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________________ Durnamen. R ANIB sASERATEEममा ममतान्यायापायामकमान्य garamatiPOAVKOMATERNa एकSVARRowLasterrer मा sayer - कम-arr नयाSUP0RPOSE02.0DRA-मर-अकरमरकामार Sarraceरममा0PCSCRACHAMACHCHO N I RALA - TATERTAI अछARRRRRRRRRRRRRRENARRORarPER T KRISED ARARD डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय आचार में अहिंसा और विचार में अनेकान्त जैन धर्म और दर्शन के दो ऐसे स्तम्भ हैं जिनपर उसका भव्य प्रासाद अवस्थित है। जहाँ अहिंसा व्यावहारिक जगत् के संघर्षों का समाधान करती है, अनेकान्त वैचारिक संघर्षों का समाधान करता है एवं दोनों का समन्वय ही जैन दर्शन की पूर्णता है। सत्यान्वेषण भारतीय दर्शन का प्रमुख वैशिष्ट्य रहा है। भारतीय दर्शन प्रणालियों में मुख्यतया एकान्तवादी और अनेकान्तवादी चिन्तन के दो दृष्टिकोण हैं। एकान्तवादी का अर्थ है- एक ही दृष्टिकोण से चिन्तन का आयाम तथा अनेकान्तवादी का अर्थ है अनेक दृष्टिकोण से चिन्तन का आयाम। एकान्त का अर्थ है- वस्तु के एक ही धर्म को स्वीकार करना या वस्तु को एक ही दृष्टिकोण से देखना जो वस्तु के यथार्थ स्वरूप के सर्वथा विपरीत और असत्य है। स्पष्ट है कि एकान्तवादी विचारधार वस्तु या तत्त्व के समग्र पहलुओं की समुचित व्याख्या नहीं कर सकती क्योंकि उसका दृष्टिकोण एकान्तिक होगा। सत् के दो पहलू हैं- द्रव्य और पर्याय। सत् के इन विविध पहलुओं में से अद्वैत वेदान्त ने द्रव्य को पारमार्थिक सत्य मानकर पर्याय को काल्पनिक कहा तो बौद्धों ने पर्याय को पारमार्थिक बता कर द्रव्य को काल्पनिक माना। अन्य दार्शनिक इन मतों का खण्डन-मण्डन करते प्रतीत होते हैं। इसके विपरीत समन्वयवादी जैन चिन्तकों ने सत् को उत्पाद, व्यय और ध्रौव्ययुक्त मानकर द्रव्य तथा पर्याय दोनों की सत्यता का उद्घोष किया है तथा स्वसिद्धान्त को अनेकान्तवाद के नाम से प्रतिपादित किया है। अनेकान्तवाद अनन्तधर्मात्मक वस्तु के विराट स्वरूप को जानने का वह निर्दोष सिद्धान्त है जिसमें विवक्षित धर्मों को जानकर भी वस्तु में उपस्थित अन्य धर्मों का निषेध नहीं किया जाता है। वस्तु का कोई भी अंश छूट नहीं पाता। इस प्रकार अनेकान्तवाद सर्वत्र रहे हुए सत्य खण्डों को जोड़कर सम्पूर्ण सत्य के दर्शन का सिद्धान्त है। परम्परा की दृष्टि से अनेकान्तवाद के उद्भावक प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेव हैं। २ किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से अनेकान्तवाद का उद्भव २३ वें तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ की शिक्षाओं *. वरिष्ठ प्रवक्ता, जैन दर्शन, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525043
Book TitleSramana 2001 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2001
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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