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जैन तत्त्व- चिन्तन की वैज्ञानिकता
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डॉ० कमलेश कुमार जैन*
भारतीय दर्शनों में तत्त्वों का उल्लेख प्रायः सभी दार्शनिकों ने किया है। कुछ आचार्य तत्त्वों को 'पदार्थ' इस नाम से भी सम्बोधित करते हैं। साथ ही इन तत्त्वों की संख्या में भी मतभेद है।
वैशेषिक द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय- इन छह को भाव रूप पदार्थ तथा पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा और मनइन नौ को द्रव्य मानते हैं । १ नैयायिक प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रहस्थान — इन सोलह को पदार्थ मानते हैं । २ चार्वाक पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु — इन चारों को तत्त्व मानते हैं और उनके अनुसार इन्हीं के सम्मिश्रण से चैतन्य रूप आत्मा की उत्पत्ति होती है । ३ वेदान्त दर्शन में एक ब्रह्मतत्त्व को ही स्वीकार किया गया है।
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जैनदर्शन में लोक-व्यवस्था अथवा विश्व व्यवस्था को लेकर तत्त्व, पदार्थ और द्रव्य - इन शब्दों का प्रयोग हुआ है। जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष- ये सात तत्त्व हैं । ५ इनमें पुण्य और पाप इन दो का समावेश कर देने पर यही नौ पदार्थ कहलाते हैं। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल - ये छह द्रव्य हैं। इन छह द्रव्यों से सम्पूर्ण लोक ठसाठस भरा है। इनका सम्बन्ध विशुद्ध रूप से लोक व्यवस्था से है । यहाँ यह ध्यातव्य है कि जीव का समावेश सप्त तत्त्वों और छह द्रव्यों में भी किया गया है और सर्वप्रथम किया गया है। इसका तात्पर्य यह है कि इन सभी तत्त्वों अथवा द्रव्यों में जीव सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण एवं प्रमुख है। यदि जीव नहीं है तो चैतन्य रूप आत्मा अथवा ज्ञानपिण्ड रूप आत्मा का अस्तित्व समाप्त हो जायेगा और उसके अभाव में ज्ञान का कार्य चिन्तन ही नहीं रहेगा। अतः इतना तो सुनिश्चित है कि जीव का अस्तित्व ही चिन्तन का मूल बिन्दु है। साथ ही यदि उपर्युक्त तत्त्वों और द्रव्यों को दो भागों में विभक्त किया जाये तो एक ओर जीव है और शेष सभी तत्त्व अथवा द्रव्य अजीव रूप हैं। अजीव तत्त्व ही द्रव्यों की गणना के प्रसङ्ग * जैनदर्शन प्राध्यापक, जैन-बौद्धदर्शन विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी
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