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________________ एक ही वस्तु में अनेक परस्पर गुणधर्म अपेक्षा भेद से विद्यमान रहते हैं। वस्तु एक ही साथ सद्सदात्मक, नित्यानित्यात्मक एवं भावाभावात्मक भी है। सर्वथा नित्यत्व और सर्वथा अनित्यत्व रूप कोई वस्तु नहीं है। क्योंकि नित्यता और अनित्यता दोनों धर्म वस्तु में विद्यमान हैं तथा केवल किसी एक की सर्वथा स्वीकृति एकान्तवादी होगी जो आग्रह से परे नहीं होगी। वस्तु का एकरूप तीनों कालों में शाश्वत है और दूसरा सदा परिवर्तनशील है। इसी शाश्वतता के गुणधर्म के कारण प्रत्येक वस्तु द्रव्यात्मक है या स्थिर है और परिणमनशीलता के कारण वह उत्पाद-व्ययात्मक या अस्थिर है। भगवान् महावीर ने अपने युग में प्रचलित शाश्वतवादी और उच्छेदवादी परस्पर भिन्न और विरोधी विचारधाराओं के बीच समन्वयरूप त्रिपदी “उपत्रेइ वा विगमेइ वा धुवेइ वा'१° का उपदेश दिया त्रिपदीरूप यही वह बीज है जिस पर अनेकान्तवाद और स्याद्वाद रूपी वटवृक्ष विकसित हआ है। अवधेय है कि साधारणतया अनेकान्तवाद और स्याद्वाद पर्यायवाची माने जाते हैं, अनेक आचार्यों ने इन्हें पर्यायवाची बताया भी है किन्तु फिरभी दोनों में थोड़ा अन्तर है। अनेकान्तवाद स्याद्वाद की अपेक्षा अधिक व्यापक अर्थ का द्योतक है। दोनों में व्याप्य-व्यापक भाव है। अनेकान्तवाद व्यापक है और स्याद्वाद व्याप्य। अनेकान्तवाद वाच्य है तो स्याद्वाद वाचक। अनेकान्त वस्तुरूप है तो स्याद्वाद उस अनेकान्तिक वस्तु स्वरूप के कथन की निर्दोष भाषा पद्धति और अनेकान्त दर्शन है तो स्याद्वाद उसकी अभिव्यक्ति का ढंग।११ स्याद्वाद सप्तभंगीनय के आधार पर वस्तु तत्त्व का निर्दोष व सापेक्षित कथन करता है जिसके बिना अनेकान्तवाद की समुचित व्याख्या नहीं की जा सकती। डॉ० पद्मराजे १२ ने कहा है कि अनेकान्तवाद जैन दर्शन का हृदय है तथा नयवाद और स्याद्वाद इसकी रक्तवाहिनी धमनियाँ हैं। यद्यपि जैन दर्शन अनेकान्तवादी है तथापि यदि उसे सर्वथा अनेकान्तवादी मानें तो यह भी एक एकान्त हो जायेगा। १३ जैन दर्शन में अनेकान्त में भी अनेकान्त को स्वीकार किया गया है। जैन दर्शन सर्वथा न एकान्तवादी है न सर्वथा अनेकान्तवादी। वह कथञ्चित एकान्तवादी है और कथञ्चित अनेकान्तवादी। आचार्य समन्तभद्र के अनुसार प्रमाण और नय की अपेक्षा से अनेकान्त भी अनेकान्त है। यद्यपि जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक वस्तु अनेक परस्पर विरोधी धर्म युगलों (अनेकान्तवाद के आधार पर चार विरोधी धर्म युगलों का निर्णय किया जाता है- १. शाश्वत और परिवर्तन, २. सत् और असत्, ३. सामान्य और विशेष, ४. वाच्य तथा अवाच्य। परन्तु ये चार विरोधी युगल मात्र एक संकेत हैं। द्रव्य में इस प्रकार के अनेक विरोधी युगल हैं वह उन विरोधी धर्म युगलों) का पिण्ड है तथापि वस्तु में सम्भाव्यमान परस्पर विरोधी धर्म ही पाये जाते हैं, असम्भाव्यमान नहीं, अन्यथा आत्मा में नित्यत्व एवं अनित्यत्व के समान चेतनत्व और अचेतनत्व दोनों धर्मों की सम्भावना का प्रसंग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525043
Book TitleSramana 2001 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2001
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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