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________________ ८२ महानता और विपन्नता अनुभव कर आभूषणों को एक हजार आठ स्वर्ण मुद्राओं के साथ दासी के हाथ यशोमती को वापस भेज दिया। यशोमति निराधार अकेली कहाँ तक घर में रहती, उसने घर बेचकर पितृगृह में जाकर आश्रय लिया। अब श्रेष्ठीपुत्र धम्मिल को निर्धन ज्ञात कर अक्का ने उसका त्याग कर देने के लिए वसन्ततिलका से कहा । वह उसे सच्ची प्रीति के कारण छोड़ने को तैयार नहीं हुई। एक दिन अक्का ने मौका पाकर धम्मिल को एवं सबको खूब मद्यपान करा के दासियों द्वारा उसे सन्ध्या समय नगर के बाहर फेंकवा दिया। प्रातःकाल अपने को धूल लोटते हुए पाक जागृत दशा में विपन्न होने पर वेश्या संग को सर्वदा के लिए त्यागने में अक्का को अपना गुरु मानता हुआ अपने घर गया। माता-पिता की मृत्यु, हवेली का बिक्री हो जाना व यशोमती के पीहर चले जाना सुनकर खेदपूर्वक नगर के बाहर जाकर आत्मघात करने के लिए एक वन में चला गया। वन देवता ने खङ्गधार को केलपत्र सदृश कोमल कर दी। जब वह जीवन से तंग आकर अग्नि प्रवेश करने लगा तो उसे भी देवता ने शीतल कर दिया। मरणोपाय व्यर्थ होने से दिग्मूढ़ धम्मिल ने आकाशवाणी सुनी “जीवन्नरो भद्राणि पश्यति" और वह वन से लौट आया। इधर वसन्ततिलका भी धुम्मिल को न देखकर दुःखी होने लगी। उसने नियम ले लिया कि जब तक धम्मिल को नहीं देखूँगी. ताम्बूल भक्षण, आभूषण धारण और शृङ्गार नहीं करूँगी। इस प्रकार वियोगिनी अपने दुःख के दिन बिताने लगी। धम्मिलकुमार वन से निकल कर द्राक्षा मण्डप वाले बगीचे में गया। वहाँ गुण समूह के रोहणाचल सदृश तेजस्वी मुनि महाराज को देखा। उनके दर्शनों से उसकी पराभव व्यथा शान्त हो गई। मुनिश्री ने धर्मरत्न का पुष्टकारी उपदेश देते हुए गुणवर्मा (५) का दृष्टान्त सुनाया । धम्मिलकुमार ने कहा कि भगवन् मैने भी विषयेच्छा के कारण बहुत दुःख पाया है। मुनिश्री के पूछने पर उसने कहा- जिसने दुःख नहीं देखा वह पराये दुःख से कैसे दुःखी होगा और कैसे दुःख हरण करेगा? अतः कहने से क्या लाभ? मुनिश्री ने कहा -- मैंने दुःख भोगा है और दुःख हरण करने में समर्थ भी हूँ, अतः अपना दुःख प्रकट करो! धम्मिल ने वेश्या से पराभव प्राप्त अपना जीवनवृत्त सुनाया। मुनिराज ने भी अपने जीवन में प्राप्त कष्टों का वृतान्त कहते हुए बतलाया कि इस अगड़दत्त को मुझे ही समझना । सुख की आशा से स्त्रियों को स्वीकार करना भ्रान्ति, मोह, मूर्खता और कदाग्रहरूप है । मैंने इस प्रकार के अनेक कष्ट सहे अतः तुम भी स्त्रियों के पराभव से प्राप्त कष्टों से बचने के लिए धैर्यवान् बनना । मुनिराज से स्त्रियों के दोष सुनकर भी दुःखी धम्मिल भोगेच्छा क्षीण न होने से कहने लगा कि सभी स्त्रियाँ क्या एक सी ही होती हैं। मुनिराज ने कहा- स्त्रियाँ रत्नों की खान भी हैं जिनकी कोख से तीर्थङ्कर, चक्रवर्ती आदि उत्पन्न होते हैं वे निन्दापात्र Jain Education International For Private & Personal Use Only や www.jainelibrary.org
SR No.525043
Book TitleSramana 2001 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2001
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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