SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 27
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यमपट अपभ्रंश साहित्य में पर्यावरण चेतना डॉ० प्रेमचन्द्र जैन* अपने आलेख का प्रारम्भ मैं सन्त विनोबा भावे और आदरणीया सरलादेवी के मध्य घटी एक घटना से करना चाहता हूँ। सन्ध्या की प्रार्थना के समय विनोबा जी के समक्ष उनके शिष्य आकर बैठते थे और बाबा (आश्रम में उन्हें बाबा सम्बोधन से ही पुकारा जाता था) के मुक्त विचार सुनते थे। बाबा के इन्हीं भक्तों में सरलादेवी भी रही हैं। उनका मूल नाम कैथरीन मेरी हाइलामन था। लन्दन में जन्मी कैथरीन गाँधी जी के विचारों की बाढ़ में भारत बह आई थीं। यह सन् १९३२ की घटना है। यहाँ उन्होंने गाँधी जी के कार्यक्रमों में भाग लेने के अतिरिक्त विनोबा के ग्राम-दान और ग्राम-स्वराज आन्दोलनों में भी भाग लिया। बाद में उन्होंने अपना जीवन ‘पर्यावरण संरक्षण आन्दोलन' को समर्पित कर दिया और उत्तर प्रदेश के 'पिथौरागढ़' जनपद के 'धरमधर' नामक स्थान पर रहकर कार्य करने लगीं। यही सरलादेवी एक शाम बाबा (विनोबा भावे) की सन्ध्या प्रार्थना-सभा में शामिल थीं। बाबा बोले, "गन्दगी में भी ईश्वर बनने वाले तत्त्व (पोटेंशियल डिविनिटी) विद्यमान हैं। हम गन्दगी को इकट्ठा करके उसे खड्डे में दबा देते हैं, तो कुछ दिनों के बाद वह सुन्दर खाद बन जाती है और तरकारी और फल पैदा करने में सहायक होती है। हमें अक्सर इस बात का ध्यान रखना चाहिए।"१ बाबा के इस प्रवचन ने सरलादेवी को भाव-विह्वल कर दिया। अगले दिन उन्होंने बाबा को एक चिट दी, जिस पर लिखा था, “वैज्ञानिकों का कहना है कि प्रकृति में कोई गन्दगी नहीं है। प्रकृति में सब जीव-जन्तु, प्राणी तथा वनस्पति जगत् मिलकर समतोल में रहते हैं। हर एक का अपना विशिष्ट कार्य है, जिससे सड़ने वाले पदार्थों की अवस्था तेजी से बदले और जल्दी से वह फिर वनस्पति-जगत् तथा उसके द्वारा जीव-जगत् की खुराक बन सके; अर्थात् प्रकृति में स्वाभाविक रूप में ब्रह्मा, विष्णु और महेश का काम बराबर चलता रहता है। जब तक मनुष्य का हस्तक्षेप नहीं हो, तब तक न गन्दगी होती है, न रोग। उसके हस्तक्षेप से ही रुद्रकार्य प्रारम्भ होता है।"२ । ये विज्ञान-सम्मत विचार जहाँ प्रकृति के वास्तविक स्वभाव का परिचय देते हैं। वहीं प्रकृति और मनुष्यों के सम्बन्धों का संकेत भी करते हैं। बहुत गहरे जाकर ये विचार *. ३११८/७१, एस०ए०एस० नगर, चण्डीगढ़, १६००५९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525043
Book TitleSramana 2001 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2001
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy