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________________ २३ विचार था। तो फिर वैसा विचार युग के प्रति पर्याप्त सचेत अपभ्रंश के कवियों में क्यों नहीं होगा ? प्रसंगात यहाँ यह लिखना असंगत नहीं होगा कि अद्यावधि उपलब्ध अपभ्रंश साहित्य के रचनाकारों ने जैन कथानकों की पृष्ठभूमि पर ही महाकाव्य, खण्डकाव्य, मुक्तक और चरितकाव्यों को प्रस्तुत किया है। इसके रचनाकारों में से अधिक संख्या उन्हीं की बैठती है, जिनके धर्म में अहिंसा की इतनी पराकाष्ठा कि देवता के चढ़ाने के लिए भी पुष्पों का तोड़ना वर्जित है। तो फिर 'अपभ्रंश साहित्य में पर्यावरणीय चेतना' के प्रश्न पर विचार करना और भी महत्त्वपूर्ण तथा अनिवार्य क्यों न हो? परन्तु प्रस्तावित 'अपभ्रंश साहित्य में पर्यावरणीय चेतना' की खोज जितनी सहज है, विवेचन उतना सहज नहीं है। चूँकि, “अपभ्रंश भाषा का समय भाषा विज्ञान के आचार्यों ने ५०० ई० से १००० ई० तक बताया है किन्तु इसका साहित्य हमें लगभग ८ वीं सदी से मिलना प्रारम्भ होता है। प्राप्त अपभ्रंश साहित्य में स्वयंभू सबसे पूर्व हमारे सामने आते हैं। अपभ्रंश साहित्य का समृद्ध युग ९ वीं से १३ वीं शताब्दी तक है। "४ इस अपभ्रंश साहित्य की विपुल सामग्री के रूप में स्वयंभू के पउमचरिउ, पुष्पदन्त के महापुराण, णायकुमारचरिउ, जसहरचरिउ, पासणाहचरिउ, करकंडुचरिउ आदि चरित काव्य; भविसदत्तकहा, सुअन्यदहमीकहा आदि कथा काव्य; अद्दहमाणकृत संदेशरासक आदि संदेशकाव्यात्मक सामग्री, प्रकाशित एवं अप्रकाशित रूप में उपलब्ध हो चुकी है । ५ अतएव मैंने ऊपर यह कहा था कि अपभ्रंश साहित्य के शताधिक ग्रन्थों में से पर्यावरणीय चेतना के अर्न्तभूत स्वरों का विवेचन उतना सहज नहीं है- कम से कम संगोष्ठी में पढ़े जाने वाले आलेख में...... - .1 अतएव मैं 'अपभ्रंश साहित्य में पर्यावरणीय चेतना' दर्शाने हेतु अपभ्रंश की एक लघुकाय रचना सन्देशरासक को माध्यम बना रहा हूँ। अद्दहमाण (अब्दुल रहमान) की यह अपभ्रंश की अति महत्त्वपूर्ण कृति है। दो सौ तेईस छन्दों (पद संख्या) की इस रचना का प्रारम्भ इन पंक्तियों से होता है रयणायरधरगिरितरुवराइँ गयणंगणंमि रिक्खाई। जेणऽज्ज सयल सिरियं सो बहुयण वो सिवं देउ । । ६ इस पद में ईश्वर द्वारा बुधजनों के कल्याण की कामना है। वह ईश्वर बुधजनों का कल्याण करे, जिसने समुद्र, पृथ्वी, पर्वत, वृक्ष तथा आकाशरूपी आँगन में तारों की रचना की है। वृक्ष, पर्वत, समुद्र आदि की रचना ईश्वर के कल्याणकारी रूप के प्रमाण हैं। सोचने का विषय है कि ऐसा क्यों है ? और इसका उत्तर है कि प्रकृति के सभी तत्त्व कल्याणकारी हैं। मनुष्य से भी पूर्व इनका सृजन इसीलिए हुआ कि ये उसके जीवन को सम्भव बना सकें। अपनी अन्नदाता प्रकृति से उसे वायु, जल, अन्न आदि प्राण- तत्त्व प्रदान कर सकें। ईश्वर को अपने कल्याणकारी रूप को प्रकट करने का साधन भी इस कल्याणकारी प्रकृति ने ही प्रदान किया या यो कहें कि ईश्वर ने अपने कल्याणकारी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525043
Book TitleSramana 2001 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2001
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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