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________________ अथर्ववेद में जलविषयक अनेक मन्त्र हैं। पृथ्वी के माहात्म्य स्वरूप पृथ्वीसूक्त,३ कठोपनिषद् में वायु की महिमा तथा बृहदारण्यकोपनिषद्५ में वृक्ष-वनस्पतियों में जीवनत्व का उद्घोष है। समग्र वैदिक वाङ्मय में पञ्चमहाभूतों की पर्यावरणीय उपयोगिता का निदर्शन है। पौराणिक साहित्य, आयुर्वेद, चरक संहिता, वास्तुशास्त्र, कौटिल्य के अर्थशास्त्र तथा स्मृतिग्रन्थों में भी पर्यावरण चेतना दृष्टिगत होती है। भारतीय संस्कृति की द्वितीय धारा श्रमण संस्कृति के साहित्य में मनीषियों का चिन्तन केवल पर्यावरण चिन्तन ही नहीं है अपितु पर्यावरण संरक्षण का सूक्ष्म चिन्तन है। श्रमण धारा में जैन एवं बौद्ध साहित्य समाविष्ट है। गौतम बुद्ध ने जगत् एवं जीव को माना, धर्म की नैतिक व्याख्या की किन्तु सृष्टि सम्बन्धी विचार स्पष्ट नहीं किये।६ पर्यावरण रक्षण में जैन वाङ्मय का महत्त्वपूर्ण अवदान है। जैन वाङ्मय में प्राकृतिक तत्त्वों- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति में वैदिक वाङ्मय के समान देवत्व की नहीं, अपितु जीवत्व की अवधारणा है संसारिणस्त्रस-स्थावराः। पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थावराः। इस सूत्र में उमास्वामी ने कहा कि संसारी जीव त्रस और स्थावर दो प्रकार के होते हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति कायिक पाँच स्थावर (जीव) हैं। आचारांगसूत्र के प्रथम पाँच अध्यायों में षड्कायिक जीवों का विस्तृत वर्णन है। इतना ही नहीं समग्र जैन वाङ्मय में जीवतत्त्व का सूक्ष्म वैज्ञानिक वर्णन और वर्गीकरण है। जीव जातियों के अन्वेषण की चौदह मार्गणाएँ, जीवों के विकास के चौदह गुणस्थान और आध्यात्मिक दृष्टि से गुणदोषों के आधार जीव के भेदोपभेद का भी वर्णन समाविष्ट है।८ इस तरह समस्त लोक ही जीवतत्त्व से व्याप्त है और सम्पूर्ण पर्यावरण एक जीवन्त इकाई है। इसके प्रति स्वत्व और संरक्षण की भावना होनी चाहिये। आचारांग सूत्र में इस भावना की अत्यन्त मार्मिक अभिव्यक्ति है। यथा- “जिसे तू मारने, आज्ञा देने, परिताप देने, पकड़ने तथा प्राणहीन करने योग्य मानता है वह वास्तव में तू ही है। जो प्रतिबद्ध अर्थात् प्रज्ञावन्त है वह पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति एवं त्रस जीवों का हनन न स्वयं करता है और न करवाता है। सभी जीव संवेदनशील हैं अत: इनकी रक्षा करनी चाहिये, जो मारने योग्य हो, उसे भी मारना नहीं चाहिए। ____ अहिंसात्मक आचरणपूर्वक इस षट्कायिक पर्यावरणीय संस्कृति की रक्षा जैन सिद्धान्तों का मूलाधार है। उमास्वामी का प्रख्यात सूत्र ‘परस्परोपग्रहो जीवानाम्'१° सह अस्तित्व का प्रतिपादन करता है। पर्यावरण रक्षण में वृक्ष अत्यन्त सहायक ही नहीं, अपितु आवश्यक भी हैं। इस तथ्य को वैज्ञानिक भी स्वीकार करते हैं कि वृक्ष मनुष्य की उच्छ्वास कार्बनडाईऑक्साईड ग्रहण करते हैं और वृक्षों द्वारा उच्छवासित ऑक्सीजन मनुष्य ग्रहण करता है। ऑक्सीजन मनुष्य की प्राणवायु है। इस प्रकार दोनों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525043
Book TitleSramana 2001 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2001
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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