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________________ में हुआ। उनके २५० वर्षों बाद भगवान् महावीर अनेकान्तवाद के प्रबल प्रवर्तक हुए। स्वतन्त्र दृष्टि से विचार किया जाय तो अनेकान्तवाद का उद्भव विभिन्न दर्शनों द्वारा दृष्ट सत्यों में एकरूपता लाने, उनमें समन्वय तथा सामञ्जस्य स्थापित करने तथा दुराग्रह एवं अभिनिविष्ट वृत्ति को छोड़कर स्वस्थ, निर्मल एवं तटस्थ भाव से सत्य की खोज करने हेतु ही हुआ है। अनेकान्त शब्द में अनेक' और 'अन्त' इन दो शब्दों का संयोग है जिसमें अनेक का अर्थ है- एक से अधिक और अन्त का अर्थ है- धर्म या गुण। रत्नकरावतारिकारे में अन्त शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार दी गई है। 'अम्यते गम्यते निश्चीयते इति अन्तः धर्म:। न एक: अनेकः। अनेकश्चासौ अन्तश्च इति अनेकान्तः।' इस प्रकार वस्तु में अनेक धर्मों को मानना अनेकान्त है। अब अनेकान्तवाद को लें। अनेकान्तवाद में अनेक, अन्त, और वाद इन तीन शब्दों का संयोग हैं। दो शब्दों का अर्थ तो पूर्ववत ही है, वाद शब्द का अर्थ है- प्रकटीकरण या प्रभावना। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश में वाद शब्द का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि व्यवहार में धर्म प्रभावना अर्थात् व्यवहार में वस्तुओं की अनन्तधर्मता को प्रकट करना ही वाद है। इस प्रकार अनेकान्तवाद का अर्थ होगा वस्तुओं की अनन्तधर्मता को प्रकट करना। सप्तभंगीतरंगिणी५ में अनेकान्तवाद की व्युत्पत्ति करते हुए कहा गया है कि "अनेके अन्ता धर्म: यस्मिनवादे सह अनेकान्तवादः" यहाँ अन्त शब्द धर्म का वाचक है। इस परिभाषा में अनेकान्तवाद के उपरोक्त अर्थ की ही पुष्टि की गई है। अष्टसहस्री में अनेकान्त शब्द का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि वस्तु में न सर्वथा सत्व है न सर्वथा असत्व। न सर्वथा नित्यत्व है, न सर्वथा अनित्यत्व है। किन्तु किसी अपेक्षा से उसमें सत्व है तो किसी अपेक्षा से असत्व, किसी अपेक्षा से नित्यत्व है तो किसी अपेक्षा से अनित्यत्व है। सत्व, असत्व, नित्यत्व, अनित्यत्व आदि सर्वथा एकान्तों के अस्वीकृति अथवा प्रतिवाद का नाम ही अनेकान्त है। इन परिभाषाओं के आधार पर अनेकान्तवाद का अर्थ होता है वस्तुओं की अनन्त धर्मता को प्रकट करना या विभिन्न अपेक्षाओं से एक ही वस्तु में अनेक धर्मों को स्वीकार करना। डॉ. सागरमल जैन ने अनेकान्तवाद के केवल इस अर्थ से असहमति व्यक्त की है। उनके अनुसार अनेकान्तवाद केवल वस्तु की अनन्तधर्मात्मकता को ही सूचित नहीं करता अपितु वह उसकी अनेकान्तिता को भी सूचित करता है। इस प्रकार अनेकान्त का अर्थ अनेक-अन्त (एक से अधिक अर्थ न होकर अन्+एकान्त अर्थात् एकान्त का निषेध है) क्योंकि जैन दर्शन के अनुसार वस्तु तत्त्व अनन्तधर्मात्मक होने के साथ-साथ अनेकान्तिक भी है। मानव बुद्धि जिन्हें परस्पर विरोधी धर्मगुण मान लेती है वे भी एक ही वस्तु तत्त्व में अपेक्षा भेद से एक साथ रहते हुए देखे जाते हैं। जैसे एक ही व्यक्ति पितृत्व और पुत्रत्व, भातृत्व और पतित्व आदि विरोधी गुणधर्मों से सम्पन्न है। जो व्यक्ति अपने पिता की अपेक्षा से पुत्र है वही अपने पुत्र की अपेक्षा से पिता है। इस प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525043
Book TitleSramana 2001 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2001
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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