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जैन साहित्यनी गजलो- सम्पादक- डॉ० कविन शाह; प्रकाशक- श्री भद्रंकरोदय शिक्षण ट्रस्ट की ओर से डॉ० कविन शाह, ३/१ 'माणेक शा', अष्टमंगल अपार्टमेण्ट, आइस फैक्ट्री के सामने, बीलीमोरा ३९६३२१; प्रथम संस्करण वि०सं० २०५५; आकार-- डिमाई, पक्की बाइण्डिंग, पृष्ठ २००; मूल्य– ६०/- रुपये।
जैन साहित्य में गजलों का प्रारम्भ स्थल वर्णन से हुआ है। बड़ोदरा, सूरत, चित्तौड़, उदयपुर, पालनपुर आदि नगरों के वर्णन में जैन रचनाकारों ने विभिन्न गजलों की रचना की है। इनका प्रारम्भ १८वीं शती माना जाता है। जिस प्रकार से ब्राह्मणीय-परम्परा के पुराणों में काशी महात्म्य, गया महात्म्य आदि का वर्णन है उसी प्रकार से १४वीं शताब्दी में खरतरगच्छ की लघु शाखा के आचार्य जिनप्रभसूरि ने. विविधतीर्थकल्प (मूल नाम- कल्पप्रदीप) की रचना की, जिसके अन्तर्गत उन्होंने तीर्थों के ऐतिहासिक, धार्मिक और भौगोलिक विवरणों को संस्कृत और प्राकृत भाषा में प्रस्तुत किया है। ऐसा अनुमान किया जाता है कि उक्त कृति का प्रभाव १८वीं शती में स्थल वर्णन करने वाली गजलों पर पड़ा। १८वीं शताब्दी के मध्य खरतरगच्छीय कवि खेता द्वारा रची गयी चित्तौड़ री गज़ल और १९वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में कवि दीपविजय द्वारा रचित विभिन्न गजलों में उक्त बात स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। सुप्रसिद्ध आचार्य आत्मारामजी अपरनाम विजयानन्दसूरि जी महाराज ने पूजा साहित्य के रूप में गजलों का सर्वप्रथम प्रयोग किया। उन्हीं के समकालीन श्रावक कवि मनसुखलाल ने आध्यात्मिक विचारधारा को गजलों में स्थान दिया। कवि वीरविजय ने भक्तिमार्ग में लोक प्रचलित स्तवनों की रचना गजलों के रूप में की। कवि हंसविजय ने पूजा साहित्य को गजलों के रूप में प्रस्तुत किया। उनके गजलों में तीर्थङ्करों के गुणगान के साथ-साथ तीर्थमहिमा का भी वर्णन है। आचार्य विजयवल्लभसूरि ने वैराग्य बोध वाली गजलों का प्रणयन किया। पं० मणिविजय ने भी उपाध्याय वीरविजय के समान ही स्तवनों की रचना में गजलों का प्रयोग किया। आचार्य विजयलब्धिसूरि ने जैन साहित्य में गजलों के विकास में अत्यधिक योगदान किया। उन्होंने बारह भावना, चार भावना, तत्त्वत्रयी, व्यसननिषेध, उपदेशात्मक वैराग्यभाव निरूपण और मानवीय गुणों के विकास हेतु व्यवहार जीवन-विषयक गजलों की रचना कर जैन गजल साहित्य को समृद्ध किया। आगमप्रभाकर मुनि पुण्यविजय द्वारा रचित दो गजलें उल्लेखनीय हैं। इनमें उन्होंने गुरु-महिमा का वर्णन किया है। आचार्य दक्षसूरि द्वारा रचित विभिन्न गजल प्रभुभक्ति-विषयक हैं। प्रस्तुत पुस्तक में विद्वान् सम्पादक ने प्रथम अध्याय में गजल के स्वरूप की विस्तृत चर्चा की है। द्वितीय अध्याय में जैन साहित्य में गजलों के उद्भव और विकास का वर्णन किया है। तृतीय अध्याय में १४ जैन कवियों का जीवन परिचय एवं उनके द्वारा रचित गजल दिये गये हैं। चतुर्थ और अन्तिम अध्याय में प्रकीर्ण गजलों एवं सन्दर्भ ग्रन्थ-सूची आदि का विवरण है। पुस्तक की साज-सज्जा आकर्षक और मुद्रण त्रुटिरहित है। ऐसे सुन्दर और प्रामाणिक ग्रन्थ के प्रणयन और उसे अल्प मूल्य
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