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राजकुमार लज्जावश एकदम कुम्हला गया और विचारने लगा मैंने ऐसा क्या पाप कर्म किया था जिससे मैं अज्ञानी हुआ। हे भाग्य! मेरे हृदय के दो टुकड़े कर दो जिससे मूर्खता का कांटा सूख जाय! हे सरस्वती माता! मैंने ब्रह्महत्या, बालहत्या अथवा नीच की संगत भी की नहीं, फिर तुम मेरे से दूर क्यों रहती हो?
इस प्रकार राजकुमार को चिन्तामग्न देखकर सुरेन्द्रदत्त ने कृपापूर्वक कहा- मित्र! खेद मत करो, अब तुम्हारे पश्चाताप से सरस्वती तुम्हारे पास आना चाहती हैं। ज्ञानवरणीय कर्म का भी तुम्हारे आत्मनिन्दा से क्षय हो रहा है। उसने मणि को प्रक्षालित कर राजकुमार को पिलाया जिससे उसका हृदय पुनर्जन्म की भाँति परिवर्तित हो गया और उसमें विवेक पूर्वक बुद्धि प्रादुर्भूत हो गई।
राजकुमार ने सुरेन्द्रदत्त का उपकार माना और आलिंगनपूर्वक मन में विचार किया, मैं राजा होऊँगा, तब इसे नगर सेठ का पद दूंगा। दोनों साथ-साथ अभ्यास करते जिससे उनकी मित्रता दृढ़ हो गई। अध्ययन पूर्ण होने पर सब अपने-अपने घर गये। सुभद्रा भी पढ़ाई पूर्व कर युवावस्था को प्राप्त हुई। . सागर सेठ सुभद्रा को वयस्क हुई देखकर वर के लिए चिन्ता करने लगा। सुभद्रा ने कहा पिता जी आप चिन्ता क्यों करते हैं, मैं स्वयं समय आने पर योग्य वर शोध दूंगी।
एक बार वसन्त ऋतु में सभी नागरिक उपवन में गये। सुरेन्द्रदत्त भी मित्रों के साथ क्रीड़ा करने बगीचे में गया। सागर सेठ की पुत्री सुभद्रा भी सखियों के साथ गई हुई थी। सखियों ने कहा सुभद्रा! तुमने पिता को विवाह के लिए अस्वीकृति क्यों दी? उसने कहा-योग्यायोग्य का विचार कर ही निर्णय लूँगी। जो मेरे चार प्रश्नों का सन्तोषजनक उत्तर देगा उसी से विवाह करूँगी। अत:
सुकृतस्यात्र किं सारं, किं सारं नर जन्मनः ।
विद्याया शापि किं सारं, किं सारं शर्मणा पुनः।। (इस जगत् में पुण्य का सार क्या है? मनुष्य जन्म का सार क्या है? विद्या का सार क्या है? और सुख का सार क्या है?)
सभद्रा और सखियों की इस चर्चा को वृक्ष की ओट में घूमते हए खड़े सुरेन्द्रदत्त ने सुन लिया। उसने तुरन्त चारों प्रश्नों के उत्तरस्वरूप निम्न श्लोक लिखकर सुभद्रा की जाते समय नजर पड़ जाय, ऐसे वृक्ष पर टांग दिया। सुभद्रा ने जाते हुए उस पत्र को देखकर पढ़ा, उसके प्रश्नों के उत्तर सुरेन्द्रदत्त ने इस प्रकार लिखा था।
सुकृतस्य कृपा सारं, सत्कर्म नर जन्मनः विद्या वास्तत्त्वधीः सारं संतोष शर्मणा पुनः
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