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________________ अगर अदरणश्रमण श्रकारण प्रकरण श्रमण मण प्रश्ण श्रमण अण प्रकरण श्रम श्रणश्रमण श्रमण श्रमण श्रमण श्रमण श्रमण श्रमम Ba 2202 グ वराङ्गचरित श्र एक महाकाव्य श्रमण श्रमण प्रभाग प्रमाण श्रमण श्रमण प्रकरण प्रकरण प्रमण प्रवण श्राश्रवणश्रणश्रण श्रमण श्रमण श्रमण वराङ्गचरित १ जैन चरित काव्यों में संस्कृत का प्रथम चरितकाव्य है। इसमें २८१५ श्लोक विविध वृत्तों में प्रणीत है। प्रस्तुत काव्य आचार्य जटासिंहनन्दी द्वारा विरचित है। इसका रचनाकाल सातवीं शती का उत्तरार्द्ध माना जाता है । २ काव्यशास्त्रियों ने काव्य की विभिन्न विधाओं के लक्षण एवं स्वरूप पर व्यापक रूप से विचार किया है। उनकी कृतियों में महाकाव्य के लक्षणों का विशद् वर्णन प्राप्त होता है। भामहकृत काव्यालङ्कार ( ५-६ वी शती) दण्डीकृत काव्यादर्श (छठी-सातवीं शती), रुद्रटकृत काव्यालङ्कार (नवीं शती), आचार्य हेमचन्द्रकृत काव्यानुशासन (११-१२वीं शती) आदि इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। जीतेन्द्र कुमार सिंह * यहाँ मनीषियों द्वारा प्रतिपादित लक्षणों के आलोक में वराङ्गचरित के महाकाव्यत्व की समीक्षा का प्रयास किया गया है। जो इस प्रकार है (१) महाकाव्य की कथा सर्गबद्ध होनी चाहिए। भामह ३, दण्डी ४, रुद्रट ५, हेमचन्द्र ६ आदि काव्यशास्त्रियों ने इसको काव्य का लक्षण माना है। आचार्य विश्वनाथ अनुसार महाकाव्य में न्यूनतम सर्ग संख्या ८ होनी चाहिए। इस दृष्टि से वराङ्गचरित के ३१ सर्ग उसे महाकाव्य की श्रेणी में ले आते है। (२) महाकाव्य का कथानक पौराणिक, ऐतिहासिक या परम्परागत कथा पर अवलम्बित होना चाहिए । आचार्य दण्डी' ने उक्त मत का प्रतिपादन किया है। वराङ्गचरित का नायक वराङ्ग जैन परम्परा का एक पौराणिक चरित है। *. o (३) कथानक में मुख्य पञ्चसन्धियों का प्रयोग अपेक्षित है। भामह ९, दण्डी १ आदि सभी आचार्यों के अनुसार महाकाव्य पञ्चसन्धि समन्वित होना चाहिए। आलोच्य कृति में पञ्चसन्धियों की योजना प्राप्त होती है। प्रारम्भ से वराङ्ग के जन्म की कथा में मुख सन्धि की योजना है। वराङ्ग का युवराज होना और ईर्ष्या का पात्र बनना प्रतिमुखसन्धि है । अश्व द्वारा वराङ्ग का अपहृत होना, कुएँ में गिराया जाना, कुएँ से निःसृत होकर बाहर आना, व्याघ्र, भिल्ल आदि के आक्रमण से उसका रक्षित होना तथा वराङ्गका सागरबुद्धि के यहाँ गुप्त रूप से निवास करना, बकुलाधीश का उत्तमपुर शोधछात्र, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी (शोधनिर्देशक डॉ० अशोक कुमार सिंह) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525043
Book TitleSramana 2001 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2001
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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