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________________ १६४ में पाठकों तक पहुंचाने के लिये डॉ० कविन शाह तथा भद्रंकरोदय शिक्षण ट्रस्ट बधाई के पात्र हैं। यह पुस्तक शोधार्थियों एवं सामान्य पाठकों दोनों के लिये समान रूप से उपयोगी एवं प्रत्येक पुस्तकालयों के लिये संग्रहणीय है । कवि पं० वीरविजय जी : एक अध्ययन, लेखक - डॉ० कविन शाह; प्रकाशक- कुसुम के ० ० शाह, ३ / १ अष्टमंगल अपार्टमेण्ट, आइस फैक्ट्री के सामने, बलीमोरा ३९६३२१; प्रथम संस्करण वि० सं० २०५५; आकार - रायल; पक्की बाइण्डिंग; पृ० १२+३६५; मूल्य- ११०/- रुपये । तपागच्छीय आचार्य विजयदेवसूरि के शिष्य और पट्टधर विजयसिंहसूरि हुए जिनके शिष्य सत्यविजयगणि से तपागच्छ की विजयसंविग्न शाखा अस्तित्त्व में आयी । सत्यविजयगणि के पश्चात् उनके पट्टधर कर्पूरविजय ने विजयसंविग्नशाखा का नेतृत्त्व सम्भाला। कर्पूरविजय के शिष्य क्षमाविजय हुए। जिनस्तवनचौवीसी के रचनाकार जसविजय इन्हीं के शिष्य थे। जसविजय के शिष्य शुभ विजय हुए। कवि पं० वीरविजय इन्हीं के शिष्य थे। इनके द्वारा रची गयी विभिन्न रचनाएँ उपलब्ध होती हैं जिनमें गौडी पार्श्वनाथना ढालियां, सुरसुन्दरीनो रास, स्थूलिभद्र शियलवेलि, चौमासी देव वंदन, चौंसठ प्रकारी पूजा, पैतालिस आगमनी पूजा, नवानुंप्रकारी पूजा, वारव्रतनी पूजा, पंचकल्याणकनी पूजा, शेठ मोतीशानी टूंकनां ढालियां, धम्मिलरास, चन्द्रशेखरनो रास आदि प्रमुख हैं। उक्त सभी रचनाएँ वि०सं० १८५३ से १९०५ के मध्य रची गयी हैं। प्रस्तुत पुस्तक ६ अध्यायों में विभक्त है। प्रथम अध्याय में १२ पृष्ठों में कवि का जीवन-परिचय, गुरु-परम्परा, रचनाओं आदि की सविस्तार सूची दी गयी है। द्वितीय अध्याय में जैन काव्यों के विभिन्न प्रकार के स्वरूपों का विवेचन है जिसके अन्तर्गत रास, विवाहलो, वेलि, दूहा, चैत्यवन्दन, स्तुति, स्तवन, पूजा स्वरूप, सज्झाय, हरियाली, लावणी, ढालियां, गहुंली और आरती की ८० पृष्ठों में सविस्तार चर्चा की गयी है। तृतीय अध्याय में वीरविजय की कृतियों का ११८ पृष्ठों में सविस्तार विवेचन किया गया है। चतुर्थ अध्याय में उनके प्रकीर्ण रचनाओं को रखा गया है। पञ्चम अध्याय में एक कवि के रूप में उनका मूल्यांकन किया गया है। छठा अध्याय उपसंहार स्वरूप है जिसके अन्तर्गत कवि का गुणानुवाद, सहायक ग्रन्थ-सूची आदि प्रस्तुत है । किसी भी रचनाकार की कृतियों का शोधपरक अध्ययन किस प्रकार किया जाये इस तथ्य का परिचय प्रस्तुत पुस्तक के अध्ययन से भली-भाँति लग सकता है। इस प्रकार का प्रामाणिक अध्ययन प्रस्तुत कर डॉ० कविन शाह ने विद्वत् जगत् के समक्ष के आदर्श प्रस्तुत किया है। ऐसे प्रामाणिक और तथ्यपरक अध्ययन प्रस्तुत करने के लिये लेखक बधाई के पात्र हैं । ग्रन्थ की साज-सज्जा अत्यन्त हृदयग्राही तथा मुद्रण निर्दोष है। ऐसे उपयोगी ग्रन्थ को अल्पमूल्य में प्रस्तुत कर प्रकाशक संस्था ने समाज पर महान् उपकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525043
Book TitleSramana 2001 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2001
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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