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________________ होने लगता है, पुष्पों पर भ्रमर मंडराने लगते हैं, पलाश तेज अग्निवर्णी या रक्तवर्णी पुष्पों से भर जाते हैं, आम्र के वृक्ष मञ्जरियों से भर जाते हैं, नायिकाओं में प्रिय के नैकट्य की व्याकुलता बढ़ जाती है, कीर नृत्य करने लगते हैं और कोयल गाने लगती है । स्पष्टतः प्रकृति में एक बदलाव दृष्टिगत होता है, दूसरा जन-जीवन में और तीसरा व्यक्ति के जीवन में भी। ऋतु चक्र, पृथ्वी, आकाश, वायु, जल, अग्नि में परिवर्तन उपस्थित करता है और ये सब जन-जीवन व व्यक्ति-जीवन को प्रभावित करते हैं । कभी उसे कोमल बनाते हैं, कभी कठोर । सन्देशरासक की विरहिणी नायिका वैयक्तिक मनःस्थिति का वर्णन करती हुई भी इस व्यापक परिवर्तन-चक्र के वर्णन से बाहर नहीं निकल पाती। कवि उसी के माध्यम से बड़े सूक्ष्म मार्गों से प्रकृति और मनुष्य के शाश्वत सम्बन्धों को चित्रित करता है। वह बताता है कि मनुष्य का सारा जीवन ही प्रकृति से जुड़ा है। प्रकृति एक ऐसी सत्ता है, जो हमारी देह के साथ ही हमारे मन और विचारों को भी प्रभावित करती है, इसी कारण ऋतु परिवर्तन हमारे व्यवहार को, हमारे आचरण को बदल डालता है। इस अनिवार्य सम्बन्ध को नकारते हुए यदि मनुष्य प्रकृति के साथ मनमानी पर उतरता है, तो उसके अपने जीवन में अव्यवस्था उत्पन्न होती है और अस्तित्व बनाए रखने के मार्ग में अनेक बाधाएँ आ जाती हैं। २७ अद्दहमाण एक पर्यावरणविद् भले ही न रहा हो, लेकिन वह एक सुकवि अवश्य था- और सुकवि की विशेषता होती है, कला- कोविद होने के साथ अपने काल से सचेत रूप में जुड़े रहना। कहना न होगा कि अब्दुल रहमान में यह विशेषता थी । वह अपने परिपार्श्विक परिवेश, अपने चारों ओर की प्रकृति, अपने काल की जन या लोक-संस्कृति अर्थात् अपने काल के पर्यावरण से जुड़ा था । वस्तुतः मूल बात तो यह थी कि उस युग में पर्यावरण प्रदूषण या पर्यावरण- असन्तुलन जैसी समस्याएँ नहीं थीं । वह युग प्रकृति के जीवन में मनुष्य के स्वार्थान्ध हस्तक्षेप का युग न होकर प्रकृति सौरभ के वैभव और प्रकृति - सौन्दर्य पर रीझने का युग था, इसलिए वही कविता में आया है । सन्देशरासक तो १२ वीं शती की लघुकाय रचना है। स्वयंभू (८वीं शती), पुष्पदन्त (१०वीं) के क्रमशः पउमचरिउ, रिट्ठणेमिचरिउ, णायकुमारचरिउ, महापुराण जैसे बृहद्काय ग्रन्थों में वर्णित ऋतु वर्णन, वनोद्यान, नदी, तालाब, पशु-पक्षी आदि के अद्भुत चित्रण से किसका मनमुग्ध न होगा। वे वर्णन कहीं-कहीं असामान्य बन पड़े हैं। यहाँ उद्धरण अपेक्षित होते हुए भी विस्तारभय लेखनी को प्रतिबन्धित करने में सक्षम हो रहा है। स्वयंभू एवं पुष्पदन्त के प्रकृति-चित्रण मानस को स्फूर्त कर देने वाले हैं और ये कवि अपभ्रंश साहित्य के पुरोधा माने गए हैं। कहना न होगा अपभ्रंश साहित्य के मूल्यांकन और पुर्नमूल्यांकन की दिशा में शोध कार्यों की महती आवश्यकता है। दरअसल, “स्वयंभू (८ शताब्दी ईस्वी) से लेकर रइधू (१५वीं शती) तक के इस अपभ्रंश साहित्य का सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में बहुत बड़ा ऐतिहासिक महत्त्व है" १६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525043
Book TitleSramana 2001 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2001
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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