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________________ १३ इसी प्रक्रिया को जैनदर्शन में क्रमश: संवर और निर्जरा कहा गया है। इस प्रक्रिया से जीव जब सम्पूर्ण घातिया-अघातिया रूप कर्मों का नाश कर देता है तब वह संसार सागर से मुक्त होकर मोक्ष पद को प्राप्त कर लेता है। इसी प्रक्रिया को पण्डित दौलतराम जी ने इस प्रकार व्यक्त किया है निज काल पाय विधि झरनो, तासों निज काज न सरना। तप करि जो कर्म खिपावै, सोई शिव-सुख दरसावै।।११ __ इस प्रकार सप्त तत्त्वों की चर्चा को यही विराम देता हूँ। अब मूल प्रश्न यह है कि जीव और अजीव के अनादिकालीन सम्बन्ध में धुरी का कार्य करने वाले मन, वचन और काय की क्रिया को रोका कैसे जाये? अर्थात् इसका व्यावहारिक पक्ष क्या होगा? इस प्रश्न का उत्तर देने के लिये यहाँ तत्त्व शब्द के सीमित अर्थ को त्यागकर हमें उसे व्यापक अर्थ में ग्रहण करना होगा और तब तत्त्व शब्द का अर्थ होगा- वे सभी सिद्धान्त जो जीव अथवा चेतना के ऊर्वारोहण में सहायक हों। इसे हम आध्यात्मिक तत्त्वज्ञान भी कह सकते हैं। जैनदर्शन में जीव के भावों का विशेष महत्त्व है। यदि जीव मन, वचन और काय की खोटी प्रवृत्ति का त्याग कर शुभ में प्रवृत्त होता है और पुन: शुभ से भी निवृत्त होकर शुद्धत्व/आत्म स्वरूप को प्राप्त होता है तो वह संसार के बन्धनों से मुक्त हो सकता है। इसके लिये संसार, शरीर और भोगों के प्रति अनासक्ति अपेक्षित है। जीव का संसार के प्रति जब तक रञ्चमात्र भी लगाव है तब तक वह आत्मकल्याण की बात सोच भी नहीं सकता है। अत: संसार में स्थित प्रत्येक पदार्थ का सच्चा स्वरूप जानना आवश्यक है और यह सब होगा जीव के द्वारा सम्यक्ज्ञान की प्राप्ति से। ज्ञान में सम्यक्त्व लाने के लिये सम्यग्दर्शन का होना अपेक्षित है अर्थात् बिना सम्यग्दर्शन के सम्यग्ज्ञान नहीं और बिना सम्यग्ज्ञान के सम्यक् चारित्र नहीं तथा बिना सम्यक् चारित्र के मोक्ष की प्राप्ति नहीं। यह एक ऐसी अटूट शृङ्खला है कि जिसपर क्रमश: बढ़ते जाने से जीव अपने चरम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। जन्म, बुढ़ापा और मृत्यु- इन तीन के द्वारा संसार के सभी जीव दःखी हैं और ये दु:ख प्रत्यक्ष हैं, इसलिये अविश्वास का कोई कारण नहीं है। महात्मा बुद्ध ने अपने बाल्यकाल में भ्रमण करते समय रोगी, वृद्ध और मृत व्यक्ति को देखकर अपने सारथी से जिज्ञासा की थी कि ये लोग कौन हैं? तब सारथी ने यही कहा था कि ये सभी हम जैसे प्राणी हैं और सभी के जीवन में ऐसी स्थिति आती है। इस सच्चाई को जानते ही बालक बुद्ध उदासीन हो गये और वे इस दु:ख से मुक्त होने के उपाय की खोज में घर से निकल पड़े तथा घोर तपश्चरण तथा चिन्तन के माध्यम से उन्होंने संसार की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525043
Book TitleSramana 2001 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2001
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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