યાય)
લેખકઃ કનૈયાલાલ ભાઈશંકર દવે ઉપક્રમ
સંસ્કૃત પ્રાકૃત સાહિત્યના વિકાસમાં, ભારતીય અન્ય પ્રાંતિના મુકાબલે, ગુજરાતે પણ સુંદર ફાળો નોંધાવ્યો છે. તેટલું જ નહી પણ બીજા પ્રાંતિમાં નહીં રચાયેલા, એવા અભિનવ ગ્રંથ ગુજરાતે ભારતમાતાના ચરણે સાદર કર્યા છે. માલનું શિશુપાલવધ, અને ભઠ્ઠીનું ભદીકાવ્ય, હરિભદ્રસૂરિની સમરાદિત્યકથા અને સિહર્ષિનું ઉપમિતિભવપ્રપંચકથાનક, અને તેવા બીજા અનેક ગ્રંથે ગુજરાત સાધેલ કૃષ્ટ હિરા વિકાસને પરિચય કરાવે છે. પણ આ બધા કરતાં ગુજરાતને વધુ પ્રતિષ્ઠા અને ગૌરવ અપાવનાર ગુજરાતની અસ્મિતામાં વધારે કરનારા, આચાર્ય હેમચંદ્ર રચેલ વ્યાકરણ, કેશ, છંદ, અલંકાર, યોગશાસ્ત્ર અને કથાસાહિત્યના અપૂર્વ પ્રથે છે. જેની કીર્તિ અને સુવાસ ગુજરાતમાં જ નહીં પણ સમસ્ત ભારતમાં ફેલાઈ છે. આ સિવાય પણ બીજા અનેક ગ્રંથે, બ્રાહ્મણ અને જૈન વિદ્વાનોએ રચ્યા છે, જેની નોંધ માત્ર લેતાં કેટલાંયે પાનાં ભરી શકાય તેમ છે. | ગુજરાતની સાહિત્યિક અમિતા ફેલાવવામાં અનેક વિદ્વાને અને કવિઓને હાથ હતા. તેમાં જૈન સાહિત્યસ્વામીઓને નાનોસૂને કાળ નથી. બ્રાહ્મણ વિદ્વાનની માફક જૈન પડિતો પણ અનેક થઈ ગયા છે, જેમણે સંસ્કૃત, પ્રાકૃતના ભવ્ય પ્રથા લખી, ગુજરાતની જ નહીં પણ સમરત ભારતવર્ષની અપૂર્વ સેવા બજાવી છે. તેવા પંડિતપ્રવર સર્વશ્રેષ્ઠ સાહિત્યકારોમાંથી, એક મહાન વિદ્વાન કવિવર્યને પરિચય, આપની સમક્ષ રજૂ કરવાને અહીં પ્રયત્ન છે. ગુજરાતની સાહિત્યપ્રિયતા
કવિ બીણે ગુજરાતને ભલે અસંસ્કૃત માન્યું, પણ સોલંકીયુગની ઈતિહાસગાથાઓ વિચારતાં, દસમા સૈકાથી ચૌદમા સૈકાના અંત સુધી શ્રીની સાથે સરસ્વતીને સુમેળ ગુજરાતભરમાં પ્રસર્યો હોવાનું માલમ પડે છે. ભીમની વિદ્વતસભા બોજ જેવા સરસ્વતીપુત્રને પણ આકર્ષતી, કર્ણ અને સિદ્ધરાજની વિદ્વત્વસભાની ખ્યાતિ સાંભળી દેશ વિદેશથી પંડિતે પાટણમાં આવતા. રાજકાર્ય ઉપરાંત રાજસભામાં સાહિત્યવિનેદ, અને વાદચર્ચાઓ ચાલતી. અવંતિના સાહિત્ય ભંડારથી,ગુર્જરેશ્વર સિદ્ધરાજને પણ પિતાના આંગણે સ્ત્રોતસ્વિની સરસ્વતીની સાથે, વાવાદિની શારદાને મૂર્તિમંત કરવાની પ્રેરણા થઈ. હેમચંદ્ર જેવા ધીર, ગંભીર, અને સર્વશાસ્ત્રના પારંગત વિકાને તે સ્વપ્ન સિદ્ધ કરી બતાવતાં, ગુજરાતને પિતાનું સ્વતંત્ર વ્યાકરણ, કાશ, અલંકાર, છંદશાસ્ત્ર વગેરેના ગ્રંથ ભેટ ધર્યા. સિદ્ધરાજની વિદ્વતસભામાં વિદ્વાન પંડિત બેસતા, જયાં સામાન્ય પંડિતને પ્રવેશ પણ દુર્લભ હતા. કુમારપાળનો રાજ્યકાળ પણ સાહિત્ય દષ્ટિએ ઊતરતે ન હતો. ત્યાર પછીના સમયમાં સેલંકીઓની વીરકી ઓસરતાં, અજયપાળ અને ભીમદેવના શાસનકાળમાં, સાહિ. ત્યનો પ્રવાહ સહેજ મેળો લાગે છે. પણ વસ્તુપાળની વિદ્વત્તા, તેનું આશ્રિત કવિ મંડળ, અને વિસલદેવની રાજસભાનાં એતિહાસિક વર્ણને વિચારતાં, સિદ્ધરાજને કુમારપાળની માફક વિરધવળ અને વીસવદેવના કાળમાં, સરસ્વતીને પ્રવાહ અખલિત વહેતો હતો એમ જણાય છે.
વીસળદેવની રાજસભા, એટલે સમર્થ વિદ્વાનોની વિદ્વત્સભા. યામાર્ધમાં મંચસર્જન કરે તેવી અદભુત શક્તિ ધરાવનાર સંમેશ્વર જેવા કવિઓ તેમાં વિરાજતા હતા. આ સિવાય હરિહર, નાનક, અરિસિહ અને શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલય રજત મહોત્સવ સ્મારક ગ્રન્થ સે સાભાર
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સિદ્ધસારસ્વતાચાર્ય અમરચંદ્ર સૂરિ
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અમરચંદ્ર સૂરિ જેવા પ્રકાંડ પંડિતને વસ્તુપાલ અને વીસળદેવે બહુમાનપુર સર આમંચ્યા હતા. આ બધા વિધાને એ વિદ્વત્તાપ્રચુર ગ્રંથ લખી ગુજરાતને અપ્રતીમ ગૌરવ બક્ષ્ય છે. તેવા સમર્થ વિદ્વાન પૈકી, કવિરાજ અમરચંદ્ર સૂરિને સામાન્ય પરિચય આપની સમક્ષ રજુ કરવાને અહીં વિચાર છે. જીવનચર્યા
આ મહાપુરુષની જીવનકથા વ્યવસ્થિત રીતે, તેમના જન્મકાળથી કાલધર્મ કરી ગયા ત્યાં સુધીની, સીલસીલાબંધ કોઈ ગ્રંથમાંથી મળતી નથી. પરંતુ કેટલાક પ્રબંધાત્મક પ્ર, અને ઈતર પુસ્તકોમાંથી તેમના જીવન માટે થોડી ઘણી વિગતો પ્રાપ્ત થાય છે. આવા પ્રથામાં પ્રબંધકોશ, પ્રબંધચિંતામણિ વિવેકવિલાસ, ઉપદેશ તરંગિણી વ મુખ્ય છે. આ સિવાય રંભામંજરીનાટિકા, હમ્મીરમહાકાવ્ય અને તેમના રચેલા પ્રથાની પ્રશસ્તિઓમાંથી પણ કેટલીક વિગત મળે છે.
અણહીલપુર પાટણથી ઉત્તરે, આઠ ગાઉ દૂર વાયડ નામક (ગામ) મહાસ્થાન આવેલું છે. આ ગામ મધ્યકાળમાં મોટું શહેર હતું. ત્યાં બ્રાહ્મણ અને જૈનોની સારી એવી વસ્તી હતી, એમ પાનંદપ્રશસ્તિમાં કરેલ વર્ણન ઉપરથી જણાય છે. આજે તો તે એક નાનું, ઠાકરડાઓની મુખ્ય વસ્તીવાળું ગામડું છે. પૂર્વકાળમાં તે મેટું શહેર હશે, એમ તેની પરિસ્થિતિ ઉપરથી દેખાય છે. ત્યાં જૈનમંદિર હતાં, અને જેનોની વસ્તી પ્રાચીનકાળમાં ખૂબ હતી. આ મહાસ્થાનમાં છવદેવ સૂરિ નામક આચાર્ય હતા, જેઓ પરકાયા પ્રવેશ જેવી યૌગિક વિવાના પારંગત હતા. અર્થાત યોગમાર્ગમાં તેઓ પ્રવૃત્ત હતા. તેમના શિષ્ય જિનદત્ત સૂરિ થયા, જેઓ વિદ્વાન હતા, તેટલું જ નહીં પણ ધર્મશાસ્ત્રના સારા વિચારક હતા. તેમણે અનેક ગ્રંથો લખ્યા છે. આ જ મહર્ષિ આપણા ચરિત્રનાયક અમરચંદ્ર સૂરિના ગુરુ હતા.
અમરચંદ્રના પૂર્વાશ્રમની હકીકત હજુ સુધી મળી નથી, તેમ જ તેમણે કેટલી ઉમરે દીક્ષા ધારણ કરી તે પણ જાણવામાં આવ્યું નથી. ફક્ત એટલું જ માલમ પડે છે કે, જિનદત્ત સૂરિ તેમના ગુરુ હતા, એટલે તેમને જિનદત્ત સૂરિ પાસેથી દીક્ષાગ્રહણ કરી હશે એમ સમજાય છે. પણ જીવનને ઉચ્ચમાર્ગે લઈ જવાના પ્રયત્નોમાં, તેમને કવિવર અરિસિંહની સારી એવી મદદ હશે એમ લાગે છે. સારસ્વત મંત્ર અમરચંદ્ર અરિસિહ પાસેથી લીધે હતા, અને કેપ્ટાગારિક પદ્ધ મંત્રોના વિશાળ મહાલયમાં, એકવીસ દિવસ સુધી તેમને તે મંત્રનું પુરશ્ચરણ કરી મંત્રને સિદ્ધ કર્યો હતો. ચતુર્વિશતિ પ્રબંધમાં તે માટે જણાવ્યું છે કે, પુરશ્ચરણગહોમકાર્યના અંતે ભગવતી સરસ્વતીએ પ્રત્યક્ષ થઈ વર આપ્યો કે “હં સિવિર્મ” ત્યારથી અમરચંદ્રના હૃદયમાં અભુત શક્તિનો સંચાર , અને ધીમે ધીમે તેમણે વિદ્વાનને પણ મુગ્ધ બનાવે તેવા, કાવ્ય, છંદ, અલંકાર અને કથાસાહિત્યના અભિનવ ગ્રંથ લખી, પોતાની વિદત્તાને જનસમાજના ઉપયોગ માટે વહેતી કરી.
તેમણે પોતાની વિદત્તાને એક જ સંપ્રદાય પુરતી અનામત નહીં રાખતાં, સર્વ કઈને ઉપયુક્ત થાય તેવા વિવિધ વિષયોના ગહન પ્રથા લખી, પોતાના જ્ઞાનને લાભ દરેક માટે ખુલ્લો રાખ્યો હતો.
१मीमद्वायरनाम्नि सारसक्तीचाम्नि पुण्ये महा
स्थाने मानिनि दानमानसरसाः श्री बाबरीया वीजाः ।। सोमस्तोमसमुत्यधूमनिवहेमालिन्य मालवया मासुर्या वणिजो जिनार्चनयनोपदपधूमोत्करैः॥१॥
फ्यानंदमहाकाव्य, सर्ग १९. ૨ વિલિવિરસિગ્નલ: રાઃ | हतमोहतमोकारि करिव रवेर्जगत् ॥ ३७॥
જાનંદમાથાથ, સર્ણ ૧,
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કનૈયાલાલ ભાઈશંકર દવે
[મ. જે. વિદ્યાલય વેણીપળોમઃ આવી પ્રસિદ્ધ ઉક્તિ તેમના માટે વિદ્વાન કવિવરાએ વારંવાર વાપરી છે. તેમને વેણુકૃપાણનું બિરુદ આપવામાં આવ્યું હતું. જેમાં દીપિકા કાલિદાસ, અને ધંટા માધનાં બિરદ, કાલિદાસ અને માધ માટે હતાં, તેમ અમરચંદ્ર માટે ઉપરોક્ત બિરદ વપરાતું. બાલભારતના આદિપર્વમાં, પ્રભાત વર્ણનની અંદર તેમણે “વેણુ-અંબોડો, કૃપાણ, તસ્વાર”= અંબેડારૂપી તરવારવાળો કામદેવ સાથે, રૂ૫યુક્ત અલંકારિક રીતે સરખામણી કરતાં, વિદ્વાનોએ તેમને આ બિરદ આપ્યું હતું. હમ્મીરમહાકાવ્યમાં પણ તેમના માટે આ બીરદ વપરાયું છે.? રાજસન્માનિત કવિ અમરચંદ્ર સૂરિ
તેમની સુંદર લેલાત્મક કાવ્યચાતુરી, અને અગાધ વિદ્વત્તાથી આકર્ષાઈ રાજા વીસલદેવે પિતાના પ્રધાન વઈલને મોકલી, તેમને આમંચ્યા હતા. રાજસભામાં પધારતાં જ રાજાએ સામા જઈ તેમનું સુંદર સ્વાગત કર્યું, અને સન્માનપુરસર આસન ઉપર બેસાર્યા. કવિરાજ અમરચંદ્ર ખરિએ પણ તેના સ્વાગતને યોગ્ય જવાબ વાળતાં, વીસલદેવ નૃપેન્દ્ર, અને તેની વિવાવિલાસી ભાવનાનું અદભુત વર્ણન કરતાં, રાજા અને રાજસભાને ખૂબ આનંદ થયે.
વીસલપને વિદ્વાનોને વાગ્વિલાસ ખૂબ પ્રિય હતો. તેથી તેની સૂચના થતાં નાનાક પંડિત “જીતે ન જયતિત યુવતિનિંરાપુ” આ ચરણથી સમસ્યા પૂરવાનું આહવાન કર્યું. આથી તુરતજ તે માટેની સમસ્યાપૂર્તિ કરતાં અમર કહ્યું કે
श्रुत्वा ध्वनेर्मधुरता सहसावतीण भूमौ मृगे विगतलाछन एव चन्दः
मागान् मदीयवदनस्य तुलामतीव गीतं न गायतितरां युवतिर्निशासु ॥ १॥ ભાવાર્થ. “હુ ગાઈશ તે આ ચંદ્રમાનો મૃગ તે સાંભળવા નીચે ઊતરી આવશે અને આમ મૃગલાંછનથી મુક્ત થઈને ચન્દ્ર મારા મુખની બરોબરી કરી શકશે તેથી એ સ્ત્રી રાત્રે ગાતી નથી.”
આવી ૧૦૮ સમસ્યાઓ સામેશ્વરાદિ કવિઓ તરફથી પૂછવામાં આવતાં તેમણે તેની ચમ-કારિક રીતે પૂર્તિઓ કરી આપી હતી. આથી પ્રસન્ન થઈ વીસલદેવે તેમને કવિ સાર્વભૌમ તરીકે જાહેર કર્યા હતા.
અરિસિંહને વીસલદેવની રાજસભામાં પ્રવેશ, અમરચંદ્ર સૂરિને જ આભારી છે. પ્રબંધકાર અરિસિહ અમરચંદ્ર સૂરિના કલાગુરુ હેવાનું નેધે છે, પણ તે વાતમાં વધુ વિશ્વાસ મૂકવા જેટલું વજન નથી. કારણ તે કોઈપણ ઉલ્લેખ તેમણે ગ્રંથપ્રશસ્તિઓમાં, કે પિતાના ગ્રંથનું વર્ણન કરતાં સ્વગુખ નિર્દેશમાં, તેમનું નામ નોંધ્યું નથી. કદાચ બન્ને વચ્ચે સારો પ્રેમ હશે, બન્ને એક બીજાને પરસ્પર મદદ કરતા હશે. તેમણે જ અરિસિંહને પરિચય વિસલદેવને કરાવ્યો હતો, જેથી તે વિવાવિલાસી નૃપતિએ તેમને શાસન
१दधिमथनविलोमलोलद्रग्वेणिदम्भा
दयमदयमनको विश्वविकजेता ।। भएपरिमाकोपत्यकनाणः कृपाण:-। मममिव दिवसादी व्यकशक्तियनति ॥६॥
बालभारत मादीपर्व, सर्ग ११ २ वाणीनामधिदेवता स्वयमसौख्याता कुमारी ततः।
प्रायो प्रावतां स्मरन्ति सरसा याचा दिलासाद्भवम् ।। कुकोकः सुकृतिजितेन्द्रियचयो हर्षः स वात्स्यायनो। म प्रवरो महातपरोवेणीकपाणोऽमर॥३१॥
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રજતસ્મારક] સિદ્ધસારસ્વતાચાર્ય અમરચંદ્ર સૂરિ
૧૦૦ બાંધી આપ્યું હતું. આથી સમજાય છે કે, કવિવર અમરચંદ્ર સૂરિનું, વીસલદેવ પાસે વજનદાર વ્યક્તિ-વ ગણતું તેમાં શક નથી.
સમયાનુકૂળ શબ્દપ્રયેથી, સામાં મનુષ્યનું મનરંજન કરવાની અજબ કળા, આ મહાપુરુષે સાય કરી હતી. રત્નમંદિર ગણી ઉપદેશતરંગિણીમાં તેવો એક પ્રસંગ ટાંકતાં કહે છે કે, એક વખત અમરચંદ્ર સૂરિ સભાસમક્ષ વ્યાખ્યાન આપતા હતા, ત્યારે તેમણે પ્રસંગોપાત મહિમારે સાર સાdowોજના એ લોકાર્ધ સભાસમક્ષ ઉચાયોં. ત્યાગી સાધુના મુખમાંથી આવું શૃંગારિક વાક્ય નીકળતાં, ત્યાં વંદન માટે આવેલ વસ્તુપાલ મહામાત્યને પણ આશ્ચર્ય સાથે ખેદ થશે. પરંતુ સામા મનુષ્યના ભાવ ઉપરથી તેનું હદય વાંચી લેનાર આ મહાનુભાવે તેને ઉત્તરાર્ધ બેલતાં કહ્યું કે
જ મવા રે ! મવાદરા આવા અદ્ભુત અને પિતાને લાગુ પડતા ઉત્તરાર્ધથી, વસ્તુપાલની શંકા દૂર થઈ તેટલું જ નહીં પણ જે પૂર્વાર્ધથી તેણે સાધુપુરુષમાં શૃંગારિક ભાવના કલ્પી હતી, તેને નાશ થયો. જીવનકાળ
અમરચંદ્ર માટે કોઈપણ ગ્રંથમાંથી તેમના જન્મ સમયની નૂધ મળતી નથી. તેથી તેમના જીવનકાળ માટે અમુક વર્ષોને ગાળે કલ્પવામાં આવ્યો છે. તેમના જીવનની બીજી નાની નાની વિગતને છોડી દઇએ તે પણ, તે મહારાજા વીસલદેવના પ્રીતિપાત્ર કવિવર હતા, તે વસ્તુને વિચારતાં અમરચંદ્ર વિસલદેવના સમકાલીન હોવાનું નિશ્ચિત થાય છે. વીસલદેવને રાયકાલ લોબ છે. તેની શરૂઆતની કારકિર્દીમાં પાટણને મંડલેશ્વર હતા. લગભગ સંવત ૧૨૯૪ થી સં. ૧૩૦૨ સુધી તે મંડલેશ્વર જ હતું, પણ ત્રિભુવનપાલના મરણ પછી ગુજરાતની ગાદી ખાલી પડતાં, વિસલદેવ ગુર્જર મહારાજ્યને મહારાજાધિરાજ બન્ય હતું. તેણે સં. ૧૩૧૮ સુધી રાજ્ય કર્યું હોવાનું ઐતિહાસિક રીતે માનવામાં આવે છે. કારણ સં. ૧૩૧૭ના તેના મંડલેશ્વર સામંતસિંહે આપેલ દાન-પત્રથી, તેનું અસ્તિત્વ તે કાળ સુધી હેવાનું જાહેર થાય છે. ત્યાર પછીના વેરાવળના સં. ૧૩૨૦ ના હરસિદ્ધમાતાના મંદિરવાળા લેખમાં, અર્જુનદેવનું નામ છે. એટલે સં. ૧૩૧૭ પછી, અને સં ૧૩૨૦ પહેલાં અર્જુનદેવ ગાદીએ આવ્યો હતો,
અર્થાત્ તે ગાળામાં વીસલદેવ દિવંગત થયે હતા, અથવા તે ત્રિપુરાંતક પ્રશસ્તિ પ્રમાણે અજુનદેવને રાયારૂટ બનાવી, નિવૃત્ત થયા હતા તેમાં શક નહીં.
અમરચંદ્ર વસ્તુપાલ માટે કંઈ સ્વતંત્ર ગ્રંથ લખ્યો નથી, પણ અરિસિંહના સુકૃતસકીર્તનમાં દરેક સગના પ્રાંતભાગે પાંચ પાંચ લેકે તેના બનાવેલા મુક્યા છે. આથી વસ્તુપાલના સમયમાં આ મહાકવિ પ્રતિષ્ઠિત વિધાન મનાતા હતા એમ માલમ પડે છે. તેમણે પદ્મ મંત્રીની પ્રાર્થનાથી, પદ્માનંદ મહાકાવ્ય રચ્યું હતું, જેની પ્રાચીનમત સં. ૧૨૭૭ માં લખાયેલી. ખંભાતના ભંડારમાં વિદ્યમાન છે.* આ કાવ્યના લેખન સમયે, કવિવરની ઉંમર વીસ વર્ષની માનીએ તે, તેમનો જન્મકાળ સં. ૧૨૫૦-૫૫ માં આવે છે. આ સ. ૧૨૫૦ થી, સં. ૧૩૧૮ સુધી એટલે આ શકે ૬૦-૬૫ વર્ષ સુધી તેમને જીવનકાલ નિશ્ચિત થાય છે.
શ્રી. હીરાલાલ ર. કાપડીઆએ પદ્યાનંદ મહાકાવ્યની સંસ્કૃત પ્રસ્તાવનામાં, સં. ૧૩૫ નો સારંગદેવના રાજયકાળમાં લખયેલ, આબુ ઉપરની વિમળવિસતીના શિલાલેખ રજૂ કર્યો છે. આ લેખને લખા
૧ ગુજતન મધ્યકાલીન રાજપૂત ઇતિહાસ, પા. ૪૦૩ ૨ ઇંડિયન એર કરી ૧૧, ૫. ૨૧. ૩ પ્રાચીન લેખમાળા લેખાંક ૪૭, ઇલે. ૯. ૪ પીટર્સનને રીપર્ટ, પા. ૫૮.
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૧૦૧ કનૈયાલાલ ભાઈશંકર દવે
[ મ.જે. વિદ્યાલય વનાર વિસલદેવ નામક કોઈ મંડલેશ્વર છે. પરંતુ આ વીલ, વાઘેલા વીસલથી અન્ય હેય તેમ લાગે છે. કારણ વીસલદેવ સ્વયં ગુજરાતનો મહારાજા હતા, જયારે આ લેખમાંના ઉલેખ પ્રમાણે સારંગદેવના રાજયકાળમાં, કઈ મંડલેશ્વર વીસલદેવે આ દાનપત્ર આપેલું છે. જેથી અમરચંદ્રને જીવનકાળ નિશ્ચિત કરવામાં, આ લેખથી કાંઈ પ્રકાશ પડતો નથી.
તેમનું મૃત્યુ કયારે થયું, તેની પણ ચોક્કસ નોધ કઈ ગ્રંથમાં લેવાઈ નથી. પાટણમાં અષ્ટાપદજીના જિનાલયમાં, આ મહાપુરુષની પ્રતિમા મૂકેલી છે, જે ૫. મહેન્દ્રના શિષ્ય મદન, સં ૧૩૪૮ માં કરાવી
એમ તેની નીચેના પ્રતિમાલેખથી જ્ઞાત થાય છે. આ વખતે તેઓ હયાત નહીં હોય, એવું અનુમાન અગ્ય તો નહી જ ગણાય. અને તે પ્રમાણે તેની બે ચાર વર્ષ અગાઉ તેમનું મૃત્યુ થયાનું ક૯પીએ તો તેમનું અવસાન કાળ સં ૧૩૪૫-૪૭ સુધીમાં આવે છે. પણ આગળની કલ્પના પ્રમાણે તેમનું જીવન ૬૦-૬૫ વર્ષનું નહીં પણ લગભગ ૮૦-૮૫ વર્ષ સુધીનું લાંબુ હશે એવું અનુમાન થાય છે. આ બધા અનુમાને સાચા પુરાવાઓના અભાવે કપવાં પડ્યાં છે. કોઈ વિદ્વાન તે માટે સાચા પુરાવાઓ શોધી કાઢશે તે, તેમના જીવનકાળ ઉપર મેટો પ્રકાશ પડશે. તેમના ગ્રંથ
કવિ અમચંદ્ર સૂરિના ઝાંખા ઘેરા પરિચયમાં, તેમની સાહિત્યસમીક્ષાને રથાન આપવામાં ન આવે, તે તેટલા પૂરતું તે અપૂર્ણ લેખાય તેથી તેમણે સર્જેલા વિવિધ ગ્રંથની ટૂંક સમીક્ષા અત્રે રજૂ કરવામાં આવી છે. કવિવર અમરચંદ્રની મહત્તા, તેમની અગાધ વિદ્વત્તા અને ગુઢ ગાંભીર્ય ધરાવતા અદ્વિતીય ગ્રંથને આભારી છે. તેમના ગ્રંથનું ઊંડું અવગાહન કરી સંપૂર્ણ પરિચય આપવા માટે તે, એક સ્વતંત્ર નિબંધની આવશ્યકતા છે. એટલે અહીં તે તે ગ્રંથોની રૂપરેખા દર્શાવવાને સામાન્ય પ્રયતન છે. આચાર્ય હેમચંદ્રની માફક તેમણે પણ વિવિધ વિષય ઉપર કલમ ચલાવી છે.
૧. ચતુર્વિશતિજિનેન્દ્રચરિત્ર–ગ્રેવીસ તીર્થંકરનાં ચરિત્રને આ ગ્રંથમાં સંક્ષેપ કરી સમાવ્યાં છે, છતાં ચરિત્રની કોઈ પણ હકીકતને ત્યાગ કરી તેમાં ક્ષતિ આવવા દીધી નથી.
૨ પદ્યાનંદ મહાકાવ્ય-પદ્યમંત્રીની પ્રાર્થનાથી આ ધર્મગ્રંથની રચના તેમણે કરી હતી. તેમાં જિનેન્દ્રોનાં ચરિત્રો સુમધુર અને અલંકારિક ભાષામાં, મહાકાવ્યની પદ્ધતિએ પ્રથિત કર્યા છે. આ ગ્રંથના પ્રશસ્તિ સર્ગમાં, વાયટીયગ૭ અને પદ્યમંત્રીની હકીકત આપેલી છે.
૩. કાવ્યકલ્પલતા–આ અલંકાર અને કાવ્ય શાસ્ત્રનો ગ્રંથ છે, તેમાં ચાર પ્રતાને અને ૨૧ તબક્કે છે. મમ્મટનો કાવ્ય પ્રકાશ, રાજશેખરની કાવ્ય મિમાંસા ની માફક આપણું કાવ્યશાસ્ત્રને એક અપૂર્વ ગ્રંથ છે.
૪. બાલભારત-રાજશેખરે જેમ બાલ રામાયણ લખ્યું, તેમ આ કવિવરે મહાભારત ઉપરથી બાલભારતની રચના કરી છે. બ્રાહ્મણે પિતાના ધર્મસાહિત્ય ઉપર તેવા પ્રથ લખે, એ તો સ્વાભાવિક છે. પણ એક જૈન કવિ બ્રાહ્મણોના ધર્મગ્રંથ ઉપર કલમ ચલાવે તે ગૌરવની વાત છે, તેટલું જ નહીં પણ પરસ્પરના ધર્મ પ્રત્યે કેવો સુંદર આદર સેવતા હતા. તેને સારો પુરાવો રજૂ કરે છે. તેમાં એકંદર ૧૯ પર્વ અને બધા મળી ૪૩ સગે છે.
૫. સ્વાદિશબ્દસમુચ્ચય-આ વ્યાકરણ ગ્રંથ ચાર ઉલ્લાસમાં વહેચાયેલે ઈ તેમાં બધા મળી ૫૪ પ્લે છે.
सद १५४९ र पदि शनी मी बायटीयग मौजिनदत्तसरिशिष्य पण्डित भारदमतिः प. महेन्द्रशिष અદ્ભવાનિ જા બિલ અમરચંટની માહૈિ ની લેખ,
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રજત-રપારક]
સિદ્ધસારસ્વતાચાર્ય અમરચંદ્ર સૂરિ
૧૦ ૨
૬. છંદરત્નાવલી–આ ગ્રન્થ છંદશાસ્ત્ર ઉપર રચાયો છે, જેમાં છંદરચના અને તેના પ્રકારે ઉદાહરણ સહીત નોંપ્યા છે. તેને બધા મળી નવ અધ્યાયો છે, જેમાં છેલ્લા બે પ્રાકૃતને અનુલક્ષી લખાયા છે.
૭. પરિમલ–પોતાના સર્જેલા કાવ્યકપલતા નામક કાવ્યશાસ્ત્ર ઉપર આ નામની વૃત્તિ છે. તેના વિભાગોને પ્રસર નામ આપવામાં આવ્યું હોઈ તેવા પ્રસરાની એકંદર સંખ્યા ૧૭ ની છે.
૮. અલંકાર પ્રબોધ-અલંકાર શાસ્ત્રને આ સુંદર પ્રખ્ય હેઈ, તેમાં અલંકારે અને તેના ઉદાહરણો, પિતાના તથા અન્ય વિદ્વાનેના પ્રત્યેમાંથી રજૂ કરવામાં આવ્યાં છે. આ સિવાય પણ તેમના અનેક બીજા અપ્રકટ મચૅ હશે, જે હજુ સુધી બહાર આવ્યા નથી.
આ બધા ગ્રન્થા ઉપરથી કવિની અદ્વિતીય વિદત્તા, અને અગાધ જ્ઞાનને પરિચય થાય છે. તેટલું જ નહીં પણ ગુજરાતને સાહિત્ય સંસ્કૃતિમાં ઉચસ્થાન અપાવનાર, આ મહાપુરુ પ્રત્યે અનન્ય આદર પ્રકટે છે. ઉપસંહાર
આ સમગ્ર નિબંધ ઉપરથી, આ મહાકવિ અને વિદ્વાન પુએ સંસ્કૃત સાહિત્યમાં સુંદર લાગે આપ્યો હતો, એમ ચેકસ જણાય છે. ગુજરાતે શ્રીની સાથે સરસ્વતીની પણ ભક્તિપુરાસર ઉપાસના કરી હતી, એમ આવા વિદ્વાનોના પ્રખ્ય ઉપરથી સિદ્ધ થાય છે. આ સ્વાધ્યાય તૈયાર કરવામાં નીચેના ગ્રાની મદદ લેવામાં આવી હોઈ તેના વિદ્વાન લેખકેને આભાર માનવાનું ભૂલી શકતા નથી.'
૧ પાનંદ મહામ સંત કરતાવના. મી. હીરાલાલ ૨ કપડી -
ઇનામ પ્રસ્તાવના
પ્રશતિ સર્મ ૧૩ ૪ પ્રબંધચિંતામણિ ૫ ચપતિ પ્રબંધ, ૧ ને સાહિત્યને સંક્ષિપ્ત ઇતિહાસ. પી. મેહનલાલ હ. દેસાઈ - ગુજરાતના મહાન સપૂત કલાસ ખેર, આ દરદ થાતી. ૮ ઉપરશતન.
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na Srama Sona Sranana Sramana Sarga ramana Sranana Sana Sranana ramana Srana
The of Svayambhudeva's
Samana Samana Stamaa Sramana Samana Santana Sramana Sumana Stamana Sramana Samana Śramana Sramana Samana Sramana Sramana Srangina Spainaa Sanga Sramana Sram Sranan Sranyina Sramana Sramana Sramana
on
Sramana
Samana Sramana Samana Sramana Sranana Sramana Samana Sramana Samana Sramana Samana Santana Sramana Samana Sramana Sranana Sramana Sranana Samana Sramana Stanana Sranana Samana Srananta Sram Spain
Rāma story in the Mahāpurāna
Sraniana Sramana Sramana Sramana Smana Sramana Samana Sranana Sramana amana Sraman Sramania
Introduction
The Jain Rama-kathās are usually divided into two distinct and independent traditions1: (i) the tradition started by Vimalasūri in his Paūmacariyam2 (ca. fifth century) and (ii) the tradition started by Guṇabhadra in his Uttarapurana3 (ca. ninth century).4 The second tradition is considered to follow an older version of the Rama-story, showing some similarities to the Dasaratha Jātaka and the Rama-story in Sanghadāsa's Vasudevahindi. The first tradition is closest to Valmiki's Rāmāyaṇa. However, comparison between two poems representing these two traditions shows that the line between them is not as clean-cut as is usually supposed. I will try to show that the Rama-stories in Svayambhudeva's Paumacariu5 (ca. ninth century) and Puspadanta's Mahapuraṇa (ca. tenth century) are interrelated, although they are considered to belong to different traditions.7
*
Miss. Eva De Clercq*
Svayambhudeva's Paūmacariu is an Apabhramsa version of the Jain Rama-story in the tradition of Vimalasūri. The Apabhramsa Rāma-story in Puspadanta's Mahāpurāṇa is written according to Gunabhadra's narrative. After scrutinising the relationship between these two poems, I think it is necessary to point out that Svayambhudeva's Paūmacariu also had some influence on Puspadanta's Rāma-story, concerning its form, style, wording, as well as- albeit to a lesser extent- the contents of the Rama-story.
Dept. of Languages and Cultures of South and East Asia, Universiteit Gent, Blandijnberg 2, B-9000 Ghent, Belgium.
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The Apabhramsa epic
The first obvious similarity between the Mahāpurāņa on the one hand and the Paūmacariu and the Rithaņemicariu,8 Svayambhūdeva's Harivamsa Purāņa, on the other hand is the resemblance in style and form. Both Svayambhūdeva and Puspadanta divide their works into sandhi's which are subdivided into smaller kadāvaka's and use a great variety of standardised meters. H.C. Bhayani' already suggested that the similarity of form and style is due to the fact that this steady form of literature, which he calls the Apabhramśa epic, was already stereotyped by Puşpadanta's time. Therefore it cannot be stated that Puşpadanta "borrowed" this style from Svayambhūdeva or any of his predecessors. Since I am here only concerned with the influence of Svayambhūdeva's Paūmacariu on Puspadanta's Rāma-story in the Mahäpurāņa, I will not go into the similarities regarding the general style and form of their poems. Evidence from the introductory Kaļāvaka of Puşpadanta's Rāma-story
An undeniable indication that the Rāma-stories of both poets are interrelated in one way or another, can be deduced from a statement in the introductory kaļāvaka of Puşpadanta's Rāma-story 10 :
sāmaggi ņa ekka vi atthi mahu kairāū sayambhu mahāyariu caūmuhahu cayāri muhāim jahim mahu ekku tam pi muhum khamdiyaūm ... kira kavana liha cirakaihim sahum. so sayanasahāsahiņ pariyariu. sukaittaņu sisaŭ kāim tahim.
Yet, I possess not one utensil. Indeed which scripture (can be compared) to (those of) the poets of old? The great ācārya, kavirāja Svayambhūdeva, he (was) surrounded by thousands of loved ones. Because Caturmukha possessed four faces (mouths), good
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poetry (was) told in that way.
I only have one face (mouth), which is also broken...
(Mahāpurāṇa 69.1.6-9a)
It is common practice in this form of literature that the poet humbles himself before commencing his actual story. Puspadanta states that his work will never be comparable to that of the poets of old. He names Svayambhudeva and Caturmukha as great poets, which is a clear indication that he was familiar with their work. However, since his own Rama-story is modelled on Gunabhadra's version, it seems strange that Puspadanta does not mention his predecessor. The reason why he only mentions the works of Svayambhudeva and Caturmukha as exemplary poems of a Rama-story and not the prosaic version in Gunabhadra's Uttarapurāṇa or indeed any other version, may have different explanations:
(i) Maybe he only mentioned Svayambhudeva and Caturmukha,
because they used the same language, style and form as Puspadanta himself did and neglected to mention Gunabhadra, because his style is completely different but not necessarily inferior.
(ii) Maybe Puspadanta was well-acquainted with the Rama-stories both of Svayambhudeva and Caturmukha, and of Guṇabhadra, but considered Svayambhudeva's and Caturmukha's accounts as literary superior and therefore excluded Guṇabhadra's name. (iii) Maybe he was not acquainted with Gunabhadra's work, whereby he could have heard this particular version of the Rama-story from his teachers.
I believe that if Puspadanta considered only the style of Svayambhudeva and Caturmukha to be superior, he would not have repeated their names at the beginning of his Räma-story, after already mentioning them once at the beginning of his Mahāpurāṇa.11 Yet, because he mentions them for a second time at the beginning of his Rama-story, one can safely assume that he considered their Rāmastory itself to be especially superior. However, Puspadanta does not mention these poets again at the outset of his Harivamsa-story, although both Caturmukha and Svayambhudeva composed a poem
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containing this subject-matter. This suggests that Puşpadanta was impressed with the general style of Caturmukha and Svayambhūdeva, but particularly with their Rāma-stories.
Given the presence of Svayambhūdeva's and Caturmukha's name and the absence of the names of any other poets including Gunabhadra, the question rises why Pușpadanta's Rāma-story was not modelled on the stories of Caturmukha or Svayambhūdeva. This was probably due to ideological reasons. Adopting the narrative of Caturmukha would never have been acceptable since this poet was probably a Brahmin. 12 Svayambhūdeva on the other hand belonged to the Yāpaniya-sect, a sect viewed by the Digambaras as heretics. 13 Nevertheless, Puşpadanta probably felt obliged to stick to the narrative of the school of Guņabhadra because it has an explicit orthodox Digambara background. '4 If this is the fact, then one may assume that the purpose of the first poems in the school of Vimalasūri was different from that of the poems in Guņabhadra's school: Gunabhadra's and Pușpadanta's shorter versions of the Rāma-story emphasise religious aspects and contains extended philosophical treatises on yajña, niti, etc., whereas the oldest carita's in Vimalasûri's tradition are to be considered rather as literary works against a more general Jain background, in which the ideology and philosophy is subordinate to the exemplary Rāma-theme.15 Similarities in Wording in Passages containing the Same Subject-matter.
Puspadanta's Rāma-story bears some resemblance in wording to Svayambhūdeva's Paūmacariu. Bhayani 16 already analysed some similarities between the first sandhi's of the Mahāpurāna and the Paūmacariu, containing the biography of Rşabha. Contrary to this episode the two poems follow different narratives concerning their Rāma-story. About 75% of Pușpadanta's account of the biography of the eighth Băladeva concerns the actual Rāma-story. The remaining portions consist of philosophical and ideological treatises often illustrated with stories of legendary kings. However, only about 20% of Puşpadanta's actual Rāma-story resembles Svayambhudeva's Rāmastory contextually. Therefore the similarities in wording between both
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the Rama-stories are fewer and often more isolated that those in the sandhi's analysed by Bhayani.
Many of the apparent verbal agreements between the two Ramastories, especially those concerning words which are found very frequently throughout both poems and which are part of the basic vocabulary, are not to be considered as evidence of borrowing from the part of Puspadanta. As Bhayani17 already pointed out, these similarities are rather due to a certain degree of standardisation in the vocabulary and stylistics in the Apabhramsa epic than to instances of borrowing. Nevertheless, some other similarities in wording concern words which are not frequently used throughout the poems and are not part of the basic vocabulary. There are also instances of similarities which occur in many subsequent verses. They may be all ascribed to willing or unwilling borrowings from the part of Puspadanta. I have put together a selection of contextually similar verses containing these verbal agreements which indicate borrowing.
Paŭmacariu
1. After the birth of Dasaratha's sons:
21.5.1b-218
ṇāi mahā-samudda mahi-bhāyaho. ṇāī danta givvāṇa-gaindaho
ṇāī maṇoraha sajjaṇa-vindaho.
3.
Mahāpurāṇa
69.13.1b-319
nam tuhinagirimdamjanasihari. ṇam gamgājaūṇājalapavaha ṇam lacchihi kīlāramaṇavaha. ṇam puņņa maṇoraha sajjaṇaham ṇam vammaviyāraṇa dujjaṇaham.
2. Description of Rama before Sītā is given to him in marriage:
21.12.7-820
70.12.1321
miliya ṇarähiva je jage jāņiya dhanukodicaḍāviyaghaṇaguṇahu sayala vi dhaṇu-payāva-avamāṇiya.
darisiyavaīrivirāmahu.
ko vi ṇāhi jo tāï caḍāvai jakkha-sahāsahū muhu darisävaī.
Hanumat visits Sitä in order to persuade her to come back with him to the mainland. This passage in the Mahāpurāṇa contains many echoes, although spread over three kaḍāvaka's, from the corresponding passage in the Paūmacariu:
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49.18.2222
73.26.8a29 haū so rāma-dua sampãiu suņi rāmadūu haum kaha na homi 50.2.1623
73.25.230 niya jaņaại vi eva na anusarai dhukkai kaivarimdu tahi niyadai Somitti jema pai sambharai. kaīguņa aņusarastao. 50.2.9a24
73.25.10631 tiha paí sumarai devi janaddaņu paīm sumarai aņudiņu rāmasāmi 50.4.2225
73.26.3a32 paccāriu niya-maņe cintantie tā sīyai cimtiu niyamaņeņa 50.5.6a26
73.26.8633 ņammaya viñjhu tāvi ahiņāņas gūļhaim ahiņāņavayāīm demi 50.5.10627
73.26.934 Kāi ņa pai anhuhūās ekkahim diņi paīm kiu paņayakou avaloyani-sīhaņāya-phalai. chimkiu rāhavu anuhuttabhou. 50.6.4628
73.25.7635 parihiu angutthalaŭ turantie sahum amgutthaliyai ghittu lehu 4. In the Paūmacariu and in the Mahāpurāņa respectively Angada
and Hanumat are sent to Rāvana as messengers to plead a peaceful solution: 58.1.9236
74.4.1637 tam ņisuņevi rāmem; jottiu dūyabhari puņu so iji dhavalu niggaya-ņāmem;
ņihayāvai. angaū jottiu dūa-bhare.
Although the narrative concerning the battle of Lankā differs in both poems, the Mahāpurāņa does show some similarities, especially concerning the structure, in some kadávakas with the corresponding episode in the Paūmacariu: 63.12.2-838
78.2.3-1240 ko vi mahăvalu para-valu nindai' kā vi bhanai ettadaum kareijasu ko vi bhanai mahu kallae indai. paū pacchămuhum paha ma deijasu. ko vi bhanai mahu toyadavāhanu' gayapadiyāgayapayaparitha vanem ko vi bhanai' so-suu mahu săranu'. sahai kaimdu pa bhadu bhayagamanem.
ko vi bhanai' pau pai jayakārami kā vi bhanai jam maim thanamamdium Jama na kumbhayannu rane märami'. tam gayadamtaham sam,uhum uddium.
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ko vi bhanai' haũ maya-mariccahu bhiḍami rahu jiha candäiccahu'. ko vi bhaṇai' mahu marai mahoaru chuhami kayanta-vayaṇe vajjoaru'. ko vi bhaṇei karami taŭ pesaņu pesami jamvumāli jama-sāsaṇu'. ko vi bhaṇai'haya-gaya-raha-vāhaṇu mahu avaggau rāvaṇa-sahaṇu'.
75.11.2-839
rāmaṇeņa visajjiu kulisa-daṇḍu så vi råmem kiu saya-khanda-khandu. rāmaṇeņa samāhaŭ pāyaveṇa so vi bhaggu mahatthem vayaveṇa. rāmaṇēņa visajjiu giri vicittu so vi rámem vali jiha disahi ghittu. aggeu mukku dasa-kandhareṇa
ulhaviu so vi varuṇa-sarena. rāmaṇeņa visajjiu pannayatthu sõ vi gāruḍa-vāṇehi kiu ņiratthu. ramaṇena gayanaṇa-sara vimukka täha mi vala-vana-mainda dhukka.
rāmaṇeņa visajjjiu sāyaratthu tam mandara-ghaem niu niratthu.
74.13.10a44
Soniya-jala-paharaṇaggirehī vasuhantarāla-bahayala-gachi.
74.14.745
kim vacchayalu näha namdesai puņu alimgaṇasuhum mahu desai. kā vi bhaṇai raņi ma kari niyattaņu
suyarijjai pahubhūmiņiyattaņu. kim puņu mahimamdalu vitthinṇaum icchiyacayabhoyasampannaum. dejjasu patthivacimtaṇivāraum khaggasalilu vairihim tisagāraum kā vi bhanai piyayama peyälai
vasatuppem riusīsakavālai. haum divaū bohesami jaiyahum oväium mahu pūrai taiyahum. kā vi bhaṇai padiena vi pimdem mahivi pisallau māsahum khamdem.
6. Description of how the dust raises during the fight:
74.1242
Hari-khurahau rau samucchaliu
78.15.4-1341
rāmaṇeņa mukku ṇāu lakkhaṇeṇa pakkhirāu. ravanena amdhayāru lakkhanena mukku sūru. ravaneņa meru camḍu lakkhaṇeṇa vajjadamdu. rāvaṇeņa āsu āsu lakkhaṇeņa serihîsu. rāvaṇeņa vārivāhu lakkhaṇeṇa gamdhavahu.
rāvaṇeņa ciccijāla lakkhaṇeņa mehamāla. rāvaṇeņa damti dihu lakkhaṇeņa mukka sihu. ravaneba rakkhasimdu lakkhaṇeņa kheuvimdu. rāvaṇeṇa rattiṇāhu lakkhaṇeṇa mukka rāhu. rävanena mukku rukkhu lakkhaṇeņa dunnirikkhu.
jalu piyai va gaya-maya-dahe
athāhe nhai va soniya-vāhiņi-pavāhe
77.9.543 harikhurakhaṇittakhau nam
maramtu; utthiu dhūlīrau paya dharamtu.
77.9.17646
soniyagalavāhīṇiyahi līṇaū.
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7. Especially striking is the close resemblance between the episodes
in both poems following Rāvana's death. In a sequence of three kaļāvaka's in the Paūmacariu describing Rāvana's mourning loved-ones, more than half of the verses contain one or more verbal similarities to the corresponding passages in the Mahāpurāņa. This episode in the Paūmacariu is usually47 regarded as one of Svayambhūdeva's poetically most appreciated passages. That may be an indication that Puşpadanta also was so deeply impressed with this episode that he was either unwillinglyunable to shake of Svayambhūdeva's influence concerning this passage, or willingly modelled his passage on Svayambhūdeva's episode. 76.2.2-348
78.23.1-249 tahi avasare maņi-gana- appaữ rayaņakiranavipphuriyai
vipphuriyahe uppare karu karevi niya-churiyahe churiyai haņai jāvahim.
appaứ haņai vihisaņu jāvehijiviu viddavamtu kayasamtihim mucchae ņās ņivāriu tāvehi. mamtihim dhariu tāvahim. 76.3.2b-850
78.24.3b-852 tuhű na muo 'si musí vandiya-janu. siya na hitta hitta pariyasadihi.
tuhũ padio'si na padiu purandaru råmu na kuddhu kuddhu jagabhakkhau maudu na bhaggu bhaggu giri-mandaru. lakkhanu pa bhidiu bhidiu kulakkhau.
ditthi na pattha nattha lankiuri cakku na mukku mukku jamasāsaņu våya na nattha patha mandoyari. tam nau laggau laggu hyyāsaņu.
hăru na tuttu tuttu tărâyaņu vacchu na bhinnu bhinnu dharaniyalu hiyau na bhiņņu bhiņņu gayaņanganu. ruhiru pa galiu galiu saijanabalu. cakku na dhukku dhukku ekkantaru tuhum naū padiu padiu kāminiganu äu na khuttu khuttu rayaņāyaru. tuhum na muo si muũ vibaliyajanu. jiu pa gau gau ăsă-pottalu
cettha na bhagga bhagga Jamkāuri tuhũ na suttu suttau mahi-mandalu. ditthi na sunna suņņa mamdoyari.
siya na aniya aniya jamauri hari-vala kuddha na kuddhå kesari. 76.4.1-851
78.23.4-1253 sayala-surăsura-diņņa-pasamsaho aiju sarăsai satthu na suyarai
alju amangalu rakkhasa-vamsaho. aiju kitti dasadisahim pa viyarai. khala-khuddahő pisunahữ diviyaddhahũ jayasiri patta aiju vihavattanu ailu manoraha suravara-sandhahū gayau aiju pahu sattipavattaņu.
dumduhi vaijau galau sayaru alju imdu bhayavasahu ma gacchau aiju taval sacchandu divāyaru. aiju camdu sabum kamtii acchaū.
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1.
2.
111
3.
Borrowings concerning subject-matter
In some points Puspadanta deviates from the version of Gunabhadra, bringing new elements into the story or borrowing elements from the tradition of Vimalasuri. In his critical study of Vimalasūri's Paūmacariyam, Chandra56 already briefly pointed out some deviations from Guṇabhadra in Puspadanta's Rāma-story which indicate borrowing from Vimalasūri's tradition:
6.
ajju miyanku hou pahavantau vâu vău jage ajju saittau. ajju dhanau dhaṇa-riddhi niyacchau ajju jalantu jalaņu jage acchaũ. ajju jamaho nivvahau jamattaņu
ajju kareu indu indattaņu. ajju għanai pūrantu maṇoraha ajju ņiraggala hontu mahāgaha. ajju paphullau phalau vaṇāsai ajju gau mokkalau sarāsai.
7.
76.2.6a54
hā hā bhāyara ṇa kiu ṇivāriu
ajju tivvu nahi tavaû diņesaru ajju suyau niccimtu phaṇisaru. ajju jalaņu jālaū vitthārau vaivasu ajju saicchai mārau.
ṇeriu ajju rimchu āvāhau dikkariulu mā kāsu vi bihau. ajju varuņu appāņu pasamsaũ ajju vāu uvavaṇaim vihamsau. ajju kuberu kosu ma dhovau ajju kāmu appāṇaum jovau. bhayara paim gai ṇārayathāṇahu ajju nayari namdau isăṇahu.
78.24.9a55
hā bhāyara kim na kiu niväriu
He is also referred to as Ramachanda (e.g. Mahāpurāṇa, 78.26.2)59
4. Lakṣmaṇa is named after his qualities (Mahāpurāṇa, 69.12.12)60
5.
Rāma strings his bow to terrify the enemies, while protecting Janaka's sacrifice (Mahāpurāṇa, 70.12.12-13)61
Dasaratha has four queens, who each bear one son (Mahāpurāṇa 69.12.8-13 & 69.14.10)57
Rāma is sometimes called Pauma or Poma (e.g. Mahāpurāṇa, 78.29.3)58
Śūrpaṇakha is called Candaṇahi (e.g. Mahāpurāṇa 71.11.7 & 71.18.2)62
Hanumat tells Sitä about her lovers-tiff with Rāma (Mahāpurāṇa 73.26.9-27.3)63
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8.
10.
Additionally I have found a few more deviations which appear to be instances of borrowing from the tradition of Vimalsūri:
9.
11.
1.
2.
3.
Vibhiṣaṇa fails to kill himself with a dagger. (Mahāpurāṇa, 78.23.1-2)64
4.
112
12. The Mahāpurāṇa contains an extensive passage on the mourning of Rāvaṇa's loved ones (Mahāpurāṇa 78.21-29)68 and the description of the war and its preparations are more extended than the ones in the Uttarapurāṇa (Mahāpurāņa 75.78.19). Analysis of the similarities between the traditions
71
According to Vimalasūri, 69 Raviṣeṇa70 and Svayambhudeva,7 Dasaratha has four queens. Guṇabhadra only refers to three queens. However, according to Vimalasūri the four sons were born out of three queens. The reference in the Mahāpurāṇa to four queens, who all bear a son, is either borrowed from Ravişena or from Svayambhudeva.
Puspadanta explicitly refutes the Rama-stories of Valmiki and Vyāsa (Mahāpurāņa 69.3.11)65
The story of Rama is at one time referred to as Pomacaritta (Mahāpurāṇa, 69.3.12)66
Puspadanta explicitely refers to Bahurūpiņi (e.g. Mahāpurāṇa, 70.4.8 & 78.16.2)67
In the Uttarapuraṇa Rama is nowhere referred to as "Lotus", Padma (due to his pale hue and the shape of his eyes) whereas in the works of Vimalasuri's tradition this is very common. This indicates that the few references to Padma in the Mahāpurāṇa are a borrowing from either Vimalsūri, Ravisena or Svayambhudeva.
Svayambhudeva is the first poet in his tradition to refer to Rāma as "Moon", Rāmacandra.72 Since Gunabhadra does not use this name, we may state that Puspadanta has borrowed it directly from Svayambhudeva.
:73
Vimalsūri and Ravişena' 74 state that Lakṣmaṇa's name was derived from the fact that he possessed good qualities. Neither
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Gunabhadra nor Svayambhūdeva directly refer to this. However, the word lakṣmana itself means "endowed with auspicious signs or qualities". The fact that the Daśaratha's second son possessed good qualities is implied in the name "Lakşmaņa" itself. Therefore any further explanation of why he was named "Lakşmaņa" is not necessary to understand that he possessed good qualities. One cannot say for certain that the direct reference in Pușpadanta's Mahăpurāņa as to why Lakşmaņa was named "Lakşmaņa" should be considered as a borrowing from either Vimalasūri or Ravişeņa, since Puşpadanta could have come to this statement by himself. Neither Guņabhadra nor Pușpadanta refer to Rāma's and Sītā's engagement, the episode of the bow or the svayamvara. According to them, Janaka promises Rāma his daughter's hand in marriage if he can protect his sacrifice. Pușpadanta also mentions that Rāma strings his bow to warn off the enermies. Whether this reference to a bow in the episode preceding the wedding of Rāma and Sītā should be considered as evidence of the influence of Vimalsūri's tradition is rather doubtfull, since Rāma is constantly depicted as an excellent archer. Puşpadanta may again have come to this statement by himself. Pușpadanta and Vimalsūri, Ravişeņa and Svayambhūdeva all refer to Sūrpanakhā as Candranakhā. Both Puspadanta and Svayambhūdeva use the for, Candanahi in their Apabhramsa poems, instead of Candanahā or Candaņaha. Whether this is evidence of direct borrowing from the part of Puşpadanta is uncertain, since the original Sanskrit feminine endings in-a are in some cases substituted by-i in Apabhramba.75 The use of this name in Puşpadanta's poem may therefore be ascribed to a borrowing from either of the three poets. Puspadanta's, Vimalsūri's 76 and Ravişeņa's 77 versions all share a reference to an anecdote of Rāma's and Sītā's lovers-tiff. However, the position of this reference in Vimalsūri's and Ravişena's Rāma-story differs from the one in the Mahāpurāņa. In the Paūmacariyam and the Padmapurāņa Sītā narrates Hanumat
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some personal stories, one of which concerns the lovers-tiff, which he is instructed to tell Rāma at his return to the mainland. In Puşpadanta's account on Hanumats arrival, Sītā doubts whether he is a genuine envoy of Rāma. In order to convince her, Hanumat tells her the story of the lovers-tiff. In Svayambhūdeva's account there is no reference to this anecdote. He does however describe how Sītā doubts whether Hanumat is genuinely sent by Rāma,78 a reference absent from Vimalasūri's and Ravişena's accounts. Hanumat tells her some stories about Rāma's life in exile in order to convince her. The reference to the lovers-tiff itself is probably borrowed either from Vimalasûri or Ravişeņa, while the reference to Sītā's doubt in the Mahāpurāna is borrowed from the Paūmacariu. Vimalasūri,79 Ravişeņa, 80 Svayambhūdeva81 and Puspadanta all share an episode in which Vibhișana attempts to kill himself with a dagger. According to Vimalasűri and Ravişeņa, he is saved by Rāma's intervention. In Svayambhūdeva's account of this episode. Vibhīşena's suicide-attempt fails because he faints at the point were he tries to stab himself. According to Puşpadanta he is saved by his ministers. Together with all of the poets in the school of Vimalsūri, Puspadanta refutes the traditional Hindu Rāma-stories in his introductory verses. None of the poets, except for Puspadanta, explicitly mention Vālmīki and Vyāsa as the poets who wrote these "false" Rāma-stories. They all state why these Hindu versions should be refuted. These statements are quite similar in all the works. It is therefore uncertain which of the three authors was Puşpadanta's source for this reference in the Mahāpurāņa. In the Mahāpurāņa, the poet refers to the story of Rāma as Padmacaritra. 82 Since references to Rāma as "Padma" are already quite few in Puşpadanta's Rāma-story, the mentioning of the Rāma-story as Padmacaritra can be considered as a very clear reference to the Rāma-stories of Vimalasūri's school.
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11.
12.
Vimalasūri,83 Ravisena84 and Svayambhudeva85 all refer to Ravana's acquisition of the Bahurupiņi Vidyā. Neither Gunabhadra nor Puspadanta refer to this episode. Nevertheless Puspadanta uses the word "bahurūviṇī" on numerous occasions in connection with Rāvaṇa's ability to change his appearance. This is probably a borrowing from any of the three poets in Vimalasūri's tradition.
In Gunabhadra's version of the Rama-story, the mourning of Rāvana's loved ones is referred to in only one verse. 86 Puspadanta on the other hand describes Ravana's wailing loved ones in about nine kaḍāvaka's. Both Vimalasūri's 87 and Ravisena's88 account of this episode is quite extensive. Nevertheless, given the similarities in wording concerning this episode, one can safely assume that Svayambhudeva's Paūmacariu89 was Puspadanta's source for these passages. The passages surrounding the war in Lanka take up fifty-five kaḍāvaka's in the Mahāpurāṇa, making it proportionally almost twice as long as the corresponding passages in the Uttarapurāṇa.90 Since these episodes also contain a large number of verbal agreements, especially concerning the structures of the individual kaḍāvaka's, to the Paūmacariu, these extents are probably due to influence from Svayambhudeva.
Two of the apparent similarities indicated by Chandra, are not indubitably due to a borrowing (no. 4 & 5). The majority of the other similarities can be assigned to borrowings from either of the oldest poems in the tradition of Vimalasūri (no. 2, 6, 8, 9, 10 & 11). One of the similarities is either borrowed from Vimalasūri or Raviṣeņa (no. 7) and another one either from Ravişeṇa or Svayambhudeva (no. 1). Only three similarities are definitely due to direct borrowing from Svayambhudeva's Paūmacariu (no. 3, 7 & 12). However, considering Puspadanta's statement in his introductory kaḍāvaka to the Rama-story and given the fact that there are some striking similarities in wording between the Mahāpurāṇa and the Paūmacariu, it is probable that most of the similarities which could be due to borrowing from any of the three poets, were in fact borrowed from Svayambhudeva himself.
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Conclusion
There is no doubt that the Rāma-story in Puspadanta's Mahāpurāna is modelled on the story in Gunabhadra's Uttarapurāņa, whether he knew it directly or learned it through some other unknown source. Nevertheless, as the analysis of the similarities in subject-matter suggests, Puşpadanta's Rāma-account also contains strong evidence that he was well-acquainted with the narrative of Vimalasūri's tradition.
Although both poets follow a different narrative, the Rāmaaccount in the Mahāpurāņa contains some striking similarities in wording to parallel passages in Svayambhūdeva's Paūmacariu. Added to this, Puşpadanta gives two references to Svayambhūdeva, the first at the beginning of the Mahāpurāņa and the second in the introductory kaļāvaka to his Rāma-story. This evidence suggests that many of the deviations in subject-matter from Guņabhadra's story-line in the Mahāpurāņa are probably rather due to direct borrowing from the Paūmacariu than from any of the other poems in Vimalasūri's tradition.
It is therefore clear that Puspadanta was influenced also by Svayambhūdeva, not just concerning form and style, but also concerning wording and subject-matter.
For more information on the Jain Rāma-kathās in general; cf. Narasimhachar, D.L. 1939. 'The Jaina Rāmāyanas', The Indian Historical Quarterly Vol. XV, No. 4:575-594; Kulkarni, V.M. 1959. 'The Origin and Development of the Rāma-story in Jaina literature', Journal of the Oriental Institute Vol. IX, No. 2: 189-204; Kulkarni, V.M. 1960. "The Origin and Development of the Rāma-story in Jaina literature', Journal of the Oriental Institute Vol. IX, No. 3: 284-304; Chandra, K.R. 1970. A Critical Study of Paumacariyam. Muzaffarpur:
Research Institute of Prakrit, Jainology and Ahimsa, Vaishali. 2. Edited by H. Jacobi: Jacobi, H. (ed.) & Punyavijayaji, M.S. 1962.
Ācārya Vimalasûri's Paumacariyam with Hindi translation- part I (Prakrit Text Society Series No. 6). Varanasi: Prakrit Text Society; Jacobi, H. (ed.) & Punyavijayaji, M.S. 1968. Acārya Vimalasūri's Paumacariyam with Hindi translation - part II (Prakrit Text Society Series No. 12). Ahmedabad: Prakrit Text Society.
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3.
Edited
4.
Edited by P. Jain: Jain, P. (ed.). 1954. Mahapurāņa (Vol. II); Uttar Purāna of Ācārya Gunbhadra -with Hindi translation (Jñānapītha Mūrtidevi Jain Granthainālā - Sanskrita Granth No. 14). Kāshi: Bhāratiya Jñanapitha. Since the majority of the authors of Rāma-stories in Vimalasûri's tradition belonged to the Svetămbara-sect and in Gunabhadra's tradition to the Digambara-sect, one might consider the first tradition to be Svetāmbara and the second Digambara. However, it is not clear to which sect Vimalasūri himself belonged. Ravişeņa, whose Padınapurāņa is considered to be little more than an extended translation of the Paūmacariyam into Sanskrit, was a Digambara. (The Padmapurāna was edited by Jain: Jain, P. (ed.). 1958-1959. Padamapurana of Ravisenācārya -With Hindi translation, 3 Vols., Jñānapitha Mürtidevi Jain Granthamālā - Samskrit Grantha No. 20, 24 en 26. Käshi: Bhāratiya Jñānapitha). Svayambhudeva belonged to the Yāpanīya-sect, a sect situated between the Svetāmbaras and the Digambaras. This indicates that the Svetămbara-label, which one tends to ascribe to Vimalasūri's trandtion, only applies to the later Rāma-stories in this tradition. Critically edited by Bhayani: Bhayani, H.C. (ed.). 1953a. Paūmacariu of Kavirāja Svayambhūdeva (A Pre-tenth Century Purāņic Epic in Apabhramsa) Critically edited for the first time with an elaborate Introduction, Index Verborum and Appendices - Part First (Vidyādhara Kānda) (Singhi Jain Series Vol. 34). Bombay: Singhi Jain Shastra Shikshapith - Bharatiya Vidya Bhavan; Bhayani, H.C. (ed.). 1953b. Paumacariu of Kavirāja Svayambhudeva (A Pre-tenth Century Jainistic Răma-epic in Apabhramsa) Critically edited for the first time with an elaborate Introduction, Index Verborum and Appendices - Part Second (Ayodhyā Kānda and Sundara Kanda) (Singhi Jain Series Vol. 35). Bombay: Singhi Jain Shastra Shikshapith - Bharatiya Vidya Bhavan; Bhayani, H.C. (ed.). 1960. Paumacariu of Kavirāja Svayambhūdeva (A Pre-tenth Century Jainistic Rāma epic in Apabhramsa) Critically edited for the first time with an elaborate Introduction, Index Verborum and Appendices - Third Part(Yuddha Kānda and Uttara KāņdaXSinghi Jain Series Vol. No. 36). Bombay: Adhişthātā, Singhi Jain Śästra Śikṣapitha - Bharatiya Vidya Bhavan. Critically edited by Vaidya: Vaidya, P.L.(ed.). 1940. The Mahāpurāņa or Tisatthimahāpurisagunālamkāra (a Jain Epic in Apabhramsa of
6.
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7.
cf. Narasimhachar, D.L. 1939: 575-594; Kulkarni, V.M. 1959: 189204; Kulkarni, V.M. 1960: 284-304; Chandra, K.R. 1970: 265-272. Critically edited by Tomar: Tomar, R.S. (ed.). 1993-1997. Svayambhudeva's Ritthaṇemicariya (Harivamśapurāṇa) (4 Vols.) (Prakrit Text Series No. 25, 27, 30 & 31). Ahmedabad: Prakrit Text Society.
9.
Bhayani, H.C. (ed.). 1953a: 31 (introduction).
10.
Cf. Vaidya, P.L. (ed.). 1940: 368.
11. He first refers to Svayambhudeva and Caturmukha in 1.9.5a: caumuhu sayambhu siriharisu doņu ...
Cf. Vaidya, P.L. (ed.). 1937. The Mahapurāṇa or Tisatthimahāpurisaguṇālaṁkāra (a Jain Epic in Apabhramsa of the 10th Century) of Puspadanta (Vol. I) (Manikchand Digambara Jaina Granthamālā No. 42). Bombay: Manikchand Digambara Jaina Granthamālā: 9. Note that this passage does not contain any reference to Gunabhadra either.
8.
12.
13.
14.
the 10th Century) of Puspadanta (Vol. II) (Manikchand Digambara Jaina Granthamālā No. 41). Bombay: Manikchand Digambara Jaina Granthamälä: 368-525.
118
Cf. Bhayani, H.C. 1933. 'The Apabhramsa Poet Caturmukha', pp. 195-208 in Bhayani, H.C. Indological Studies: Collection of Research Papers on Indological Subjects. Ahmedabad: Parshva Prakashan: 195. Since none of the works of Caturmukha have been discovered up to this day, I cannot say for certain whether or not he has had any influence on Puṣpadanta's Rāma-story. However, since he probably was a Brahmin, it is unlikely that his influence on the Mahāpurāṇa concerns more than mere details.
Cf. Dundas, P. 1992. The Jains. London: Routledge: 43. Gunabhadra and his gurus implicitly refute the Rama-story of Raviṣena who also belonged to the Digambara-sect. This is probably due to the fact that Ravisena's Padmapurāṇa, modelled on Vimalasūri's Paumacariyam, contained some inconsistencies regarding sectarian doctrine, as Chandra (Chandra, K.R. 1970: 280-283) already pointed out, and that it had the story of Rāma, and not the biographies of all the sixty-three great men, as its central theme. Gunabhadra and his gurus may subsequently have considered it to be too unorthodox..
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15. The fact that the central theme of the oldest works in the school of
Vimalasūri, viz. the Paumacariyam, the Padmapurāņa and the Paumacariu, is the story of Rāma or Padma alone, while Gunabhadra and Pusspadanta integrated this story into the biographies of the sixty-three great men, supports this theory. Ravişeņa is perhaps an
exception in the school of Vimalsūri (cf. supra). 16. Bhayani, H.C. (ed.). 1953a: 31-36 (introduction). 17. Id.: 31. 18. Cf. Bhayani, H.C. (ed.). 1953b: 3. 19. Cf. Vaidya, P.L. (ed.). 1940: 375. 20. Cf. Bhayani, H.C. (ed.). 1953b: 7. 21. Cf. Vaidya, P.L. (ed.). 1949: 397. 22. Cf. Bhayani, H.C. (ed.). 1953b: 232. 23. Id. 24. Id.: 233. 25. Id.: 234. 26. Id. 27. Id. 28. Id.: 235. 29. Cf. Vaidya, P.L. (ed.). 1940: 442. 30. Id. 31. Id. 32. Id. 33. Id. 34. Id.: 443. 35. Id.: 442. 36. Cf. Bhayani, H.C. (ed.). 1960: 7. 37. Cf. Vaidya, P.L. (ed.), 1940: 448. 38. Cf. Bhayani, H.C. (ed.). 1960: 47. 39. Id.: 151. 40. Cf. Vaidya, P.L. (ed.). 1940: 484. 41. Id.: 493
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42.
Cf. Bhayani, H.C. (ed.). 1960: 140.
43. Cf. Vaidya, P.L. (ed.). 1940: 478.
44. Cf. Bhayani, H.C. (ed.). 1960: 141. Id.
45.
46.
Cf. Vaidya, P.L. (ed.). 1940: 479.
47.
Tomar, R.S. (ed.). 1993: 9.
48.
Cf. Bhayani, H.C. (ed.). 1960: 158.
49.
Cf. Vaidya, P.L. (ed.). 1940: 499.
50. Cf. Bhayani, H.C. (ed.). 1960: 158.
51.
Id.: 159.
52.
53.
54.
55.
56.
Cf. Vaidya, P.L. (ed.). 1940: 500. Id.,: 499.
67.
Cf. Bhayani, H.C. (ed.). 1960: 158.
Cf. Vaidya, P.L. (ed.). 1940: 500.
Chandra, K.R. 1970: 294-295; Chandra also refers to a passage in Puspadanta's story where a tilaka is applied to Sītā's forehead, which he believes to be a borrowing from Valmiki's Rāmāyaṇa. However, given the fact that Puspadanta also names Caturmukha as a great poet and since Caturmukha is considered to be a Brahmin (Cf. Bhayani, H.C. 1993: 195), it is possible that this passage was borrowed from Caturmukha instead of Valmiki. However, one can't be certain about this, until a manuscript of Caturmukha's Rāmāyaṇa is discovered. Cf. Vaidya, P.L. (ed.). 1940: 374-375.
57.
58.
Id.: 503.
59.
Id.: 501.
60.
Id.: 375.
61.
Id.: 397.
62. Id.: 409 & 414.
63.
Id.: 442-443.
64.
Id.: 499.
65.
Id.: 369.
66.
Id.: 369.
Id.: 393 & 494.
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68. Id.: 498-503. 69. Paumacariyam 22.100-108 (cf. Jacobi, H. (ed.) & Punyavijayaji,
M.S. 1962: 210). 70. Padmapurāna 22.170-176 (cf. Jain, P. (ed.). 1958: 470-471) 71. Paūmacariu 21.4.9 (cf. Bhayani, H.C. (ed.). 1953b: 3). 72. The name "Rāma-moon" may be considered as somewhat odd, since
according to tradition Rāma belonged to the Solar race, not to the Lunar race. Probably this is not a reference to the Lunar race, but
simply to the pale colour and the purity of the moon. 73. Paūmacariyam 25.11 (cf. Jacobi, H. (ed.) & Punyavijayaji, M.S.
1962: 216) 74. Padmapurāņa 25.26 (cf. Jain, P. (ed.). 1958: 491) 75. Cf. Singh. R. 1980. Syntax of Apabhramśa. Calcutta: Simant
Publications India: 5. 76. Paūmacariyam 53.66-68 (cf. Jacobi, H. (ed.) & Punyavijayaji, M.S.
1962: 352) 77. Padmapurāņa 53.156-157 (cf. Jain, P. (ed.). 1958: 334. 78. Paūmacariu 50.4.2-10 (cf. Bhayani, H.C. (ed.). 1953b: 234) 79. Paūmacariyam 74.1-2 (cf. Jacobi, H. (ed.) & Punyavijayaji, M.S.
1968: 423) 80. Padmapurāņa 77.1-2 (cf. Jain, P. (ed.). 1958: 71) 81. Paūmacariu 76.2.2-3 (cf. Bhayani, H.C. (ed.). 1960: 158) 82. In literary terminology caritra is a variant for carita. 83. Paūmacariyam 67.46 (cf. Jacobi, H. (ed.) & Punyavijayaji, M.S.
1968: 401) 84. Padmapurāna 67.6 (cf. Jain, P. (ed.). 1978:9) 85. Paūmacariu 72.12.4 (cf. Bhayani, H.C. (ed.). 1960: 122) 86. Uttarapurāņa 68.633 (cf. Jain, P. (ed.). 1954: 322) 87. Paūmacariyam 74 (cf. Jacobi, H. (ed.) & Punyavijayaji, M.S. 1968:
423-426) 88. Padınapurāņa 77 (cf. Jain, P. (ed.). 1978: 71-76) 89. Paūmacariu 76 (cf. Bhayani, H.C. (ed.). 1960: 157-164) 90. Uttarapurăņa 68.515-632 (cf. Jain, P. (ed.). 1954: 314-322)
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Sanita Banana 51:272.02. Sri Variana Sam Sm? Sanana Sun . SANAWIN Soma
Samana Sama Toan Snyrti YI0.19 atau auras SC . Srama 7. S
a n. Sinan:
S a Sauna Sram SONOS S121.. Sama Sam Sramona SARAN
Duli Chand Jain*
Introduction
We are living in a scientifically and technically advanced world divided into "Developed", "developing" and the "Under-developed" regions. A keen competition is going on everywhere. Only a few are thriving and prospering whilst a majority of people lead a life of scarcity, want and improverishment. There is tension, worry and unhappiness in the life of every one. Mr. F.L. Lucas, an English Critic said, "Many a times, after pondering, I am amazed that some day the human civilisation would come to an end, not by an atom bomb, or famines or any such means, but it would come to an end by man's own intellect and deterioration of self-control in the midst of the tension of the highly artificial civilisation."
Role of religion
Under these circumstances we have to examine, how Jain religion can play a positive role in mitigating the sufferings of the common people. Jainism is one of the oldest religious traditions of the world. A long generation of Tirthankaras, Ācāryas, saints and scholars belonged to this tradition. Lord Mahāvira was the twentyfourth Tirthankara of the present era. Mahāvīra, born with no supernatural powers, rose by the dint of his determination, selfdiscipline, compassion, forbearance and other qualities of heart to the highest position among men and acquired the status of a Tirthankara or omniscient.
Mahavira and his Teachings
Lord Mahāvīra observed rigorous austerities spread over for * Jain Industrial Corporation, 70, Sembudoss Street, Chennai-600001.
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twelve and a half years till he achieved Kevala-Jñāna (omniscience) which was his aim behind initiation in the ascetic order. He faced many adversities and calamities brought upon by natural and supernatural forces during this period. In the thirteenth year of his ascetic order, he attained infinite knowledge, infinite intuition and infinite bliss. Only after obtaining omniscience, he began to preach and give discourses. He stressed the importance of right faith, right knowledge and right conduct. He stated that a man can rise high only by humility, noble conduct and discipline. He established Caturvidha Sangha (the four-fold congregation) of monks, nuns, laymen and laywomen so as to provide proper guidance to the monks and nuns and to inspire and stimulate the laymen and laywomen in their religious practices. In the Sangha established by Lord Mahāvīra there was no difference between men and women. Both were regarded as equal. The women were also initiated as nuns, which was a great revolutionary step at that time.
Now we have to examine how the teachings of Lord Mahāvīra can improve the life of ordinary people and bring peace and prosperity to them. Some critics say that the principles of Jainism are so difficult that they cannot be practised by ordinary people. This is a fallacy. Teachings of Lord Mahāvira are grouped into two parts, 1. Teachings, to Sramaņas (mendicants) and teachings to householders (Śrāvakas). Śramaņas have no doubt to follow very rigorous and extensive restraints because they proceed on the path of "Sarva-virati" or total renunciation. Once they take "pravrajyā" (renunciation), they have to observe the Panch Mahāvratas or the five great vows of total abstinence from violence, untruth, stealing, sexual indulgence and possessions. They proceed on the path of liberation which is the state of infinite counciousness, absolute freedom and eternal bliss. They devote their whole life to scriptural study, service to the Guru and dedicate themselves to preaching. But so far as the householders are concerned, the teachings of Lord Mahāvīra are much simpler. Thirty five Rules of Conduct
Jain Ācāryas have described the duties and responsibilities of the laity elaborately. These are called 35 virtues of a Mārgānusars (one
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who follows the path shown by Jinas). These rules prevent a laity deviating from the spiritual path and prompt him to rise higher. It is the means by which he gets the right attitude of living. Due to these virtues he begins to stop the Karmic influx. From the sincere practice of these rules, his soul gets purified. Ācārya Sri Bhuvanbhanusoorishwarji has nicely classified these rules into following four groups in his book "A Handbook of Jainology" :
Eleven Obligatory Duties II. Eight derogations that ought to be discarded III. Eight virtues to be cultivated and
IV. Eight endeavours to be carried out with diligence. I. The Eleven Duties
A householder devotee should follow some kind of business, trade or profession, which is not of an ignoble or degrading nature. He should do so in a just and honest way and in proportion to his capital, or in case of employment under other people, in proportion to his strength. The business should not harm any men, animals, fish, birds or insects. Therefore the business must not be that of a butcher, brewer, wine merchant, gun-maker or anything which involves destruction of life. When money is earned honestly the mind remains peaceful and the wealth is enjoyed without any disturbance.
The layman should not marry a person from the same lineage. He should marry a person of different Gotra but with similar character, taste, culture and language etc. This will result in harmonious relationship thereby rendering discord and misunderstanding less likely. He should respect parents and elders. He should serve the ascetics who come to him for Bhiksā (food) as well as guests with due respect. He should also help the needy and destitutes and satisfy their needs. He should maintain his dependents and make them work for the well being of the family. He should live in a house which is not accessible to thieves and rogues and cannot be entered by undesirable people. He should dress according to his means but the dress should be decent and not gaudy. His expences should be in proportion to his income.
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He should eat and drink at the proper time in conformity with his constitution. Excessive eating shouldbe avoided. Food should be taken only at home. He should fast when he is suffering from indigestion.
II. Discarding eight Derogations.
These include giving up (i) calumny, (ii) betraying the trust, deceiving and cheating, (iii) gambling, (iv) the six internal foes viz. anger, pride, deceit, greed, attachment and aversion, (v) places of danger like battle field, places having apedemic or famine etc. (vi) meat eating, intoxicants and (vii) crimes which might lead to imprisonment.
He should properly perform his household duties but should not be careless in his religious duties.
III. The eight virtues to be cultivated
A layman should acquire the habit of discretion between right and wrong acts and should keep away from ignoble sinful acts. He should be a far-sighted person and plan properly for the future needs of his family. In undertaking any responsibility, he should always consider his strength and weaknesses. He should always keep his temperament, voice and appearance gentle and serene.
IV. The eight endeavours
He should always keep the company of noble people and admire their virtues. He should have compassionate attitude towards all and help everyone without selfishness. He should express gratitude to all who help him with humility.
A layman should have Svādhyāya of holy texts everyday and he should listen the discourses of monks and nuns. He should try to understand Tattvas and meaning of Dharam Śāstras to know the path of right faith, right knowledge and right conduct.
These virtues are prescribed so that a laity gains material prosperity and also spiritual advancement in his life. Thus we find that Jaina Acaryas have given very deep thought to practical day to day life of the laities. All these qualities will make a laity spiritually
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concious and make his life peaceful and harmonious.
Practice for higher advancement
Those who want to rise higher in spiritual life, must follow five Aņuvratas (primary vows) prescribed for a householder which consists of partial observance of non-violence, truthfulness, non-stealing, chastity (to refrain from all illicit sexual relationships) and nonpossession. A householder should devote part of his time in Dāna (charity), Seela (virtuous life), Tapas (austerity) and Bhāvanā (purification of thoughts).
Non violence
Non-violence is the sense of equality of all living creatures. If you feel that every soul is independent and autonomous, you will never trample on its right to live. This leads you to compassion and kindness towards all living beings and results in harmony and peace in the world. The principle of non-violence in Jainism embraces not only human beings but also animals, birds, plants, vegetables and creatures of earth, air and water. It is the holy law of compassion extended to body, mind and speech of a living being. Lord Mahāvīra says, "All living beings desire to live. They detest sorrow and death and desire a long and happy life. Hence one should not inflict pain on any creature, nor have any feeling of antipathy or enmity. One should be friendly towards all creatures." (Ācāränga Sūtra, 1.2.3.4)
The other vows
All the other vows peached in Jainism are only an extension of the vow of non-violence. Truthfulness is essential to keep order and harmony in society. There are moments in life when one has to take hardships to keep up one's convictions. In business and in our dayto-day dealings our truthfulness is put to test. We have to practice it constantly to maintain our integrity. While observing the vow of nonstealing, one is required to earn his livelihood by honest means. We violate the vow of Aprigraha by accepting and holding what is not needed by us. What we possess in surplus has to go to those who need it badly. The principle of continence is significant in maintaining the morals in society.
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Thus we see that these principles, preached by Lord Mahāvīra, are universal in character and are applicable to every individual in any society. These simple rules can be practised without the least philosophical speculation, even by ordinary people. Integral View of Life
Jainism takes an integral view of life. Eighter faith or only knowledge by itself cannot take us to the path of salvation. We should have a combination of right faith, right knowledge and right conduct to tread the path of salvation. These constitute the three jewels of Jainism. Without right faith, there is no right knowledge and without right knowledge there is no virtuous conduct. Lord Mahāvīra says, "By knowledge one understands the nature of substances; by faith on believes in them; by conduct one puts an end to the flow of karmas and by austerity one attains purity." (Uttarādhyayana Sūtra, 28.35)
Concept of Karma
The significant achievement of Tirthankara Mahāvīra's revolution in spiritual field was the upholding of the concept of Karma in place of God, the creator. He said that man is the architect of his own destiny and he can rise only by his own efforts and not by the grace of any external agency. God is devoid of attachment, hence there is no need for him to create this universe, which is beginingless and endless.
Every inexplicable event in the life of an individual occurs due to the karmas accumulated in his previous birth. Karma is conceived as something essentially material which get interlinked with soul which is concious. As particles of dust get attached to the body smeared with oil, so does karma with the soul. Lord Mahāvīra says, "Attachment and aversion are the root causes of karma and karma originates from infatuation. Karma is the root cause of birth and death and these (birth and death) are said to be the source of misery." (Utta.Sū 32.7). He further adds, "None can escape the effect of their own past karmas. (Utt.Sū. 4.3).
Religion in Day to Day Activities
A householder should lead his life in Such a way that he
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continues religious practices faithfully everyday. There are six essentials which a Śrāvaka (householder) is expected to practise everyday in his life. These are enumerated below: 1. Sāmāyika : It is defined as follows : "Sāmāyika is to be devoid
of attachment and aversion and to be indifferent to life and death, gain and loss, fortune and misfortune, friend and foe, joy and sorrow" (Mūlācāra 23). A householder should do at least one Sāmāyika a day for 48 minutes. In this period, he should remain aloof from his domistic and business activities. He should devote his time in self-contemplation, meditation and scriptural study. Caturvinshati stava : Worship of twenty four Tīrthankaras by reciting their Stotras and Bhajans. Tirthankaras are deities free from attachment and aversion and by their worship we try to adhere to atleast some of their virtues in our life. Vandanā : A Śrāvaka should go everyday to the Sãdhus (mendicants) and Sädhvis (nuns) and offer his reverential salutation. Association with such holy people results in development of virtues in life. Pratikramana : In this, self-contemplation and introspection should be done in the morning and in the evening. He should check up whether he is developing good qualities. If he has committed any mistake he should repent for the same so that such mistakes do not recur. Kāyotsarga : This literary means abandonment of body. It is done in a standing or sitting posture of meditation. This helps in keeping the mind under control. It is said, "Just as fire fanned by powerful winds destroys heaps of firewood in no time, so also the fire of meditation destroys heaps of Karmas in no time." (Dhyana - Satak 101). Pratyākhyāna : A Śrāvaka should take some vows everyday to purify his life. The aim of life is to realise the distinction between body and soul. The soul is everlasting but the body is perishable. Through Pratyākhyāna we develop qualities of self
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and abondon the negative traits which hamper our spiritual progress.
Jain Art of Living
Jainism is a living religion. There are numerous monks and nuns and nearly ten million laities continuing the tradition, following virtually the same path prescribed by Jinas. Though the path of monks and nuns is very difficult, the path prescribed for the householders is much simpler. Here the stress is laid on simplicity and nobility. They should lead a life full of virtues and should keep away from the six vices.. This has resulted in harmony and peace in individual and family life. Due to this, even in the modern age Jaina laity practises complete vegetarianism and do not take any intoxicants. They are also socially councious and run a large number of Charitable Institutions for the cause of education, medical benefits and for service to the downtrodden.
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Sramana Samana Srbina Sr.mans Sawi Srna Samana Samaria Samuna Sauna Samana Samaria Saimana Sramana Samana Samana Samana Santana Srainata Sarana Sama Samana Samara Stathana STAR
B2W
Lupa ST.Scudowa an UTONU
Sramana Samana Samana Samana Sauti Sarana Samana Santana Sernana Sranana Sranambia Starmeņa Saunana Samana Samana Samana Samana Santana Samana Sramana Samana Samana Sraunara Sranana
Kireet Joshi*
The ancient Indian tradition looked upon the Veda as a book of knowledge, and it has since been revered as the origin and standard of all that can be held as authoritative and true in the Brahmanas and the Upanishads, in Tantras and Puranas, in the tradition of great philosophical schools and in the teachings of famous saints and sages. The composers of the great mass of Vedic inspired poetry were given the name Kavi, which had the sense of a seer of truth, the Veda itself describes them as "kavayah satya shrutah”, seers who are hearers of the truth and the Veda itself was called, Sruti, a word which came to mean “revealed Scripture".
It is true that the ritualistic commentators, Yajnikas, tried to explain everything in the Veda as Karmakanda as distinguished from Upanishads, which came to be identified as Jnanakanda, but both Upanishads and the Gita look on the Veda as a “Book of Knowledge". The seers of the Upanishads frequently appealed to the authority of the Veda for the truths themselves announced and these two (Vedas and Upanishads) afterwards came to be regarded as Sruti. All the orthodox systems of Indian philosophy accept Sruti as a supreme authority for spiritual knowledge. According to the current interpretations, however, the hymns of the Veda are nothing more than the naive superstitious fantasies of materialistic barbarians concerned only with the most elementary moral notions or religious aspirations, although it is admitted that there are occasional passages of profound wisdom. These interpretations look upon the Upanishads as a true foundation or starting-point of the later religions and philosophies. And they point out that the Vedas were a revolt of philosophical and * President, Dharam Hinduja International Centre of Vedic Research,
C-141, Preet Vihar, Delhi-110092.
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speculative mind against the ritualistic materialism of the Vedas.
This is not the occasion to discuss these current interpretations, but it may be urged that if these interpretations were correct, we would be obliged to believe that the profound and ultimate thoughts, systems of subtle and elaborate psychology that we find, in the substance of the Upanishad took birth out of a previous void, a position that can be accepted only by denying the sound principle of the progress of the human mind according to which knowledge is built by a slow growth from knowledge to knowledge or by renewal and enlargement of previous knowledge or by working on all imperfect clues leading new discoveries.
It would, therefore, seem logical to accept the ancient Indian tradition that the Upanishads are truly Vedanta, both as an end of the Veda and as the pinnacle of the knowledge contained in the Veda. We may also urge that in ancient Europe, too, the schools of intellectual philosophies were preceded by the secret doctrines of the mystics. It can easily be admitted that the Orphic and Eleusinian mysteries prepared the rich soil of mentality out of which sprang Pythagoras and Plato. Could we not suppose similar starting- point for the later march of thought in India? Indeed, the forms and symbols of thought, which we find in the Upanishads, and much of the substance of the Brahmanas can be traced to period of the Vedic Samhitas in India in which thought took the form or veil of secret teachings such as those of the Greek mysteries.
It may be seem that the secret spiritual and psychological teaching was expressed in the Veda in a figurative and symbolic language, and the Rishis of the Veda expressed their knowledge, in secret words, ninyă vachamsi, that conveyed their meanings to the initiated or awakened in knowledge. There are two great works of Sri Aurobindo, “The Secret of the Veda” and “Hymns to the Mystic Fire”, which showed convincingly the secret import of Vedic terms, the sense of Vedic symbols and the psychological functions of the Gods that were looked upon as various aspects or names of the One and Supreme Reality. In the light of these great works, it is easier now to elucidate effectively the Vedic system of knowledge and the parts
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of the Upanishads that remain yet unintelligible or ill-understood as well as much of the origin of the Puranas. It is also easier to explain and justify rationally the whole ancient tradition of India and to affirm that the Vedanta, Puranas, Tantra, the philosophical schools and. the great Indian religions do go back in their source to the Vedic origins, and we can now confidently claim that the so-called incoherencies of the Vedic texts exists in appearance only because the real thread of the sense is to be found in an inner meaning, and that the hymns appear in the light of the real thread as organic wholes and expressions, which are just and precise.
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The contents of the Vedas may rightly be seen, not as speculations of intellectual thought, but as discoveries made by certain faculties, the operations of which can, it is claimed, perceive truths and realities directly, intimately and by identity. There are explicit references in the Veda to these faculties, which are given symbolic names, the meanings of which are no more difficult to determine. If we study the hymns addressed to Bharati or Mahati, to Ila, Saraswati, Sarma and Daksha, we can see1, that Bharati or Mahati is the faculty that. perceives luminous vastness, that Ila is the faculty of revelation, Saraswati is the faculty of inspiration, Sarmii is the faculty of intuition and Daksha is faculty of discrimination. They are, we might say, to use the expression of the Upanishads, the inner faculties that are the source of our outer faculties, the inner eye of the outer eye, the inner ear of the outer ear, chakshushah chakshuh, shrotrasya shrotram, manso manah, vācho vācham, prāṇasya prāṇah. And if we study the Vedic texts more closely, we shall find in them the secrets of the processes of the Vedic Yoga by means of which these faculties can be brought out of their latency, cultivated and perfected. And if we inquire as to what were the contents of the knowledge gained through the exercise of these faculties, we shall discern in the texts of the Veda, not indeed a systematic body of philosophy, but which can still be described as a doctrine of the mystics, a doctrine, the terms of which are complete, the structure of which is supple, and the thought of which is practical and experimental, vibrating with sure experience. 1. Vide in particular, Rigveda 1.13.19, 10.110, 1.8.8, 5.4.4, 1.3, 5.45, 1.104.5, 3.31.6, 4.16.8, 1.72, 1.62.
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This doctrine is related to the mystery of the Ultimate Reality, the secret of the manifestation of the universe, the complexity of the relationship between the transcendental,universal and the individual, the individual in the bondage of the triple cord of the body, life and the mind, and the individual in the process of expansion and universalisation by the aid of cosmic powers, gods and goddesses against the obstructing forces of ignorance, Vritra, Dasyus, Panis, etc., and the individual liberating itself from a hundred iron walls like an upsoaring Swan or the Falcon and wresting from the jealous guardians of felicity the wine of the Soma, the drink of which bestows the realisation. of immortality and summits of perfection.
It is in the Vedas that we find the original synthesis of which the synthesis of the Upanishads and of the Bhagavadgita are later developments and which is once again present in a significant way in the synthesis of the Tantras and which is also the acknowledged part of the latest integral philosophy and Yoga of Sri Aurobindo. It is in the Vedas that we find the secret clues to the difficult and subtle concepts of Brahman, Atman, Purusha, Ishwara, of Māyā, Prakriti, Shakti, of Akshara and Kshara Purusha, of Apară and Pară Prakriti, of Purushottama, Aditi, and Jiva, of the timeless eternal and of timeeternity, of Adhidaiva, Adhibhuta, Adhyatma and Adhiyajna, of Swabhava and Dharma and Swadharma and of a number of other concepts, which we find in the various systems of Indian philosophy. It is in the Veda that we find the source of orientation of Indian philosophy towards liberation, moksha, and its ceaseless striving to develop scientific processes of Yoga by which one can attain to Brähmisthiti., Nirvana, Kaivalya, Salokya Mukti, Sayujyamukti, Sadharmyamukti, and various other perfections of the lower and the higher instruments through which the soul in bondage strives to attain and soul in liberation manifests the highest divine Beatitude.
The Veda may rightly be considered to be a vast and complex product of the Age of Intuition; it is a record of intuitive experiences of the loftiest order. The peculiar system of images through which these experiences were expressed, can be considered to be the beginning of symbolic or figurative imagery, which reappears constantly in the later Indian writings, in the figures of the Tantra and the Purana,
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in the figures of Vaishanava poets, and they are to be found also in a certain way even in the modern poetry of Rabindranath Tagore. The Veda helps us to understand the original shaping not only of the master ideas that govern the mind of India, but all its characteristic types of spiritual experience, its turn of imagination, its creative temperament and the kind of psychic forms in which we persistently interpret self and things and life and the universe.
There are three characteristics of the Vedic hymns: firstly, there is among them a constant sense of the infinite, of the cosmic; secondly, there is a tendency to see and render spiritual experience in a great richness of images taken from the inner psychic plane or in physical planes transmuted by the stress of a psychic significance and impression and line and idea colour; its third tendency is to image the terrestrial life often magnified, as in the Mahabharata and Ramayana, or else subtlised in the transparencies of a larger atmosphere. As a result, when we study the Veda, we find that the spiritual, the infinite, is near and real and the gods are real and the world beyond not so much beyond as immanent in our own existence.
Upanishads come much later than the Vedas, since they were preceded by Brahmanas and Aranyakas that intervened after the purity of the Vedic knowledge began to be forgotten or lost considerably. It appears that, but for the search of the Upanishads, the ancient truths of the Veda and the flowering of the intuitive faculties would have been followed by the pragmatic and theoretical intellectuality in such a way that the development of the Indian philosophy would have taken a turn quite different from what it actually took, and it could have been divorced gradually, as it happened in the West, from the earlier mystic and spiritual tradition. The way in which the Upanishads took birth and developed in India does not seem to have any parallel in the history of any country in the world, and the significance of the Upanishads, can, therefore, be perceived as a unique feature of the resurgence in the ancient cycle of the age of intuition.
We have to note that the Rishis of the Upanishads were, like the Vedic Rishis, seers of the truth and they cannot be described merely as philosophical thinkers, although the truth they perceived by
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intuitive faculties was clothed by lesser imagery and instead with a strong body of intuitive idea and disclosing image. The language of the Upanishads has a special quality of ideal transparency through which we are enabled to look into the illimitable; we feel concretely how those Rishis fathomed things in the light of self-existence and saw them with the eye of the infinite; the words of the Upanishads remained always alive and inmortal and of inexhaustible significance.
The Upanishads can easily be perceived as books of knowledge, but knowledge in the profounder Indian sense of the word ynāna. This,knowledge is not a mere thinking and considering by the intelligence, the pursuit and grasping of a mental form of truth for the intellectual mind but a seeing of it with the soul and a total living in it with the power of the inner being, a spiritual seizing by a kind of identification with the object of knowledge. Sri Aurobindo points out that it is by an error that scholars sometimes speak of great debates or discussions in the Upanishads. As he explains, "Wherever there is the appearance of a controversy, it is not by discussion, by dialectics or the use of the logical reasoning that it proceeds, but by a comparison of intuitions and experiences in which the less luminous gives place to the more luminous, the narrower, faultier or less essential to more comprehensive, more perfect, more essential. The question asked by one thinker of another is “What dost thou know?" not “What dost thou think?" nor "To what conclusion has thy reasoning arrived?" Nowhere in the Upanishads do we find any trace of logical reasoning urged in support of the truths of Vedanta. Intuition, the sages seem to have held, must be corrected by a more perfect intuition; logical reasoning cannot be its judge."?
The Upanishads are rightly regarded as the supreme work of the Indian mind; they are epic hymns of self-knowledge, world- knowledge and God-knowledge, and they have seized the message of the Intuition and formulated it in three declarations, which have profoundly influenced the subsequent developments of knowledge and thought, "I am lie," "Thou art That, 0 Shevatketu.” “All this is the Brahman; this Self is the Brahaman."
2.
Sri Aurobindo: The Life Divine, Centenary, Edition, Vol. 1 8, p.69.
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In due course, however, the age of the intuitive knowledge represented by the Upanishads gave place to the age of rational knowledge. The inspired Scripture made room for metaphysical philosophy, even as afterwards metaphysical philosophy gave place to experimental science. The Vedantic psychology itself had recognised the role of Reason and determined its place as something intermediate between the physical senses and supra-rational Intuition. This psychology did not condemn Reason but recognised only its limitations. The development of the Reason by a process of continuous questioning, pari prashnena.was emphasised, but it also laid down the processes of Yogic methods by which intellect could be brought to a state of concentration on the real or supreme object of knowledge, so that, in a state of complete impartiality and absence of any subjective interference, the object of knowledge can be directly perceived, sākshātkāra. The Kathopanishad gives us in the following verses the interrelationship between senses, mind, intellect and the real Self, the great Object of knowledge:
"Now he that is without knowledge, with his mind ever unapplied, his senses are to him as wild horses and will not obey their driver of the chariot.
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"But he that has knowledge with his mind ever applied, his senses are to him as noble steeds and they obey the driver.
"Yea, he that is without knowledge and is unmindful and is ever unclean, reaches not that goal, but wanders in the cycle of phenomena....
"That man who uses the mind for reins and the knowledge for the driver, reaches the end of his road, the highest seat of Vishnu. "Than the senses the objects of sense are higher: and higher than the objects of sense is the Mind: and higher than the Mind is the faculty of knowledge: and than' that the Great-Self is higher.
"And higher than the Great-Self is the Unmanifest and higher than the Unmanifested is the Purusha: than the Purusha there is none
higher: He is the culmination, He is the highest goal of the journey."3
3. Kathopanishad, First Cycle, Third Chapter, 5,6,7,9,10,11.
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This scheme of Vedantic knowledge has been basically accepted not only by the orthodox Indian philosophies but also by other systems of philosophy with some modifications except, of course, the materialistic philosophy of Charvaka. It may be said that Indian philosophers recognised in the Shruti, the earlier results of intuitions, an authority superior to Reason. Those who did not recognise the Shruti, however, still refer to the intuitive or spiritual experience to be higher than Reason and as the goal to be attained for purposes of liberation, mukti, kaivalya, nirvana. But these philosophers, at the same time, started from Reason and tested the results it gave them, holding only those conclusions to be followed, which were supported by the supreme authority of Shruti or direct spiritual experience.
If we study closely the development of Indian philosophy, we shall find that intellectual speculations tended at first to keep near at the centre to the highest and profoundest experience and proceeded with the united consent of the two great authorities, Reason and Intuition. But in the later developments of Indian philosophy, the natural trend of Reason to assert its own supremacy triumphed in effect over the theory of its subordination. This can be seen clearly if we examine the history of the rise of conflict among schools, each of which founded itself in theory on the Veda or on spiritual experience and used its texts or its formulations as weapons against others. Thus unity of the first intuitive knowledge was broken and ingenuity of the logicians was always able to discover devices, methods of interpretations, standards of varying value by which inconvenient texts of the Scripture or formulations of spiritual experiences could be practically annulled and an entire freedom acquired for their metaphysical speculations.
The Age of Reason in India, which succeeded the early age of Intuition, reached climactic peaks, and the movement of the Indian mind during this age is represented by two simultaneous developments: on one side, there was strenuous philosophical thinking, which got crystallised into the great philosophical systems; and on the other side, there was an equally insistent endeavour to formulate in a clear body and with strict cogency an ethical, social and political ideal and practice of a consistent and organised system of individual and
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communal life, which resulted in authoritative social treatises or shastras.
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But after centuries of what may be called the strong early manhood of the people and its culture, there came about a long and opulent maturity and, as its sequence, an equally opulent and richly coloured decline. The Veda continued throughout this long period as a major influence and its offshoots developed like a huge banyan tree. A stage was reached when the grand basic principles and lines of Indian religions, philosophies, and social and political institutions had already been found and built; but there was still ample room for creation and discovery, and there were powerful developments of science, art and literature. We also find great development of the hedonistic and sensuous sides of experience in a pre-eminent manner. We notice that a tendency that had begun in earlier times and created. Buddhism, Jainism and great schools of philosophy reached its greatest time of elaborate and careful reasoning, minute criticism and analysis and forceful logical construction and systematisation in the abundant philosophical writings of the period between the 6th and 13th centuries marked specially by the works of the great Vedantic philosophers, Shankara, Ramanuja and Madhwa. Thereafter, too, the intellectual rigour did not cease but survived its greatest days and continued even up to the 18th and 19th centuries. For we find, even in these later periods, emergence of great creative thinking and often new subtle philosophical ideas in the midst of incessant stream of commentary and criticism on established lines. As a result, there was a tremendous diffusion of the philosophical intelligence with the consequence that even an average Indian, once awakened, responds with. a surprising quickness to the most subtle and profound ideas.
But there was no doubt a gradual decline and even a great eclipse, although something of spiritual light continued to burn and the lamp of the Veda and the Upanishads never got extinguished. Nevertheless, there came about increasing ignorance, superstition and obscurity.
It is, however, remarkable that at the moment when the Indian intellectual light seemed to have drawn to a close, it began to revive at the first chance and there has begun again another cycle.
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This new cycle commenced with the emergence of Brahmo Samaj, Arya Samaj, and the movement associated with the great names of Shri Ramakrishna and Swami Vivekananda, as also a strong neo-Vaishnavic tendency. Brahmo Samaj combined the Vedantic inspiration and a strong dose of religious rationalism and intellectualism. The three stages of its growth corresponded with the philosophies, respectively, of Jnanayoga, Bhaktiyoga and Karmayoga. Arya Samaj founded itself on a fresh interpretation of the truth of the Veda and an attempt to apply old Vedic principles of life to modern conditions. Shri Ramakrishna and Swami Vivekananda have provided a very wide synthesis of past religious motives and spiritual experiences with a pronounced return to Vedanta. The neo-Vaishnavism has clearly declared the Veda and Upanishads, Bhagavadgita as its sources.
As we entered into the 20th century, Indian philosophy reached surprisingly its peak achievements in Sri Aurobindo. Sri Aurobindo provided not only a new synthesis of the Vedic synthesis, Upanishadic synthesis, synthesis of the Bhagavadgita and of Tantra, but also a new discovery and a new philosophy and Yoga of the integral aim of life, The philosophy of "The Life Divine" is a most comprehensive system, which has come to be acknowledged as the greatest synthesis of the East and the West.
In the academic circles of Indian philosophers, we find a serious understanding of the long history of various schools of Indian philosophy and also a comparative study in the light of strenuous study of the Western thought. Some of the best philosophers of India have attained high competence and even mastery over Western thought, and a few of them are being included among the front-rank philosophers of the world. In all these, currents of, philosophical thought, the Upanishads have played a major role, and it is becoming clearer that even the Veda needs to be revisited so as to derive from it fresh springs of re-invigorating waters.
Sri Aurobindo's great contribution in bringing to light a new interpretation of the Veda that establishes the Veda as a book of knowledge has brought back the primacy of the Veda, and considering that his major philosophical work "The Life Divine” contains a re
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statement of the Vedic knowledge in terms accessible to modern thought is a remarkable testimony of the perennial significance of the Veda in Indian philosophy. Thus the re-envergence of the Veda in our own times connects the past to the present, but does not imprison us to the past; on the contrary, the new spiritual experience and philosophical thought are also evident, and as we look forward to new developments in Indian philosophy, we are bound to hear again the prayer of the Veda welcoming new knowledge:
युगेयुगे विदथ्यं गणद्भयोऽग्ने रयि यशसं धेहि नव्यसीम्।४
O Fire, found for those who from age to age speak the word that is new, the word that is a discovery of knowledge, their glorious treasure.
4.
Rigveda, VI. S. 5.
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Saxman Sam Sma Semana Sromuna Sram Srung Sranang Semain Spania Saunara Sraman: baina Dutakavya sraman Semana Samana Samana Samana Sramung
Dr. Ashok Kumar Singh*
Dūtakāvya or Sandeśakāvya is a popular genre of lyric poetry. Messenger poems, as they may be called, occupy an important position in Sanskrit literature. Dūtakāvyas are very significant on account of their high poetic conception and abundance of exquisite fine poetry. Mostly, these depict the pathetic state of the pangs of separation suffered by lovers. The topographical information furnished by them ads importance to them. Depicting inanimate but moving
jects or irrational creatures as carrying a message constitutes the distinct feature of Dutakāvyas in general. Meghadūta of Kālidāsa is its first representative in literary form. But it is not definite to which work or works; Kālidāsa was accountable for this peculiar and at the same time poetic conception. However, rather identical concepts are traceable in works positively dated prior to Kālidāsa. Rgveda (10.108) refers to Saramā, a dog, sent as a messenger to the Paņis. The two great epics Rāmāyaṇa and Mahābhārata represent irrational beasts as performing the duties of messengers. The former mentions the sending of message by Rama to Sītā through Hanumāna while the latter that by Yudhisthira to Kauravas through Krsna and by Nala to Damayanti through the swan. The idea of Rama's message is considered as the source of inspiration for Kālidāsa. Besides, the scholars opined that even outside India prior to Kālidāsa era, there were works closely similar to the form and ideas of the Dūtakāvyas. The Kāmavilāpajātaka describes the sending of a crow as messenger by a man in danger to his wife. The Chinese man of letter, Hsū Kan (196-221 AD) who translated the Prajñā mūlaśästrațūkā of Nāgārjuna, refers to the request by a lady to carry a message to her lord. Probably, these works influenced the Great poet i.e. Kālidāsa. May be the idea
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Senior Lecturer, Parshwanatha Vidyapeetha, Varanasi.
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of the poem was first suggested to Kālidāsa by the Yamakakāvya of Ghatakarpara, one of the nine gems of the court of Vikramāditya.
The rhetoricians left it undefined, Dandi (Kävyädarśa) enumerated Sanghāta among the divisions of poetry. His commentators elucidated this variety Sanghâta and cited Meghadūta as its example. Meghadūta employs a single theine and a single metre Mandākrāntā. Paramesvara, a commentator of Meghadūta, clearly states that the poet composed this work belonging to Sanghāta category.
The history of the development of Dutakavya literature in Sanskrit in Jaina tradition begins with that of the imitations of the Meghadīta. Pārsvābhyudaya of Jinasena l(8th cent. AD), incorporating the whole of the verses of the former by way of Samasyāpürti. The advent of Pārsvābhyudaya marks the most significant development in the history of the Dütakāvya literature as it introduces the sentiment of tranquility in this genre, earlier dominated by that of erotic. Jaina tradition paved the way for several poet-philosophers to utilise their Dūta works in furnishing religious and philosophical doctrines as in Šīladūtam. A number of Jaina poets composed messenger poems in form of Vijñaptipatras- serving the purpose of letters- required to send to their religious preceptors living far away, with a view to acquaint them with the works they were doing for the furtherance of the Jaina Faith e.g. Cetodüta, Indudūta etc.
This new element occurred in the Dütakāvya is, at the same time, a testimony to the immense hold that this genre had on the people. The philosopher and the leaders of the religious sects hit upon the noble idea of reaching the masses through their works in this form. The Jaina Ācāryas may be credited to have for the first time utilised this genre for the publication of religio- philosophical tenets.
Generally, the subject matter of the most of these Dütakāvyas is more or less mythological in character. The heroes and the heroines, depicted herein, are persons of mythological fame e.g. Neminātha, Pärsvanätha and Sthūlabhadra. It is interesting to note that barring in the Vijñaptipatras type Dütakavyas, non- mythological (historical or imaginary) heroes or heroines are absent. Generally. it comprises a message sent by a separated lover to his beloved, living far away.
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Sometimes, it may also be the lady, sending message to her lover. The separation is caused due to a number of reasons like the effect of a curse, a journey for pilgrimage, by divine forces and so on. A chosen messanger is entrusted to convey the message, after reaching through a particular route, suggested by the sender. In most cases the sentiment will be love in separation. Some subsequent poets, especially Jaina Acāryas used this style of composition for ethical and philosophical teachings also. They also adapted this lyrical subdivision to express their dedication and devotion towards their Gurus.
In course of time, poets employed all kinds of messengers as the go between. The messengers include cloud, wind, moon, bee or parrot. Further, a host of other messengers too, were entrusted with the task of carrying the message. Most of later Dūtakāvyas, employ birds as messengers, probably adhering to line with the swan's employment as a messenger in Nala-Damayanti story, occurring in Mahābhārata. For style, diction or delineation of sentiments, these works owe much to that of the Meghadūta, but for the use of birds as a messenger, these owe probably to a much older source. Each poet tried to employ a different bird to serve as a messenger. This greater variety of messengers had added charm to the poetry. Had poets as messengers used the same birds, the Dūtakāvyas would have been a mass full of dull and insipid poetry. This phenomenon provided an opportunity to the poets to employ their skill, too. Those Dūtakāvyas treating abstract conceptions like morality, as a messenger are by the poets, whose minds are highly obsessed with philosophical conceptions. Generally, the philosophical conceptions are too obvious and abstract for a common man, often beyond his reach. But for the thinkers and preachers aiming to preach their religion to a common man, it becomes imperative to put them in a form, acceptable to them. The poets intend to inculcate the highest truths of their religion through the medium of their literature. Most of these Dūtakāvya treating abstract conceptions as messengers are composed by the Jainas. Their apparent aim in choosing the abstract conceptions as messengers is to propagate the principles of Jainism. It is attribute to the ingenuity of the poets that they chose the medium of Dūtakāvyas, which since ages has caught the fancy of the people of the country. Jaina Acāryas held that just
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as the people could sing the verses of Meghadūta they could also sing the verses of Cetodūta or Śīladūta, too and consciously or unconsciously imbibe the principles and doctrines enunciated therein. Probably, these works were composed for the adherents of Jainism to acquaint them more fully with its principles and the doctrines in a language they could very well understand.
The messengers applied in Dūtakāvyas may be classifaied in :
(i) natural phenomenon- Megha (cloud), Pavana (wind), Candra (moon). (ii) natural objects- Padma (lotus), Padapa (tree), Patra (leaf), Tulasi (a particular plant), (iii) material objects- Mudgara, (iv) human beings, (v) abstract conceptions- Mānasa (mind), (vi) Birds- Hansa (swan), Kokila (cuckoo), Cakrawāka (anas casarca), Bhramara (bee), Mayura (peacock) and misc.
There is a definite in the standard of the message poem and those emulating Kālidāsa observed it. Kavikulacūḍāmaṇi is ranked superior to all other poets of ancient India. The other Dūtakāvyas modelled after him naturally suffered, by way of comparison. Though some of these might have been ranked as specimens of good poetry e.g. Nemidūtam of Vikrama. Again, the decline in the general standards of literary activity in all branches of learning is also a reason. Kālidāsa's age is regarded as Golden Age in Indian History. Original literary activity in post Kālidāsa era almost came to a stop and there were very few writers left whose contribution led to the enrichment of literature and philosophy. These facts though unfortunate in the extreme are, nevertheless, true. Also the unusual influence exercised by the Meghadūta of Kālidāsa on the minds of the later poets, killed their initiative and smothered their originality. The Meghadūta, becoming a model in style and content for them, the little room was left for originality and innovations. In absence of these, it is very difficult to create a literature of permanent value and of abiding interest. Further upheaval in the political climate of the country, due to arrival of Mohammedans, also caused Sanskrit to suffer a definite setback in India. Mohammedans were not only opposed to Sanskrit but were also positively hostile to it. They carried fire and sword wherever they went, harassed people and burnt libraries. With a few
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noble exceptions they destroyed temples, harassed people and burnt libraries. In such an atmosphere when there were frequent out bursts of killing and incendiary, it was impossible for literature to flourish. Serious literary activity may only continue in placid atmosphere. In a chancy atmosphere when there is no body to recognise or patronise talent, only mediocrities hold the scene. Another reason for the decay in the Dūtakavya literature in Sanskrit is the rise of the Apabhramsa and modern dialects. Though it ought not to be misunderstood that no Dūtakāvya was composed after a particular time, it only meant that as the regional languages gradually supplanted Sanskrit; works began to be composed in those languages. Dūtakāvyas in Sanskrit, are composed even now but they are few and far between. Thus, the general tendency in an unoriginal epoch to produce imitations or counterfeits is responsible for more than a scores of Dūtakāvyas by Jaina poets alone. These, mostly, were deriving their impetus, if not inspiration from famous Meghadūta. Invariably, all the available Jaina Dūtakāvyās are written in Sanskrit.
A brief survey of the Jaina Dūtakavyas is as follows: Pārśvābhyudaya (c. AD 783) by Digambara Jinasena I, the famous author of Harivanśapurāṇa, into 4 cantos, containing 364 verses in Sanskrit is the earliest among the Dūtakāvyas, imitating the Meghadūta of Kālīdāsa. Nemidūta (c. AD 13th 14th) by Vikrama, son of Asanga of Khambata (Gujrat) comes next containing 126 verses, it depicts the Neminatha and Rājimatī episode. On the same theme of Neminatha and Rājimati was composed Jainameghadūta by Merutunga, (13461414 A.D.) in 196 verses in 4 cantos in Sanskrit, in the form of the pädapūrti of Meghadūta. Next Dūtakāvya was Śīladūtaṁ (1427 AD) in 131 verses in Padapurti form of the Meghaduta by Caritrasundaragani, pupil of Ratnasinghsūri of Bṛhattpagaccha. It depicts the story of Sthulabhadra and Kośā. During 17th century Pavanadūta (c 17 cent. AD) by Bhaṭṭāraka Vādicandra, pupil of Prabhācandra, pupil of Jñānabhūṣaṇa of Mülasangha, containing 101 verses in Mandākrāntā metre, Candradūta (1624 AD) by Vimalakirti, pupil of Sadhusundara, pupil of Sadhukirti Pathak, in 169 verses, and Meghadūta in the form of Samasyäpürti of Meghadūta Eighteenth Century witnessed the emergence of two Dūtakavyas i.e., Samasyalekha (1673 AD) by
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Upadhyāya Meghavijaya, pupil of Krpāvijaya of the Tapāgaccha in 131 Sanskrit verses, were composed Cetodūta (18th cent. A.D.) by an anonymous in 129 Mandākrāntā metre, in the form of the Pädapūrti of Meghadūta and Induduta by Vinayavijayagaņi, pupil of Vijayaprabhasüri in 131 Mandakranta verses in the form of Vijñaptipatra. Mayūradūtaṁ (1936 AD) by Dhurandharavijaya in 180 verses in Sikhariņi metre on the line of Indudūta was composed in the 19th century. Besides, Candradüta by Vijayaprabha and Manodūta by anonymous, in 23 Sanskrit verses in Mālini metres and Hansapadārkadūtaṁ, are these Dütakavyas: Vacanadütam by Pt. Mülacanda Šāstrī, divided into two parts, depicting the story of 22nd Tirthankara Neminātha and Rājimati and Candradūta by Jambukavi (10th cent. AD).
The credit of giving details of the divisions as well as applying the divisions to the poem at hand goes to Dharmagupta, the commentator on Sukasandeśa. Again, Sukasandeśa-vyākrti, a commentary by anonymous authorship, enumerates the 12 divisions in conformity with Dharmagupta. Thus, a message poem may be arranged in the above division as follows-- Adivākyam-- forming the introductory statement of the poet, setting out the scope of the theme, Dūtayojanamchoosing a messenger and entrusting him with the task, Vrajyānga deśanā-- description of the route to be followed, Prāpyadeśavarmanaṁ-- depiction of the destination, Mandirābhijñāpanaṁ-- the description of distinguishing features of the house to which the messenger is to proceed, Priyasanniveśavimarśanam-- to describe the heroine, so that she could be identified, Anyarūpatāpatti sambhāvanā-- the hero points out the possibility of some change in the physical appearance of the heronie due to the pangs of love. The messenger has to bear this in mind in identifying the lady, Awasthāvikalpanaṁ-- the hero supposes the lady to be in different moods depending upon the time in which the messenger reaches her side. Owing to the pangs of love she may be emaciated doing odd things etc. Vacanārambhaḥ-- depiction of the preparation of conveying the message. The introductory statements regarding the identity of the messenger etc. Sandeśaväcanaṁ-- conveys the actual words of message. Abhijñādānam or the episode of identification. As a part of the message, the hero narrates something
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that assures the heroine that the message is from her lover. Prameyaparinişthāpanai-- proper conclusion of the treaties by ending the theme on a happy note is the usual practice of the poet. Meghaduta has inspired many authors to compose Dütakavyas, but one thing is clear that later Dūtakävyas have pretty little original to offer to the reader. The form and content in later Dutakāvyas in more cases than one is borrowed from the Meghadūta of Kālīdāsa. Six or seven of them are written on the popular style of Samasyāpürti where generally one line from the Meghadūta is conjoined with three lines of poet's own creation.
The description, in brief, of the works of Jaina Dūtakāvyas are as follows:
Pārsvabhyudaya (c. AD 783) by Jinasena, the famous Digambara author of Harivansapurăņa, is divided into 4 cantos, containing 364 verses in Sanskrit. The first and second cantos contain 118 verses each while 3rd and 4th have 57 and 71 verses, respectively. It is composed in Mandākrāntā barring the last 6 verses- 5 in Mālini and the concluding one in the Vasantatilakā-- of the 4th canto. The poem imitates Meghadūta in all respects with the difference that at places the dull and the drab description impeded the flow of the work. It gives the elaborate description of the Upasargas caused to Pārśva in meditation by a demi-god. This demi-god was in his previous birth the soul of Kamatha, the younger brother of Marubhūti, the soul of the Pärśva in his earlier existence. Kamatha also called Katha Tāpasa, reborn as Śamvara or Sambara according to Digambara tradition and Meghamäli in Svetāmbara tradition, tried hard to shake Pārsva from his trance. For seven days he poured heavy rains, made terrifying sounds and hurled rocks at him. To frighten Pārśva he conjured up lions, scorpions, terrifis Vetālāgni and ghouls who spit fires from their mouths. But the great sage, unaffected by this harassment, remained steadfast in his meditation. Dharana, the Indra of Nägakumāra, remembering the good turn done by Pārśva in his previous birth, came to his rescue. Standing behind him the Nāgendra held a canopy of his seven hoods over the Jina's heads in order to protect the lord from rains, bombardment of rocks, etc. His villainy going fruitless, the lord of the demons relented and bowing down before the lord, seeking as
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he did the Jina's forgiveness, returned with remorse to his celestial abode. It is said that the tāpasa had so much flooded the area that the water level rose up to the tip of the nose of Pārśva and that Dharanendra, wrapping his coils all around the body of Pārśva and holding the hoods as a canopy over the sage' head, had lifted up the body of Pārśva above water. At this Kamatha feels penitent and asks forgiveness for all his misdeeds. The gods shower flowers from the heaven and dundubhis are sounded. The gods came from the heaven to Pārsvanātha. The order ascetics also came to him. With this the story comes to an end.
The work has commentary (tikā) by Panditācārya and tikā by Cărukirti. Pub. Text ed. with English trans. K.B. Pathak, Poona, 1894 (2nd ed. 1916). // Text with comm. Yogiraja Panditācārya, Nirnaya Sagara Press, Bombay, 1909 // Hindi trans. Bharatvarshiya Digambar Jaina Parisad, Thesis Pārsväbhyudaya Mahākāvya Kā Sarīksātmaka Adhyayana by Mrs. Kancana Singh, Supervisor Prof. Sagarmal Jain & Dr. R.P. Dwivedi, B.H.U., Varanasi, 1997 (Unpub.)// Mns. Arrah I. P. 20. Text. CMG 13.63, PI p. 23, Mysore II, p. 132, Rice. P. 224.
Comm. Lakṣmaṇasena, P. 8. Rice 302. Comm. Subodhikā by Amoghavarşa. Triv. Cur. VII.183. Comm. by Cãrukīrtipanditācāryasvāmi. Śravanabelagola 117.
Nemidūta by Vikrama, the son of Asanga of Khambata (Gujrat), Rşabhadāsa, a celebrated poet of Gujrat was his brother. Containing 126 verses, it is written as Samasyāpūrti of Meghadūta, containing the fourth foot of the each of its stanzas. It depicts the story of Neminātha, the 22nd Tirthankara and Räjimati. In fact, it is not named after the messenger, as is the case with Dūtakāvyas in general. It is named after the addressee of the message. Heroine and not the hero, in contrary also to the Meghadūta herein, sends the message. The poem begins with the message without mentioning the route. The first canto contains a description of Neminātha's pleasures and activities in his boyhood. The 2nd canto depicts the spring season and the pleasures of hero in that pleasant season. The 3rd canto describes the preparation of marriage of the hero. The last canto relates the grave and sad state of Rajimati, the bridegroom of the hero, who sends her
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message to him asking him to abandon the idea of becoming a recluse. The poem aims at placing before the readers the virtues of the Jaina religion. Pub. Text with Marathi translation, Bombay 1892 // Text in Kavyamala Series No. II. Bombay 1948 AD, Vol. 2. pp. 85-104 // Text with Hindi trans. by Dhirendra Misra, Pārsvanātha Vidyapitha (S. No. 68) Varanasi 1994, p. 46, 139. Mns. BORI 1353 of 188487, 715 of 1886-92. Peterson IV. p. 27 (No. 715).
--Commentary by Guņavijayagani, BORI 1353 of 1884-87. - by Jhāmajaņa, son of Sāmgaña, Jhalarpatan, p. 23. - by Merutñga of Ancalagaccha.
Jainameghadūta, by Merutunga (1346-1414 AD), containing 196 Sanskrit verses in Mandäkrāntā in 4 cantos: 50, 49, 55 and 42
respectively, it gives the description of famous episode of the 22nd Tirthankara Neminātha and Rājimati. In this poem, Rājimatī sends a message to Neminātha through Megha (cloud) at mount Raivataka (Girnara) where the latter is practising austerities, detached from the world. Ultimately, she also renounces the world and adapts nunhood. Puh. Text with Tīkā by Śīlaratna, Jaina Atmananda Sabha S.No. 76, Bhavnagar 1924.// Text with Sanskrit Comm. & Hindi trans. In: Jaina Meghadūtam byDr. Ravishankara Misra, Pārsvanātha Vidyāpītha (S.No. 51) Varanasi 1981, p. 61, 125.11 Mns. Bhand. VI. No. 1396, Chani No. 453, Petrson III. A.P. 248.
Tikā by Śilaratņa, pupil of Jayakīrtisūri of the Añcalagaccha in 1434. Māņikyasūri helped the author. Hamsa No. 625, Pet. III. A. P. 249.
Tīkā composed in 1489 by Mahimetugaņi, pupil of Jayakirtisūri, BK. No. 1342.
Tippaņa Papr. 21 (11)
Śiladūtaṁ, (AD 1430) by Cáritrasundaragani, pupil of Ratnasinghsūri of Brhattpăgaccha. Written in Samasyāpārti form, it is interwoven with the last line of the first 125 verses of the Meghadūta. Prince Sthūlabhadra was enjoying his days in the pleasant company of his beloved Kośā. Grief -stricken at the sudden demise of his father, he becomes detached with sensuous pleasures and
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abruptly brushes aside all the worldly attachments. He considers all the wealth, relation's etc. as futile objects and observes celibacy. As a recluse, he sojourns with a saint, Bhadrabāhu, his Guru. Kośā, his devoted consort, in utter despair requests him to remain with her. She tries to lure him by narrating the charms and the pleasures of life. She suggests him to stay in his own capital, with a very nice pleasure hill and a temple built by his predecessors with great labour and carry on with his worship there. But by dint of his forceful arguments and his noble character Sthūlabhadra at last moulds Kośã to accept the path of Emancipation. Ultimately, she also renounces the world. śīladūtam is not a Dūtakāvya, proper, though it bears a name similar to that. The utilisation of the foot of the Meghadūta probably led to its being called Dūtakāvya. It lacks the messenger, who is sent by one person to another. Pub. Text, Yaśovijaya Jaina Granthamālā, S. No. 18, Varanasi 1909 // Text with Hindi trans, and introduction by Sadhvi Pramoda Kumari & Pt. Viśvanātha Pathak, Pārsvanātha Vidyāpītha (S. No. 69) Varanasi 1993, p. 42.// Šiladūtas: Eka Samālocanātmaka Adhyayana (Ph.D. Thesis) by Ravindra Kumar (P.V. Varanasi) 1995./ / Mns. Buhler II, No. 316, Pra No. 834.
Pavanadūta by Bhattāraka Vādicandra (c 17 cent. AD), pupil of Prabhācandra, pupil of Jñānabhūsana Mülasangha, contains 101 verses in Mandākrāntā metre. It differs from usual style of Dutakavyas, as it lacks the depiction of the route. On the abduction of his queen Tārā by another king Khecara or Khagapati, King Vijaya of Ujjayini, bursts into tear and requests the pavana (wind) to convey his message to her. Thereafter he tells the wind the charms of travels although the names of the place enroute are not described. The messenger has to pass through the woods, the mountains, the rivers etc. The wind is requested not to put off the lamps at that moment when the Khecaras are busy in their sexual merry making, for they would like to see the naked bodies of their consorts. The lover is busy in brooding over the departure till at last the wind reaches the beloved who is busy in meditation of Jina. After reaching the abductor, the wind suggested him that the consequences of abducting another's wife are not well. The mother of the abducting king intervenes just when he is trying to make preparations for combat, and at her instance the abducted Tārā
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is handed over to the wind who brings her back to the lover. Vādicandra composed a number of texts viz. Pārśvapurāṇa, Jñānasūryodayanāṭaka, Pavanadūta, Śrīpāla-ākhyāna (Gujarati - Hindi Yasodharacaritra, Sulocanācaritra, Holikäcaritra and Ambika kathā. Pub. Text with Hindi commentary by Udailal In Indian Antiquary p. 19// Text with Hindi trans. In: Kävyamālā Gucchaka 13, pp. 9-24. 1903.// Hindi Jaina Sahitya, S.No. 3 Prasaraka Karyalaya, Bombay 1914, pp. 9//
Candradūta (1625 AD) by Vimalakirti, pupil of Vimalatilaka of Kharataragaccha, is composed in 141 verses. It is in the form of Samasyāpūrti of Meghadūta of Kālidāsa, imitating the fourth line of the each verse of the work. The poet also included independent verses. The poet has conveyed his prayer to Nābheya Jina of Śatruñjaya etc. Jaina pilgrimages through Candra (moon). The poet has not mentioned the place where from he is sending his message Pub. Text Jinadattasūri Jñanabhandara.
Candradūta by Jambukavi or Jambūnāgakavi (10th cent. AD) is composed in 23 Sanskrit verses in Mālinī metres. Though small in size, it can be placed among some of the masterpieces of the Dūtakavya literature. The central theme of the poem is conventional one. A lady separated from her lover requests the moon to go to her lover and inform him of her pangs of separation. The messenger is requested to inform the hero that her beloved is dying by inches. The moon is deeply moved by her piteous condition and bewilderment. After reaching to the lover, she relates the sad plight of the lady to him. Being charmed by the melodious voice of the moon, the lover at once returns back to her and the couple enjoys a happy reunion. The poem is really a nice piece where the messenger not only conveys the message but also brings about the desired result. Pub. ed. by J.B. Chaudhary In: Dutakavyasangraha 3, Mns. Baroda No. 2788; Bk. No. 1767, BORI 176 of a 1882-3 Hamsa no. 9. Peterson III. A. P. 292.
Comm. Avacuri, BK No. 1767; Hamsa no. 9.
Commentary by Säntisüri Jesalmer p. 43.
By Vinayaprabha. BORI 354 of 1884-87, BORID. XIX. II. 203.
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Meghadütasamasyālekha (1673 AD) by Upadhyāya Meghavijaya, pupil of Kępāvijaya of the Tapāgaccha, is in 131 Sanskrit verses. In this poem, the author, grief-stricken due to the long separation of his guru Vijayaprabhasūri, sends his message through the Megha (cloud). Megha carries the message from Aurangābad to Devapattana as well as brings the reply. Except the last verse in Anuştubhamere, all the verses are in Mandākrāntā. It imitates the fourth pada of Meghadūta. It eulogises the Lord śāntinātha in the beginning, then describes the city of Aurangābad, Devagiri, holyplace Elora, Surat, Bhrgupur, Harigrhapur and Siddhācala and Devapattana. It depicts the virtues of his preceptor in the concluding verses. It is one of the best Dūtakāvyas, in all respects, viz., subject, language and style. Pub. Text, Jaina Atmananda Sabha, Bhavanagar 1913 AD.
Cetodūtar (18th cent. AD) by an anonymous in 129 Mandākrāntā metres, depicts the Kipā (mercy) of the Guru as fiance. The author sends his message through his citta (mind). It comprises the fourth foot of the every verse of the Meghadūta. This lyric, speaks highly of the fame, austerity and virtues of the guru. Pub. Text, Jaina Atmananda Sabha, S. No. 25, Bhavanagar 1924 AD.
Indudūtam by Vinayavijayagani, is in 131 Mandakranta verses in the usual pattern of the Dütakāvyas. The author is staying at Jodhpur in Cāturmāsa (Rainy season). He sends his Vijayaprabhasuri kşamāpanā message (begging forgiveness) to his guru Vinayavijayagani, staying at Surat. He wishes to convey his preceptor the report of his religious and spiritual activities. He chooses the rising moon to convey his message. He praises the high family of the moon, her pre degree, showing her relation with goddess Laksmī and other gods. The poet relates the route from Jodhpur to Surat and also describes the Jaina temples and holy places enroute. The message in the form of a request to his guru to remain kind and considerate to wards him so that he may continue to follow the path of liberation. Indudüta is a nice little poem and makes a delightful reading. The flight of imagination displayed by the poet is commendable. The predominant note in it is that of tranquillity and not of pathos, the common feature of the Dütakāvyas. Pub. Text Kāvyamālā series, Bombay, Vol. 14, pp. 40-60.
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Mayūradītam (1936 AD) by Dhurandharavijaya in 180 verses, in Sikhariņi metre. It depicts the sending of the message of obeisance and forgiveness by Vijayāmstasūri, staying at Kapadavanja (Gujarat) for Cāturmāsa, to his guru Vijayasenasūri, residing at Jamnagara. The messenger, here is Mayūra (peacock). It also describes the geographical places and those of pilgrimages enroute from Kapadavañja to Jamnagar.
Vacanadütaṁ by Pt. Mūlacanda Šāstrī, divided into two parts, depicts the story of 22nd Tirthankara Neminātha and Rajimati. The first part contains the appeal of the Rājimati and in the second the sorrow of Rājimati is expressed through his companions. Upub.
Hansapādāńkadütar, an eminent Jaina scholar Late Agaracanda Nahta referred to this work. But nothing is known about this work.
Bibliography : Kapadia, H.R. Jaina Sanskrit Sahityano Itihāsa, Vol. 2, Part 1, Mukti- Kamala- Jaina Mohana- Mālā No. 64, Baroda 1968.// Dr. Chaudhary, Gulabchand, Jaina Sāhitya Ka BỊhada Itihăsa Vol. 6, Parshwanath Vidyapeeth, S.No. Varanasi, 2nd Ed. 1966./ Misra, Dr. Ravishankara, Jaina Meghadütar by Pārsvanātha Vidyāpītha (S.No. 51), Varanasi, 1981, p. 61, 125.//
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विद्यापीठ के प्रांगण में
परिसर में नवनिर्माण कार्य पूर्णता की ओर यह अत्यन्त प्रसन्नता का विषय है कि पूज्य आचार्य श्री राजयशसूरीश्वर जी म० सा० के शुभाशीर्वाद और प्रेरणा से पार्श्वनाथ विद्यापीठ परिसर में प्रारम्भ हुए दोनों भवनों का निर्माण कार्य लगभग पूर्ण हो चुका है। ९०० वर्ग फुट में निर्मित उपा० यशोविजय स्मृति मन्दिर का आकार पिरामिड जैसा है। इसमें उपाध्याय जी की यशोगाथाओं का रेखांकन किया जायेगा और इसी में ध्यान और योग का प्रशिक्षण भी दिया जायेगा। पूज्य राजयशसूरीश्वर विद्या भवन में ८ कमरों का निर्माण कार्य पूर्ण हो चुका है। इन सभी का उपयोग शोध-छात्रों और अतिथियों के आवास के लिये हो सकेगा। इसके निर्माण से विद्यापीठ में छात्रावास की कमी काफी हद तक दूर हो गयी है। अब यहां विदेशी छात्र भी सरलता से ठहर सकते हैं। भोजनशाला प्रारम्भ हो जाने से बाहर से आकर यहाँ अध्ययन करने वाले शोध-छात्रों और विद्वानों को भी इसका लाभ मिलने लगा है। उक्त सभी निर्माणकार्य संस्थान के निदेशक प्रो० भागचन्द्र जैन के अथक प्रयत्नों से पूर्ण हुआ। इण्डियन इस्टिट्यूट ऑफ एडवान्सड स्टडी, राष्ट्रपति निवास,
शिमला द्वारा पार्श्वनाथ विद्यापीठ को मान्यता विद्यापीठ के लिये यह अत्यन्त गौरव का विषय है कि प्रो० भागचन्द्र जैन 'भास्कर' के प्रयत्नों से केन्द्रीय सरकार द्वारा स्थापित संस्था 'इण्डियन इस्टिट्यूट ऑफ एडवान्सड स्टडी, शिमला ने पार्श्वनाथ विद्यापीठ को जैन शैक्षणिक कार्यों के लिये सहयोगी संस्था के रूप में मान्यता प्रदान की है। इसके अन्तर्गत दोनों ही संस्थाओं के परस्पर सहयोग से संगोष्ठियां, कार्यशालायें, व्याख्यान, प्रकाशन एवं शोध योजनायें आदि जैसी शैक्षणिक गतिविधियाँ की जा सकेगी। इससे संस्थान के ऊपर आर्थिक बोझ कम हो जायेगा और उसे मात्र आतिथ्य की व्यवस्था करनी होगी, यहाँ यह उल्लेखनीय है कि उक्त संस्थान ने बौद्ध संस्कृति से सम्बद्ध शैक्षणिक कार्यों के लिये तिब्बतन रिसर्च इस्टिट्यूट, सारनाथ एवं वैदिक संस्कृति से सम्बद्ध शोधकार्यों के लिये विश्वभारती, शान्ति निकेतन को सहयोगी संस्था के रूप में मान्यता प्रदान की है। इस सम्बद्धता से पार्श्वनाथ विद्यापीठ की शोध प्रवृत्तियों में और गति आ जायेगी। इसी के अन्तर्गत आगम तथा अन्य जैन साहित्य के सम्पादन, अनुवाद एवं प्रकाशन में भी सहयोग हो सकेगा।
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वीर बहादुर सिंह पूर्वाञ्चल विश्वविद्यालय से सम्बद्धता
का प्रयास पार्श्वनाथ विद्यापीठ अभी तक शोधकार्यों के लिये काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी से सम्बद्ध है, साथ ही वीर बहादुर सिंह पूर्वाञ्चल विश्वविद्यालय, जौनपुर से भी सम्बद्धता प्राप्त करने हेतु प्रयास किया गया और यह सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि इस सन्दर्भ में लगभग सारी औपचारिकतायें पूर्ण हो चुकी हैं। आशा है अब हमें अतिशीघ्र सम्बद्धता प्राप्त हो जायेगी। मान्यता प्राप्त होने से देश के किसी भी भाग में रहने वाला छात्र यहाँ से शोधकार्य कर सकेगा। इससे शोध छात्रों की संख्या बढ़ेगी और शोधकार्य में पर्याप्त गति सम्भव हो सकेगी।
प्रवासी जैन तीर्थ यात्रियों का विद्यापीठ में आगमन
२१ जनवरी को अमेरिका के प्रवासी जैन तीर्थयात्रियों का एक बड़ा समूह श्री दिलीप शाह के नेतृत्व में वाराणसी पहुंचा। इस संघ में १२८ यात्री थे। इन सभी के मन में पार्श्वनाथ विद्यापीठ को भी देखने की उत्कट अभिलाषा थी। २२ जनवरी को दिन में ११ बजे उक्त सभी तीर्थयात्री संस्थान में पधारे जहां निदेशक प्रो० भागचन्द्र जैन, विद्यापीठ के वरिष्ठ प्रवक्ता डॉ० अशोककुमार सिंह, प्रशासनिक अधिकारी डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय, प्रवक्ताद्वय डॉ. विजयकुमार जैन एवं डॉ० सुधा जैन, पार्श्वनाथ जन्मभूमि जीर्णोद्धार ट्रस्ट, वाराणसी के अध्यक्ष कुंवर विजयानन्द सिंह आदि ने उनका भव्य स्वागत किया। इस अवसर पर विद्यापीठ के प्रकाशनों की एक प्रदर्शनी भी लगायी गयी। तीर्थयात्रियों को संस्थान परिसर में भ्रमण कराया गया और उन्हें यहां की शैक्षणिक गतिविधियों से परिचित कराया गया। सुप्रसिद्ध विद्वान् प्रो० रमणलाल ची० शाह और उनकी धर्मपत्नी श्रीमती तारा आर० शाह भी उक्त संघ के साथ आये थे। तीर्थयात्रियों ने यहां की गतिविधियों को देखकर हार्दिक प्रसन्नता व्यक्त की और उसी समय १० हजार डालर अनुदान देने का वचन दिया। इस अवसर पर प्रत्येक तीर्थयात्रियों को संस्थान की ओर से स्मृतिचिह्न तथा स्मारिका भेंट में दी गयी। संस्थान के प्रकाशनों को देखकर सभी ने प्रसनता व्यक्त की और काफी मात्रा में उसे क्रय भी किया। इन सभी ने ५० हजार रुपये तुरन्त एकत्र कर संस्थान को भेंट में दिया और यह आश्वासन दिया कि इस निमित्त संस्थान का कोई भी व्यक्ति यदि अमेरिका जाये तो उसे भरपूर वित्तीय सहायता दी जायेगी। संघ का हर व्यक्ति यह अनुभव कर रहा था कि अब संस्थान में उन्हें और उनकी सन्तति को अध्ययन की सुविधायें बेहतर रूप में प्राप्त हो सकेगी।
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घोमती रुक्मिणीदेवी दीपचंदगार्डी प्राकृत एवजैन विद्या उच्चअध्ययन
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122nt.JANUARY.2001
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पार्श्वनाथ विद्यापीठ में अमेरिका से पधारे जैन तीर्थयात्रियों के स्वागत समारोह का एक
दृश्य, निदेशक प्रोफेसर भागचन्द्र जैन भास्कर' स्वागत भाषण करते हुए
IITCOM ways TRENA ROHDMARA
अमेरिका से पधारे जैन तीर्थयात्रियों का दल संस्थान परिसर में भ्रमण करते हुए
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भगवान् महावीर का २६०० वां जन्म कल्याणक महोत्सव
भारत सरकार ने बृहद् स्तर पर भगवान् महावीर का २६०० वां जन्म कल्याणक महोत्सव मनाने का महत्त्वपूर्ण निर्णय लिया है। यह महोत्सव ६ अप्रैल २००१ से प्रारम्भ होकर आगामी महावीर जयन्ती तक पूरे वर्ष पर्यन्त विभिन्न आयोजनों के साथ चलता रहेगा। इसी सन्दर्भ में केन्द्रीय सरकार ने प्रान्तीय सरकारों को भी स्थानीय स्तर पर समिति गठित करने का निर्देश दिया है, तदनुसार लगभग हर प्रान्त में ये समितियाँ गठित हो चुकी हैं।
केन्द्रीय सरकार के समक्ष एक विस्तृत कार्यक्रम की भी रूपरेखा प्रस्तुत की गई है जिससे हम सभी भलीभाँति परिचित हैं । अब यह हमारा कर्तव्य है कि हम इन आयोजनों के माध्यम से समाज और राष्ट्र के लिये क्या योगदान दे सकते हैं । यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि विगत वर्ष संयुक्त राष्ट्रसंघ के तत्त्वावधान में एक सम्मेलन हुआ था जिसमें सम्पूर्ण विश्व से धार्मिक और सामाजिक नेता सम्मिलित हुए थे। इसमें श्रीमती इन्दु जैन, गुरुदेव चित्रभानु आदि प्रमुख जैन हस्तियाँ भी उपस्थित थीं।
जन्म कल्याणक महोत्सव को अधिकाधिक सफल बनाने के लिये समाज की ओर से भी एक केन्द्रीय समिति गठित की गयी है। जिसके महासचिव श्री एल०एल० आच्छा हैं। केन्द्रीय सरकार ने इस महोत्सव को सफल बनाने के लिये १०० करोड़ रुपये अनुदान देने की घोषणा भी की है।
उत्तर प्रदेश सरकार ने भी २६०० वें जन्मकल्याणक महोत्सव के अवसर पर एक समिति गठित की है जिसमे संस्थान के पूर्व निदेशक प्रो० सागरमल जैन और वर्तमान निदेशक प्रो० भागचन्द्र जैन 'भास्कर' को भी सम्मिलित किया गया है।
८ मार्च को उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा गठित भगवान् महावीर २६००वीं जन्म कल्याणक महोत्सव समिति की मुख्यमन्त्री माननीय श्री राजनाथ सिंह की अध्यक्षता में लखनऊ में एक बैठक हुई जिसमें अनेक महत्त्वपूर्ण निर्णय लिये गये। संस्थान के निदेशक प्रो० भागचन्द्र जैन ने संस्थान में संगोष्ठियाँ, कार्यशालायें तथा व्याख्यानमालायें आयोजित करने का प्रस्ताव इस निवेदन के साथ रखा कि सरकार संस्थान के लिये तदर्थ आर्थिक अनुदान दे। उन्होंने जैन विद्या संस्थान, लखनऊ को भी पुनर्जीवित करने का अनुरोध किया। निदेशक महोदय ने सारनाथ और चन्द्रावती के विकास के लिए भी प्रस्ताव रखा। माननीय मुख्यमन्त्री जी ने इन सबके लिये आर्थिक अनुदान देने हेतु विचार करने का आश्वासन दिया। अन्य सदस्यों के प्रस्तावों पर भी काफी विचार हुआ और मुख्यमन्त्री जी ने महावीर पर एक वेबसाइट तैयार करने के लिये १० लाख रुपये के अनुदान की घोषणा कर दी। इसी के साथ ही पार्कों और राजमार्गों का नामकरण भगवान महावीर से सम्बद्ध रखना तथा महावीर जयन्ती का बड़े पैमाने पर आयोजन
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१५८ करने का भी वचन दिया। इन सभी कार्यों के कार्यान्वयन के लिये एक ५ सदस्यीय समिति भी गठित की गयी है जिसमें संस्थान के निदेशक महोदय को भी सम्मिलित किया गया है।
आगामी शैक्षणिक सत्र की परियोजना पार्श्वनाथ विद्यापीठ का आगामी शैक्षणिक सत्र जुलाई से प्रारम्भ हो रहा है। तब तक पूर्वाञ्चल विश्वविद्यालय, जौनपुर से सम्बद्धता मिलने की भी पूरी आशा है। इस सत्र से हम संस्थान में निम्नलिखित पाठ्यक्रम प्रारम्भ करने की योजना बना रहे हैं१. प्राकृत और जैनधर्म में त्रैमासिक डिप्लोमा कोर्स २. योग और प्रेक्षाध्यान में त्रैमासिक डिप्लोमा कोर्स ३. प्राकृत पाण्डुलिपि विज्ञान कार्यशाला
___ हमारे इन शैक्षणिक कार्यक्रमों में जो भी सुधी महानुभाव अभिरुचि रखते हों वे कृपया संस्थान से अविलम्ब सम्पर्क करें। उन्हें आवास आदि की समुचित व्यवस्था देने का पूरा प्रयत्न किया जायेगा।
इनके अलावा प्राकृत शिलालेख, अनेकान्तवाद, कर्मवाद, जैन आयुर्वेद आदि जैसे महत्त्वपूर्ण विषयों पर संगोष्ठियाँ, व्याख्यानमालायें और कार्यशालायें आयोजित करने की भी योजना है।
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संस्थान के नये प्रकाशन वर्ष २००० में संस्थान द्वारा निम्नलिखित ग्रन्थ प्रकाशित किये गये१. अष्टकप्रकरण, अनुवादक- डॉ० अशोककुमार सिंह; सम्पा०
प्रो० सागरमल जैन २. श्रमण, जनवरी-जून २०००
श्रमण, जनवरी-जून २००० (क्रोडपत्र) ४. श्रमण, जुलाई-सितम्बर २००० (आचार्य लब्धिसूरि स्मृतिअंक) ५. श्रमण, अक्टूबर-दिसम्बर २००० (प्रो० सागरमल जैन लेख विशेषांक) ६. सागर जैन विद्या भारती, भाग-४
तपागच्छ का इतिहास, भाग १, खण्ड १, लेखक - डॉ० शिवप्रसाद निम्नलिखित ग्रन्थ मुद्रित हो रहे हैं और अतिशीघ्र विक्रयार्थ उपलब्ध हो सकेगें। १. अलंकारदर्पण, अनु०- श्री भंवरलाल जी नाहटा २. अचलगच्छ का इतिहास, लेखक --- डॉ० शिवप्रसाद
३. जैनधर्म में समाधिमरण की अवधारणा, लेखक – डॉ० रज्जनकुमार
७.
तपास
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जैन जगत्
ब्राह्मीलिपि विषयक कार्यशाला सम्पन्न कुन्दकुन्द भारती नई दिल्ली में दिनांक ८ से १४ जनवरी २००१ तक ब्राह्मीलिपि विषयक एक कार्यशाला का आयोजन सुविख्यात् लिपिविशेषज्ञ प्रो० किरण कुमार थापलियाल (पूर्व अध्यक्ष, प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति और पुरातत्त्व विभाग, लखनऊ विश्वविद्यालय) के निर्देशन में किया गया। इस कार्यशाला में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय सहित दिल्ली के प्रमुख शिक्षा संस्थाओं के अध्यापकों एवं शोधार्थियों ने भाग लिया। कार्यशाला के समापन के अवसर पर नियमित अध्ययन करने वाले सभी प्रविष्टुजनों को प्रमाणपत्र भी प्रदान किया गया। । ____अखण्ड ज्योति मन्दिर में प्रतिष्ठा- महोत्सव सम्पन्न
जोधपुर २९ जनवरी : सुप्रसिद्ध सन्त गणिवर श्री महिप्रभ सागर, महो० श्री ललितप्रभसागर एवं युवा क्रान्तिकारी विचारक मुनिश्री चन्द्रप्रभसागर जी म० के पावन सानिध्य में बसन्तपंचमी के पावन पर्व पर २९ जनवरी को स्थानीय अजित कालोनी में स्थित श्री केशरिया कुन्थुनाथ २८ अखण्ड ज्योति मन्दिर तीर्थ में गुरु मूर्ति एवं देवप्रतिमाओं की प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई जिसमें बड़ी संख्या में लोगों ने भाग लिया।
___ 'प्रणाम्' का विमोचन सम्पन्न नई दिल्ली २१ फरवरी : श्रेष्ठिवर्य श्री हरखचन्द जी नाहटा की द्वितीय पुण्यतिथि पर २१ फरवरी को स्थानीय फिक्की के सभागार में केन्द्रीय खान मन्त्री श्री सुन्दरलाल पटवा ने एक भव्य समारोह में श्री हरखचन्द नाहटा स्मृति-न्यास की ओर वे प्रकाशित श्रीहरखचन्दनाहटास्मृतिग्रन्थ 'प्रणाम्' का लोकार्पण किया। समारोह की अध्यक्षता केन्द्रीय श्रममन्त्री डॉ० सत्यनारायण जटिया ने की। श्री हरखचन्द नाहटा स्मृतिन्यास की ओर से आयोजित इस भव्य समारोह में सुविख्यात् विधिवेत्ता डॉ० लक्ष्मीमल सिंघवी, जैन समाज के सभी समुदायों के शीर्षस्थ पदाधिकारी, विभिन्न राजनेता और बड़ी संख्या में स्व० श्री नाहटा जी के मित्र व प्रशंसक उपस्थित रहे। कुण्डलपुर में महामस्तकाभिषेक एवं जिनबिम्ब प्रतिष्ठा समारोह सम्पन्न
कुण्डलपुर २८ फरवरी : आचार्यशिरोमणि श्री विद्यासागर जी म०सा० की प्रेरणा से उन्हीं के सान्निध्य में कुण्डलपुर में बड़े बाबा के महामस्तकाभिषेक, जिनबिम्ब प्रतिष्ठा
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महोत्सव, गजरथ आदि विभिन्न कार्यक्रम २१-२७ फरवरी २००१ के मध्य सम्पन्न हुए। इस आयोजन में बहुत बड़ी संख्या में श्रद्धालुओं ने भाग लिया। आयोजकों की ओर से भारी भीड़ जुटने की सम्भावना को देखते हुए ४५० एकड़ भूमि पर ५ बड़े-बड़े ये गये थे जहाँ आगन्तुक श्रद्धालुओं के भोजन-आवास आदि की सुन्दर व्यवस्था की गयी थी। अधिक से अधिक लोग कार्यक्रम को देख सकें, इसके लिये बड़ी संख्या में यहाँ क्लोज सर्किट टेलीविजन सेट भी लगाये गये थे।
इसी अवसर पर यहाँ २२-२३ फरवरी को अ० भा०दि० जैन विद्वत्परिषद् के स्वर्णजयन्ती के अवसर पर २० वें साधारण सभा का अधिवेशन भी आयोजित किया गया। निमन्त्रित विद्वानों के आवास, भोजन एवं मार्गव्यय की व्यवस्था महोत्सव समिति की ओर से की गयी थी । पार्श्वनाथ विद्यापीठ के निदेशक प्रो० भागचन्द्र जैन भी इस अधिवेशन में आमन्त्रित किये गये, परन्तु वे अत्यन्त व्यस्तता के कारण इसमें उपस्थित न हो सके।
शोक समाचार
श्रीशौरीलाल जैन की धर्मपत्नी का निधन
पार्श्वनाथ विद्यापीठ की प्रबन्ध समिति के वरिष्ठ सदस्य, जैन आप्टिकल इन्डस्ट्रीज, दिल्ली के संस्थापक श्री शौरालाल जी जैन की धर्मपत्नी का दिनांक २ मार्च को दिल्ली स्थित उनके आवास पर निधन हो गया। आप अत्यन्त धर्मपरायण महिला थीं। आप अपने पीछे भरा-पूरा परिवार छोड़ गयीं हैं। पार्श्वनाथ विद्यापीठ परिवार दिवंगत आत्मा को हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए श्री शौरीलाल जी जैन एवं उनके परिजनों के प्रति शोक की इस घड़ी में संवेदना प्रकट करते हुए ईश्वर से यह प्रार्थना करता है कि वह इन्हें इस महान् कष्ट को सहन करने की शक्ति प्रदान करे ।
पं० पन्नालाल जैन दिवंगत
जैन धर्म-दर्शन एवं साहित्य के वयोवृद्ध विद्वान् एवं अनेक ग्रन्थों के सम्पादक और अनुवादक पं० पन्नालाल जी साहित्याचार्य १० मार्च को दिवंगत हो गये। उन्होंने जीवन भर साहित्य साधना की। वे वर्णी महाविद्यालय, मोराजी, सागर के प्राचार्य रहे । वहाँ से सेवानिवृत्त होने के पश्चात् आचार्य विद्यासागर जी के अनुरोध पर उन्होंने वर्णी गुरुकुल, पिसनहारी की मढ़िया, जबलपुर को अपनी सेवायें देना स्वीकार किया और अपने अन्तिम समय तक वे इस संस्था में कार्यरत रहे ।
पार्श्वनाथ विद्यापीठ की ओर से पण्डित जी को हार्दिक श्रद्धाञ्जलि ।
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साहित्य सत्कार
जैन दर्शन में श्रद्धा (सम्यग्दर्शन), मतिज्ञान और केवलज्ञान की विभावनालेखक- प्रो० नगीन जी० शाह; प्रकाशक- डॉ० जागृति दिलीप सेठ, बी-१४, देवदर्शन फ्लैट, नेहरूनगर, चार रास्ता, अंबावाडी, अहमदाबाद ३८००१५; प्रथम संस्करण २००० ई०; आकार- डिमाई; पृष्ठ ८+ ७०; मूल्य- ५०/- रुपये ।
डॉ० नगीन जी० शाह जैन दर्शन के सर्वमान्य विद्वान् हैं । प्रस्तुत लघु पुस्तिका उनके तीन व्याख्यान् समाहित हैं, जो उन्होंने सेठ भोलाभाई जयसिंह भाई अध्ययन संशोधन विद्याभवन में १९ २० २१ २००० को दिये थे। प्रथम व्याख्यान में जैनदर्शन में श्रद्धा (सम्यक् दर्शन) का विश्लेषण किया गया है। द्वितीय में मतिज्ञान के स्वरूप को स्पष्ट किया गया है और तीसरे व्याख्यान का विषय केवलज्ञान रहा है । इन तीनों विषयों पर प्रो० शाह ने सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है और साथ ही उसमें जैनदर्शन के वैशिष्ट्य को अभिव्यक्ति दी है। पुस्तक आकार में छोटी अवश्य है, परन्तु प्रकार में गम्भीर है। शोधार्थियों के लिये यह निश्चित ही उपयोगी होगी।
प्रवचनसार की अशेष प्राकृत संस्कृत शब्दानुक्रमणिका- संग्राहक और सम्पादक - डॉ० के० आर० चन्द्र एवं कु० शोभना आर० शाह; प्रकाशक- प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, अहमदाबाद ३८०००९; प्रथम संस्करण - २००० ई०; आकारडिमाई; पृष्ठ ४+६२; मूल्य- ६० रुपये ।
प्रस्तुत पुस्तिका आचार्य कुन्दकुन्द के प्रवचनसार की शब्दानुक्रमणिका है जिसे प्राकृत भाषा के विश्वविश्रुत विद्वान् डॉ० के०आर० चन्द्रा ने तैयार की है। इसका महत्त्व इस दृष्टि से है कि इन शब्दों पर भाषाविज्ञान के आधार पर विचार - मन्थन और शौरसेनी तथा अर्धमागधी की पूर्वापरता पर चिन्तन किया जा सकता है। प्रवचनसार की पचासों पाण्डुलिपियाँ विभिन्न ग्रन्थ भण्डारों में मिलती हैं जिनमें प्रादेशिक प्राकृतों का प्रभाव होना स्वाभाविक है। इस तथ्य की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती। फिर भी इस लघु पुस्तिका का उपयोग किसी सीमा तक तो हो ही सकता है। इसी प्रकार का कार्य अन्य प्राकृत ग्रन्थों का भी यदि हो सके तो हमारा अध्ययन क्षेत्र परिपक्व हो सकता है।
Sardeśarāsaka of Abdala Rahamāna, Editor -- Prof. H.C. Bhayani, Publisher-- Prakrit text Society, Ahmedabad-380009,
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First Ed. 1999, Size - Dimy, pp. 6+116; Prise Rs. 65/-.
स्व० प्रो० एच०सी० भयाणी प्राकृत और अपभ्रंश भाषा के विश्वविख्यात् विद्वान् रहे हैं। उन्होंने कवि अब्दुलरहमानकृत सन्देशरासक का आधुनिक ढंग से सम्पादन और टिप्पणियाँ देते हुए आंग्ल और गुर्जर भाषा में अनुवाद प्रस्तुत किया है। साथ ही लगभग ६० पृष्ठों की भूमिका में सन्देशरासक की व्याकरणिक विशेषताओं को स्पष्ट किया है। यह ग्रन्थ प्रो० भयाणी के गम्भीर वैदुष्य का परिचायक है । यह कदाचित उनकी अन्तिम कृति है। अपभ्रंश भाषा के शोधार्थियों को यह कृति निश्चित ही उपादेय सिद्ध होगी।
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रिट्ठनेमिचरिउ (भाग ४; उत्तरकंडु) सम्पादक - प्रो० रामसिंह तोमर, प्रकाशकप्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, अहमदाबाद- ३८०००९ प्रथम संस्करण २००० ई०; आकार - डिमाई; पृष्ठ ८+११२; मूल्य ७५/- रुपये।
प्रस्तुत लघु पुस्तिका अपभ्रंश भाषा के प्रसिद्ध कवि स्वयम्भूदेव के रिट्ठनेमिचरिउ के ९३ से १०३ सन्धि तक का सम्पादित भाग है । रिठ्ठनेमिचरिउ के उत्कण्डु के ९३ से ९९ तक की सन्धियों की रचना स्वयम्भू ने स्वयं की थी और १०० से १०४ तक की उनके सुपुत्र त्रिभुवन ने रची थी। उसके बाद की सन्धियाँ त्रिभुवन और भट्टारक यक्षकीर्ति द्वारा रचित है । अस्वस्थतावश कदाचित स्वयम्भू अपना उक्त ग्रन्थ पूर्ण नहीं कर पाये थे । प्रो० रामसिंह तोमर ने भट्टारक यक्षकीर्ति द्वारा रचित भाग को छोड़कर मात्र त्रिभुवन द्वारा रचित अंश को ही अपने सम्पादन का अंश बनाया है। इन सन्धियों को प्रो० भयाणी ने छन्द और व्याकरण की दृष्टि से परिपूर्ण किया है । सन्धि १०४ प्रतिलिपिकार की भूलों से भरी रही है इसलिये उसे यहाँ छोड़ दिया गया है। उत्तरकंडु का यह सुन्दर सम्पादन अपभ्रंश भाषा के पाठकों के लिये निश्चित ही उपयोगी सिद्ध होगा ।
India's Rebirth (A selection form Sri Aurobindo's writings, talks and speeches) Publishers-- Institute De Recherches Evolutives, Paris & Mira Aditi, Mysore; Second Edition 1997, Size-Dimay, pp. 271; Prise Rs.90/-.
This book presents Sri Aurobindo's vision of India as it grecce from his retern from England in 1893. It covers the brief chronological selection from all that he said or wrote on India, her soul or her destiny. In his opinion, it will have to follow if we intend to overcome the deep-rooted obestacles standing in the way of her rebirth. At the end of the book the indices have been provided for ready references.
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जैन साहित्यनी गजलो- सम्पादक- डॉ० कविन शाह; प्रकाशक- श्री भद्रंकरोदय शिक्षण ट्रस्ट की ओर से डॉ० कविन शाह, ३/१ 'माणेक शा', अष्टमंगल अपार्टमेण्ट, आइस फैक्ट्री के सामने, बीलीमोरा ३९६३२१; प्रथम संस्करण वि०सं० २०५५; आकार-- डिमाई, पक्की बाइण्डिंग, पृष्ठ २००; मूल्य– ६०/- रुपये।
जैन साहित्य में गजलों का प्रारम्भ स्थल वर्णन से हुआ है। बड़ोदरा, सूरत, चित्तौड़, उदयपुर, पालनपुर आदि नगरों के वर्णन में जैन रचनाकारों ने विभिन्न गजलों की रचना की है। इनका प्रारम्भ १८वीं शती माना जाता है। जिस प्रकार से ब्राह्मणीय-परम्परा के पुराणों में काशी महात्म्य, गया महात्म्य आदि का वर्णन है उसी प्रकार से १४वीं शताब्दी में खरतरगच्छ की लघु शाखा के आचार्य जिनप्रभसूरि ने. विविधतीर्थकल्प (मूल नाम- कल्पप्रदीप) की रचना की, जिसके अन्तर्गत उन्होंने तीर्थों के ऐतिहासिक, धार्मिक और भौगोलिक विवरणों को संस्कृत और प्राकृत भाषा में प्रस्तुत किया है। ऐसा अनुमान किया जाता है कि उक्त कृति का प्रभाव १८वीं शती में स्थल वर्णन करने वाली गजलों पर पड़ा। १८वीं शताब्दी के मध्य खरतरगच्छीय कवि खेता द्वारा रची गयी चित्तौड़ री गज़ल और १९वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में कवि दीपविजय द्वारा रचित विभिन्न गजलों में उक्त बात स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। सुप्रसिद्ध आचार्य आत्मारामजी अपरनाम विजयानन्दसूरि जी महाराज ने पूजा साहित्य के रूप में गजलों का सर्वप्रथम प्रयोग किया। उन्हीं के समकालीन श्रावक कवि मनसुखलाल ने आध्यात्मिक विचारधारा को गजलों में स्थान दिया। कवि वीरविजय ने भक्तिमार्ग में लोक प्रचलित स्तवनों की रचना गजलों के रूप में की। कवि हंसविजय ने पूजा साहित्य को गजलों के रूप में प्रस्तुत किया। उनके गजलों में तीर्थङ्करों के गुणगान के साथ-साथ तीर्थमहिमा का भी वर्णन है। आचार्य विजयवल्लभसूरि ने वैराग्य बोध वाली गजलों का प्रणयन किया। पं० मणिविजय ने भी उपाध्याय वीरविजय के समान ही स्तवनों की रचना में गजलों का प्रयोग किया। आचार्य विजयलब्धिसूरि ने जैन साहित्य में गजलों के विकास में अत्यधिक योगदान किया। उन्होंने बारह भावना, चार भावना, तत्त्वत्रयी, व्यसननिषेध, उपदेशात्मक वैराग्यभाव निरूपण और मानवीय गुणों के विकास हेतु व्यवहार जीवन-विषयक गजलों की रचना कर जैन गजल साहित्य को समृद्ध किया। आगमप्रभाकर मुनि पुण्यविजय द्वारा रचित दो गजलें उल्लेखनीय हैं। इनमें उन्होंने गुरु-महिमा का वर्णन किया है। आचार्य दक्षसूरि द्वारा रचित विभिन्न गजल प्रभुभक्ति-विषयक हैं। प्रस्तुत पुस्तक में विद्वान् सम्पादक ने प्रथम अध्याय में गजल के स्वरूप की विस्तृत चर्चा की है। द्वितीय अध्याय में जैन साहित्य में गजलों के उद्भव और विकास का वर्णन किया है। तृतीय अध्याय में १४ जैन कवियों का जीवन परिचय एवं उनके द्वारा रचित गजल दिये गये हैं। चतुर्थ और अन्तिम अध्याय में प्रकीर्ण गजलों एवं सन्दर्भ ग्रन्थ-सूची आदि का विवरण है। पुस्तक की साज-सज्जा आकर्षक और मुद्रण त्रुटिरहित है। ऐसे सुन्दर और प्रामाणिक ग्रन्थ के प्रणयन और उसे अल्प मूल्य
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में पाठकों तक पहुंचाने के लिये डॉ० कविन शाह तथा भद्रंकरोदय शिक्षण ट्रस्ट बधाई के पात्र हैं। यह पुस्तक शोधार्थियों एवं सामान्य पाठकों दोनों के लिये समान रूप से उपयोगी एवं प्रत्येक पुस्तकालयों के लिये संग्रहणीय है ।
कवि पं० वीरविजय जी : एक अध्ययन, लेखक - डॉ० कविन शाह; प्रकाशक- कुसुम के ० ० शाह, ३ / १ अष्टमंगल अपार्टमेण्ट, आइस फैक्ट्री के सामने, बलीमोरा ३९६३२१; प्रथम संस्करण वि० सं० २०५५; आकार - रायल; पक्की बाइण्डिंग; पृ० १२+३६५; मूल्य- ११०/- रुपये ।
तपागच्छीय आचार्य विजयदेवसूरि के शिष्य और पट्टधर विजयसिंहसूरि हुए जिनके शिष्य सत्यविजयगणि से तपागच्छ की विजयसंविग्न शाखा अस्तित्त्व में आयी । सत्यविजयगणि के पश्चात् उनके पट्टधर कर्पूरविजय ने विजयसंविग्नशाखा का नेतृत्त्व सम्भाला। कर्पूरविजय के शिष्य क्षमाविजय हुए। जिनस्तवनचौवीसी के रचनाकार जसविजय इन्हीं के शिष्य थे। जसविजय के शिष्य शुभ विजय हुए। कवि पं० वीरविजय इन्हीं के शिष्य थे। इनके द्वारा रची गयी विभिन्न रचनाएँ उपलब्ध होती हैं जिनमें गौडी पार्श्वनाथना ढालियां, सुरसुन्दरीनो रास, स्थूलिभद्र शियलवेलि, चौमासी देव वंदन, चौंसठ प्रकारी पूजा, पैतालिस आगमनी पूजा, नवानुंप्रकारी पूजा, वारव्रतनी पूजा, पंचकल्याणकनी पूजा, शेठ मोतीशानी टूंकनां ढालियां, धम्मिलरास, चन्द्रशेखरनो रास आदि प्रमुख हैं। उक्त सभी रचनाएँ वि०सं० १८५३ से १९०५ के मध्य रची गयी हैं।
प्रस्तुत पुस्तक ६ अध्यायों में विभक्त है। प्रथम अध्याय में १२ पृष्ठों में कवि का जीवन-परिचय, गुरु-परम्परा, रचनाओं आदि की सविस्तार सूची दी गयी है। द्वितीय अध्याय में जैन काव्यों के विभिन्न प्रकार के स्वरूपों का विवेचन है जिसके अन्तर्गत रास, विवाहलो, वेलि, दूहा, चैत्यवन्दन, स्तुति, स्तवन, पूजा स्वरूप, सज्झाय, हरियाली, लावणी, ढालियां, गहुंली और आरती की ८० पृष्ठों में सविस्तार चर्चा की गयी है। तृतीय अध्याय में वीरविजय की कृतियों का ११८ पृष्ठों में सविस्तार विवेचन किया गया है। चतुर्थ अध्याय में उनके प्रकीर्ण रचनाओं को रखा गया है। पञ्चम अध्याय में एक कवि के रूप में उनका मूल्यांकन किया गया है। छठा अध्याय उपसंहार स्वरूप है जिसके अन्तर्गत कवि का गुणानुवाद, सहायक ग्रन्थ-सूची आदि प्रस्तुत है । किसी भी रचनाकार की कृतियों का शोधपरक अध्ययन किस प्रकार किया जाये इस तथ्य का परिचय प्रस्तुत पुस्तक के अध्ययन से भली-भाँति लग सकता है। इस प्रकार का प्रामाणिक अध्ययन प्रस्तुत कर डॉ० कविन शाह ने विद्वत् जगत् के समक्ष के आदर्श प्रस्तुत किया है। ऐसे प्रामाणिक और तथ्यपरक अध्ययन प्रस्तुत करने के लिये लेखक बधाई के पात्र हैं । ग्रन्थ की साज-सज्जा अत्यन्त हृदयग्राही तथा मुद्रण निर्दोष है। ऐसे उपयोगी ग्रन्थ को अल्पमूल्य में प्रस्तुत कर प्रकाशक संस्था ने समाज पर महान् उपकार
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किया है। यह पुस्तक निःसन्देह प्रत्येक पुस्तकालयों एवं गुर्जर साहित्य पर शोधकार्य करने वाले अध्येताओं के लिये अनिवार्य रूप से संग्रहणीय है।
हरियाणी : स्वरूप अने विभावना- लेखक- डॉ० कविन शाह; प्रकाशककुसुम के० शाह, ३/१, अष्टमंगल अपार्टमेण्ट, आइस फैक्टरी के सामने, बीलीमोरा ३९६३२१; प्रथम संस्करण ई०स० २०००; आकार- रायल; पक्की बाइण्डिंग, पृ० २८६; मूल्य- १००/- रुपये।
मध्यकालीन जैन साहित्य काव्य प्रकारों की विविधता की दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध है। इस समय के प्रचलित काव्य के प्रकारों में रास, फाग, विवाहलो, पवाडो आदि मुख्य हैं। जैनेतर-परम्परा में हिन्दी साहित्य के अन्तर्गत उलटबांसी नाम से सुन्दरदास, सूरदास, गोरखनाथ, कबीर साहब आदि ने एक अभिनव काव्य शैली का सफल प्रयोग किया। जैन कवियों ने भी इस शैली का प्रयोग किया और उसे 'हरियाणी' नाम दिया। ऐसे जैन रचनाकारों में देपाल, आनन्दघन जी, जसविजय जी, वीरविजय जी, रूपविजय जी, आचार्य बुद्धिसागर सूरि, ज्ञानविमल सूरि, कान्तिविजय जी, सुघनहर्ष, उदयरत्न, विनयसागर, दीपविजय, ज्ञानविजय, हर्षविजय, अजितसागर सूरि, सहजानन्दजी आदि मुख्य हैं।
प्रस्तुत पुस्तक ५ अध्यायों में विभक्त है। प्रथम अध्याय में हरियाणी का स्वरूप, द्वितीय अध्याय में हरियाणी के क्रमिक विकास और तृतीय अध्याय में विभिन्न जैन रचनाकारों की विभिन्न हरियाणी रचनाओं का मूल और उनका गुर्जरानुवाद प्रस्तुत है। चतुर्थ अध्याय हरियाणी; अवलोकन और पञ्चम अध्याय उपसंहारस्वरूप है। पुस्तक के अन्त में उपयोगी परिशिष्ट और सहायक ग्रन्थ-सूची इसकी महत्ता को और भी बढ़ा देते हैं। ग्रन्थ के प्रारम्भ में लेखक द्वारा दी गयी ५ पृष्ठों की प्रस्तावना भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। विद्वान् लेखक की अन्य रचनाओं के समान प्रस्तुत कृति का भी निःसन्देह विद्वद्जगत् में अपूर्व स्वागत होगा। ऐसे सुन्दर ग्रन्थ के प्रणयन और उसके प्रकाशन के लिये लेखक और प्रकाशक दोनों ही बधाई के पात्र हैं।
कविराज दीपविजय, लेखक- डॉ० कविन शाह, प्रकाशक- पूर्वोक्त, प्रथम संस्करण वि०सं० २०५४; आकार- रायल; पृष्ठ २२+४१०; पक्की बाइण्डिंग प्लास्टिक कवरयुक्त; मूल्य- ९०/- रुपये।
श्रावककवि मनसखलाल, लेखक- डॉ० कविन शाह; प्रकाशक- पूर्वोक्त, प्रथम संस्करण वि०सं० २०५५/ई० सन् १९९९; पृष्ठ १२+१५४; मूल्य- ५०/रुपये।
तपागच्छ में समय-समय पर हुए अनेक प्रसिद्ध रचनाकारों में कविराज दीपविजय जी का नाम उल्लेखनीय है। इनका समय विक्रम संवत् का १९वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध
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सुनिश्चित है। इनकी रचनाओं की विशेषता यह है कि वे लोकभोग्य रही हैं जिनसे उनका जनमानस में अत्यधिक प्रचार-प्रसार हुआ है। प्रस्तुत पुस्तक में सुप्रसिद्ध विद्वान् डॉ० कविन शाह ने दीपविजय जी महाराज की कृतियों का आलोचनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है। ठीक इसी प्रकार विक्रम संवत् की २१वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में हुए श्रावक कवि मनसुख लाल की कृतियों का भी उन्होंने अत्यन्त विद्वत्तापूर्ण ढंग से आलोचनात्मक अध्ययन किया है। वस्तुत: डॉ० शाह द्वारा लिखे गये उक्त ग्रन्थ अपने आप में एक आदर्श प्रस्तुत करते हैं। आवश्यकता इस बात की है कि जैन-परम्परा में १६-२०वीं शती के मध्य हुए सभी प्रमुख रचनाकारों की कृतियों का इसी प्रकार विश्लेषणात्मक अध्ययन हो। आशा है डॉ० शाह के उक्त कृतियों से प्रेरणा लेकर भविष्य में अन्य रचनाकारों पर भी शोधकार्य होगा।
टिरहित सुस्पष्ट मुद्रण डॉ० शाह के पुस्तकों की विशेषता है। निःसन्देह उनकी अन्य कृतियों की भांति उक्त कृतियों का विद्वद्जगत् में यथेष्ट प्रचार-प्रसार होगा।
साभार प्राप्त जैन तत्त्वनी नवकारवाणी- प्रवचनकार- पूज्य आचार्यदेव श्री जगवल्लभसूरि जी०म० सा०, प्रकाशक- धर्मचक्र प्रभावक ट्रस्ट, विल्होली, मुम्बई- आगरा रोड, नासिक (महाराष्ट्र), आकार-- पॉकेट साइज, पृष्ठ ४८; मूल्य १०/- रुपये।
विजयी भव- (आर्यिकारत्न विजयमति माताजी के प्रवचनों का संग्रह) संग्रहक:- श्रीमती स्नेहलता जैन; सम्पादक- श्री महेन्द्र कुमार जैन 'मनुज'; प्रकाशकश्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन पुस कालय एवं वाचनालय, भेलूपुर, वाराणसी; आकारडिमाई, पृष्ठ १०+१३४.
आत्मतरंग- रचनाकार- श्री राजमल पवैया; प्रकाशक- श्री कानजी स्वामी ग्रन्थमाला, ४४, इब्राहिमपुरा, भोपाल; आकार- डिमाई; पृष्ठ ९४; मूल्य- ११/रुपये.
श्री शीतलनाथ पंचकल्याणक विधान- रचनाकार- श्री राजमल पंवैया, प्रकाशक- श्री भरत पवैया, तारादेवी पवैया ग्रन्थमाला, ४४ इब्राहीमपुरा, भोपाल, आकार-- डिमाई; पृष्ठ ९२; मूल्य- १२/- रुपये।
कर्मनुं कम्प्यूटर- लेखक- प०पू० श्री चन्द्रशेखरविजय जी०म० सा० के शिष्य मुनि मेघदर्शनविजय; प्रकाशक- अखिल भारतीय संस्कृति रक्षक दल, चन्दनबेन केशवलाल संस्कृति भवन, गोपीपुरा, सुभाष चौक, सूरत, प्रथम संस्करण १९९९ ई०; पृष्ठ ६+१७७; मूल्य- ३०/- रुपये।
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सूत्रोना रहस्यो, लेखक- मुनि मेघदर्शन विजय, प्रकाशक-पूर्वोक्त; प्रथम संस्करण १९९९ ई०; पृष्ठ ६+१७०; मूल्य ३०/
स्वरूप ऐश्वर्य केवलज्ञान अनुप्रेक्षा (गुजराती)- चिन्तक- श्री पन्नालाल जगजीवनदास गांधी; संकलक- श्री सूर्यवदन ठाकुरदास झवेरी; प्रकाशक- पद्मनन्दी प्रकाशन, गिरीशभाई ताराचन्द मेहता ५४/५६, रामबाड़ी, चौथा मार्ग, कालबादेवी, मुम्बई- ४०० ००२; आकार- डिमाई; पृष्ठ २४+२६८; मूल्य- स्वाध्याय.
यशोधरचरितम्, लेखक- वादिराजसूरि, सम्पादक- डॉ० पन्नालाल जैन साहित्याचार्य, प्रकाशक- सन्मति प्रकाशन, नरेन्द्र सदन, ४ माला, ३६ डी, मुगभाट क्रास लेन, ठाकुरद्वार, मुम्बई- ४०० ००४, प्राप्ति स्थान- (१) जैन साहित्य केन्द्र, वर्णी गुरुकूल, पिसनहारी की मढ़िया, जबलपुर (म०प्र०) (२) श्री आचार्य शिवसागर दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, शान्तिवीरनगर, श्री महावीर जी (राजस्थान), (३) जैन गजट कार्यालय, नन्दीश्वर फ्लोर मिल्स, ऐशबाग, लखनऊ (उ०प्र०); मूल्य- प्रति १०/रुपये मात्र।
प्रस्तुत कृति यशोधरचरित का कथानक उज्जैनी नरेश यशोधर और इनकी प्राणप्रिय साम्राज्ञी अमृतमती के जीवनवृत्त पर आधारित है, जो हमारे सामने विविध रूपों में आता है। यशोधर अपनी पत्नी अमृतमती के व्यवहार से क्षुब्ध होकर उदासीन जीवन व्यतीत करता है और इसका कारण माता द्वारा पूछे जाने पर वह दुःस्वप्न बताता है। माता इसके निवारणार्थ चण्डमारी के मन्दिर में बलि चढ़ाने की बात करती है। यशोधर का हृदय बलि का नाम सुनकर और आहत हुआ, लेकिन विवशतावश कृत्रिम कुक्कुट की बलि कुलदेवी को समर्पित कर दी गयी।
रानी अमृतमती को ऐसा भान हुआ कि मेरे गोपनीयता का आभास राजा को हो गया है इसलिए वह संन्यास की बात कर रहा है। इसको छिपाने के लिये वह विष भोग द्वारा उन दोनों का प्राणान्त करा देती है। कृतिम कुक्कुट की भी बलि देने के कारण माता-पुत्र को अनेक जन्मों में पशुरूप में भटकना पड़ता है।
प्रस्तुत काव्य में हिंसा के परिणाम पर एक विशद् तथ्य समाज के सामने उपस्थित किया गया है जिससे तत्कालीन समाज में हिंसा की बढ़ती प्रवृत्ति को अवरुद्ध किया जा सका।
इस महाकाव्य में कथानक के माध्यम से घटना में अचानक परिवर्तन होता है और धर्म का अनुसरण कर वे तपयोग द्वारा देवयोनि को प्राप्त करते हैं। पुस्तक की साज-सज्जा आकर्षक एवं मुद्रण त्रुटिरहित है। अच्छे कागज पर मुद्रित इस ग्रन्थ का मूल्य अत्यल्प रखा गया है। यह पुस्तक शोधार्थियों एवं पुस्तकालयों के लिये पठनीय एवं संग्रहणीय है।
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भगवान् महावीर और अहिंसा पर अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठी
भगवान् महावीर की २६०० वीं जयन्ती के शुभ अवसर पर भोगीलाल लहेरचन्द इन्स्टीट्यूट ऑफ इण्डोलॉजी, दिल्ली, १०-१२ अप्रैल २००१ को इण्डिया इण्टरनेशनल सेन्टर, नई दिल्ली में २१ शताब्दी में भगवान् महावीर और अहिंसा इस विषय पर एक अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन कर रहा है, जिसमें देश-विदेश के ४० प्रख्यात विद्वान् भाग ले रहे हैं। संगोष्ठी का उद्घाटन १० अप्रैल को प्रातः ९.३० पर होगा उद्घाटन सत्र में प्रख्यात विद्वान् डॉ० लक्ष्मीमल सिंघवी अपना मार्ग-दर्शक व्याख्यान देंगे।
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उद्देश्य
निबन्ध प्रतियोगिता
पार्श्वनाथ विद्यापीठ नवयुवकों के बौद्धिक विकास एवं जैन धर्म-दर्शन के प्रति उनकी जागरूकता को बनाये रखने के लिए एक निबन्ध प्रतियोगिता का आयोजन कर रहा है।
पार्श्वनाथ विद्यापीठ लम्बे समय से यह अनुभव कर रहा था कि लोगों को जैन धर्म-दर्शन की यथार्थ जानकारी होनी चाहिये, क्योंकि जैन दर्शन में ही विश्व दर्शन बनने की क्षमता है।
इस निबन्ध प्रतियोगिता का एक उद्देश्य यह भी है कि लोगों में पठन-पाठन एवं शोध के प्रति रुचि पैदा की जाय, जो विचारों के आदान-प्रदान के माध्यम से ही सम्भव है।
कौन प्रतियोगी हो सकते हैं
कोई भी व्यक्ति चाहे वह किसी भी धर्म, जाति, सम्प्रदाय का हो या किसी भी उम्र का हो इस प्रतियोगिता में भाग ले सकता है। पार्श्वनाथ विद्यापीठ के कर्मचारियों एवं उनके निकट सम्बन्धियों के लिये यह प्रतियोगिता प्रतिबन्धित है।
विषय
'जैन धर्म और पर्यावरण संरक्षण'
आयुवर्ग के आधार पर निबन्ध के लिए निर्धारित पृष्ठ संख्या
(१) १८ वर्ष तक — डबल स्पेश में फुलस्केप साईज (८.५x१४) में टंकित (Type) पूरे चार पेज
(२) १८ वर्ष के ऊपर - डबल स्पेश में फुलस्केप साईज (८.५x१४) में टंकित (Type) पूरे आठ पेज
पुरस्कार
निर्णायक मण्डल द्वारा चयनित प्रतियोगी को निम्नानुसार पुरस्कार देय होगा१८ वर्ष तक के प्रतियोगी के लिये :
प्रथम पुरस्कार २५०० रु. द्वितीय पुरस्कार १५०० रु. तृतीय पुरस्कार १०००रु.
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________________ 170 18 वर्ष के ऊपर के प्रतियोगी के लिये : प्रथम पुरस्कार 2500 रु. द्वितीय पुरस्कार 1500 रु. तृतीय पुरस्कार 1000 रु. प्रतियोगिता की भाषा निबन्ध हिन्दी या अंग्रेजी दोनों भाषाओं में हो सकते हैं। चयन की प्रक्रिया के निर्धारित मानदण्ड 0 निबन्ध की गुणवत्ता, विचार सम्प्रेषण की स्पष्टता एवं उनका सम्यक् प्रस्तुतीकरण। निबन्ध में अपने कथन का सप्रमाण प्रस्तुतीकरण एवं आवश्यक स्थलों पर मूल ग्रन्थों से सन्दर्भ। 0 भाषा का स्तर। निबन्ध मूल्यांकन प्रतियोगिता में प्राप्त निबन्धों का मूल्यांकन जैन धर्म दर्शन के तीन लब्धप्रतिष्ठ विद्वानों द्वारा किया जायेगा। चयन-प्रक्रिया 0 भेजे गये निबन्ध पार्श्वनाथ विद्यापीठ को 30 सितम्बर, 2001 तक स्वीकृत होंगे। समस्त निबन्धों की फोटो कॉपी बनायी जायेगी तथा प्रतियोगियों के उमवर्ग के आधार पर उन्हें एक विशेष कोड नं० दिया जायेगा। 0 निबन्धों की फोटो प्रतियाँ (बिना लेखक के नाम के) जिनमें कोड नं० अंकित होगा, प्रत्येक निर्णायक को भेजी जायेगी। निर्णायकों द्वारा अंकित निबन्ध प्राप्त होने पर उनमें क्रमश: प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय पुरस्कार के लिए चयनित प्रतियोगियों की घोषणा की जायेगी। विजेता प्रतियोगियों के निबन्धों को पार्श्वनाथ विद्यापीठ से प्रकाशित होने वाली शोध-पत्रिका श्रमण के सन् 2002 के प्रथम अंक में प्रकाशित किया जायेगा। विजेता प्रतियोगो को पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी में एक सादे समारोह के अन्तर्गत सम्मानित किया जायेगा। नोट : कृपया निबन्ध के साथ अपनी पासपोर्ट साइज का फोटो एवम् हाईस्कूल सर्टिफिकेट की फोटो प्रति (Photocopy) अवश्य भेजें। निबन्ध के साथ एक सादे कागज पर अपने पूरे पते सहित अपनी शैक्षिक योग्तया का विवरण भी भेजें।