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________________ ४६ है कि तुर्कों ने भीनमाल तथा गुजरात में अणहिलवाड़ को भग्न कर डाला परन्तु वे सांचोर के वीर प्रभु की प्रतिमा को नहीं तोड़ पाये।४५ खरतरगच्छ की पिप्पलक शाखा के जिनशिवचन्द्रसूरि द्वारा रचित ऐतिहासिकरास को अगरचन्द नाहटा ने ऐतिहासिकजैनकाव्यसंग्रह में प्रकाशित किया है।४६ उनका सम्बन्ध भीनमाल, उदयपुर तथा आबू से रहा।। प्राचीनगुर्जरकाव्यसंग्रह में कवि आसिगरचित जीवदयारास और चन्दनबालारास भी प्रकाशित हैं। जीवदयारास सहजिगपुर पार्श्वनाथ मन्दिर में संवत् १२५७ में रचा गया था। इससे ज्ञात होता है कि कुमारपाल ने हेमचन्द्रसूरि से प्रभावित होकर कुमारविहार नामक जैन मन्दिर बनवाया था।४९ कवि ने जैन तीर्थों में शत्रुञ्जय, आबू, सांचोर, मोढेरा, फलवद्धि-पार्श्वनाथ और जालोर के कुमारविहार का उल्लेख किया है। कवि आसिग ने बाला मन्त्री तथा अपने मोसाल की भी चर्चा की है। उसने चन्दबालारास जालोर में ही रचा था।४८ खरतरगच्छीय जिनेश्वरसूरि ने भीमपल्ली में महावीर मन्दिर की प्रतिष्ठा सं० १३१७ में की थी। उनके सम्बन्ध में कवि सोममूर्तिगणि ने 'जिनेश्वरसूरिसंयमश्रीविवाहवर्णनरास' नामक ग्रन्थ ३३ पद्यों में रचा था४९ जिससे ज्ञात होता है कि जिनेश्वरसूरि का जन्म संवत् १२४५ में (मारोठ) हुआ। श्री जिनपतिसूरि के उपदेशों से प्रभावित होकर उन्हें वैराग्य हो गया। उनकी दीक्षा खेड़ में हुई थी। आचार्य पद प्राप्त होने पर वे जिनेश्वरसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए। इसके पश्चात् वे धर्म प्रचार करते हुए जालोर पहुंचे। वहाँ पर उन्होंने अपना अन्त समय निकट जानकर वाचनार्य प्रबोधमूर्ति को आचार्य पद पर आसीन कर उनका नाम जिनप्रबोधसूरि रखा। संवत् १३३१ में उनका निधन हुआ। तब कवि सोममूर्ति ने जिनप्रबोधसूरिबोलिका नामक १२ पद्यों की रचना की। उन्होंने जिनप्रबोधसूरिचच्चरी नामक १९ पद्यों की दूसरी रचना की। इसके अलावा गुर्वावलिरेलुआ शीर्षक ग्रन्थ में खरतरगच्छ की आचार्य परम्परा पर प्रकाश डाला है। जिनचन्द्रसूरि के सम्बन्ध में लखमसी ने जिनचन्द्रसूरिवर्णनरास की रचना की। इसमें जिनप्रबोधसूरि द्वारा खंभुकुमार नामक मन्त्री पुत्र को संवत् १३४१ में जालोर में दीक्षा देने का विवरण है, उन्होंने जिनचन्द्रसूरि के रूप में आचार्य पद प्राप्त किया। जालोर में उनके ही हाथों अजितनाथ जिनालय की प्रतिष्ठा हुई। अपभ्रंश के ग्रन्थों में विजयदेवसरि का शीलरास (जालोर) और समयसन्दरजी के सीतारामचौपाई उल्लेखनीय ग्रन्थ हैं। राजस्थानी एवं अपभ्रंश के ग्रन्थ गद्य और पद्य दोनों में हैं। इनमें मन्दिरों में सम्पन्न उत्सवों के अलावा आचार्यों की महिमा प्रदर्शित की गई है। ये ग्रन्थ इतिहास, भूगोल, तीर्थ, आचार्यों, श्रावकों इत्यादि के सम्बन्ध में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525043
Book TitleSramana 2001 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2001
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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