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________________ पर्यावरण सम्बन्धी वर्तमान काल की चिन्ताओं और उससे भी अधिक पर्यावरण-चेतना के स्रोत की ओर हमारा ध्यान खींचते हैं। अनादिकाल से हमारे पर्यावरण का स्वास्थ्य प्रकृति के विभिन्न रूपों और उपकरणों के मध्य आत्मनिर्भरता की ओर उन्मुख परस्परावलम्बन, सामञ्जस्य, सहभागिता और सहयोग पर आधारित सम्बन्धों के अद्भुत समीकरण पर आधारित रहा है। प्रकृति का जीवन अवदान पर आधारित है। पोषक तत्त्वों का अवदान, जीवन का अवदान, सौन्दर्य का अवदान......और इस अवदान के मूल में सृजित होने, नष्ट होने, पुनर्सजित होने का एक व्यवस्थित चक्र कार्य करता है। आधुनिक सभ्यता के जनक मनुष्य ने इसी चक्र में हस्तक्षेप किया, जिससे पर्यावरण असन्तुलन और उससे जुड़ी समस्या उत्पन्न हुईं। एक प्रकार से यह हस्तक्षेप सोने के अण्डे देने वाली मुर्गी के जीवन में किया जाने वाला हस्तक्षेप था, जिसमें समस्त मानवीय सम्बन्ध सूख गए थे और केवल अधिकतम आर्थिक हित की ऐषणा ही मानव-मस्तिष्क की नियन्त्रक बन गई थी। आधुनिक सभ्यता का कटु यथार्थ यह है कि, “हम लोग खुद भूल गए हैं कि प्रकृति के साथ हमारा क्या सम्पर्क (सम्बन्ध) है और हमारे बच्चों में भी इस बात को समझने के लिए दिलचस्पी और जिज्ञासा नहीं है। प्रकृति में समतोल है, सौन्दर्य है, शान्ति है, धैर्य है। इससे दूर और अज्ञेय रहने से आधुनिक मानव के जीवन में आवश्यक आध्यात्मिक मूल्यों का सम्पूर्ण अभाव है तथा सामाजिक-जीवन कुण्ठित और संकुचित बनता जा रहा है।"३ इस कथन का सीधा सा अभिप्राय है कि आधुनिक पर्यावरण-विशेषज्ञ और वैज्ञानिक प्राचीन भारतीय दृष्टि का समर्थन करते हुए पर्यावरण असन्तुलन से उत्पत्र संकटों को समझने तथा हमारे चिन्तन को एक नई दिशा देने का प्रयास कर रहे हैं। बाबा आम्टे, सरला देवी, सुन्दरलाल बहुगुणा, मेधा पाटेकर और पर्यावरण के सम्बन्ध में अभी-अभी चर्चा में आयीं अरुन्धती राय तक सभी यह मानते हैं कि मनुष्य और प्रकृति के बीच एकात्मता पर आधारित सम्बन्ध है, जो उन्हें मूलत: हृदय की भावना के स्तर तक जोड़ता है। प्रश्न यह है कि प्रकृति और मनुष्य के बीच की इस अनिवार्य एकात्मता के विषय में अपभ्रंश के कवि क्या सोचते थे? यह प्रश्न इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि हमारे समीक्षा-साहित्य में यह धारणा पूरी तरह प्रतिष्ठित है कि अपभ्रंश साहित्य का अधिकांश, रहस्य, दर्शन, अध्यात्म, उपदेश और ऐहिकतापरक है। इस स्थिति में कभी-कभी यह सोचने का मन होता है कि हिन्दी साहित्य को अभिनव दिशा देने वाले अपभ्रंश के कवियों ने प्रकृति को किस दृष्टि से देखा था? क्या प्रकृति नायक-नायिका के मनोभावों की अभिव्यक्ति का उपकरण भर थी अथवा उसका कोई और भी अर्थ था? यह प्रश्न इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि महात्मा बुद्ध के विषय में प्रसिद्ध है कि उन्होंने अपने अनुयायियों को उपदेश दिया था कि वे प्रत्येक पाँच वर्ष में एक-एक वृक्ष रोपें और उसकी रक्षा करें। इसका अर्थ है कि बुद्ध के मन में मानव तथा प्रकृति के एकात्म का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525043
Book TitleSramana 2001 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2001
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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