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________________ १६७ सूत्रोना रहस्यो, लेखक- मुनि मेघदर्शन विजय, प्रकाशक-पूर्वोक्त; प्रथम संस्करण १९९९ ई०; पृष्ठ ६+१७०; मूल्य ३०/ स्वरूप ऐश्वर्य केवलज्ञान अनुप्रेक्षा (गुजराती)- चिन्तक- श्री पन्नालाल जगजीवनदास गांधी; संकलक- श्री सूर्यवदन ठाकुरदास झवेरी; प्रकाशक- पद्मनन्दी प्रकाशन, गिरीशभाई ताराचन्द मेहता ५४/५६, रामबाड़ी, चौथा मार्ग, कालबादेवी, मुम्बई- ४०० ००२; आकार- डिमाई; पृष्ठ २४+२६८; मूल्य- स्वाध्याय. यशोधरचरितम्, लेखक- वादिराजसूरि, सम्पादक- डॉ० पन्नालाल जैन साहित्याचार्य, प्रकाशक- सन्मति प्रकाशन, नरेन्द्र सदन, ४ माला, ३६ डी, मुगभाट क्रास लेन, ठाकुरद्वार, मुम्बई- ४०० ००४, प्राप्ति स्थान- (१) जैन साहित्य केन्द्र, वर्णी गुरुकूल, पिसनहारी की मढ़िया, जबलपुर (म०प्र०) (२) श्री आचार्य शिवसागर दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, शान्तिवीरनगर, श्री महावीर जी (राजस्थान), (३) जैन गजट कार्यालय, नन्दीश्वर फ्लोर मिल्स, ऐशबाग, लखनऊ (उ०प्र०); मूल्य- प्रति १०/रुपये मात्र। प्रस्तुत कृति यशोधरचरित का कथानक उज्जैनी नरेश यशोधर और इनकी प्राणप्रिय साम्राज्ञी अमृतमती के जीवनवृत्त पर आधारित है, जो हमारे सामने विविध रूपों में आता है। यशोधर अपनी पत्नी अमृतमती के व्यवहार से क्षुब्ध होकर उदासीन जीवन व्यतीत करता है और इसका कारण माता द्वारा पूछे जाने पर वह दुःस्वप्न बताता है। माता इसके निवारणार्थ चण्डमारी के मन्दिर में बलि चढ़ाने की बात करती है। यशोधर का हृदय बलि का नाम सुनकर और आहत हुआ, लेकिन विवशतावश कृत्रिम कुक्कुट की बलि कुलदेवी को समर्पित कर दी गयी। रानी अमृतमती को ऐसा भान हुआ कि मेरे गोपनीयता का आभास राजा को हो गया है इसलिए वह संन्यास की बात कर रहा है। इसको छिपाने के लिये वह विष भोग द्वारा उन दोनों का प्राणान्त करा देती है। कृतिम कुक्कुट की भी बलि देने के कारण माता-पुत्र को अनेक जन्मों में पशुरूप में भटकना पड़ता है। प्रस्तुत काव्य में हिंसा के परिणाम पर एक विशद् तथ्य समाज के सामने उपस्थित किया गया है जिससे तत्कालीन समाज में हिंसा की बढ़ती प्रवृत्ति को अवरुद्ध किया जा सका। इस महाकाव्य में कथानक के माध्यम से घटना में अचानक परिवर्तन होता है और धर्म का अनुसरण कर वे तपयोग द्वारा देवयोनि को प्राप्त करते हैं। पुस्तक की साज-सज्जा आकर्षक एवं मुद्रण त्रुटिरहित है। अच्छे कागज पर मुद्रित इस ग्रन्थ का मूल्य अत्यल्प रखा गया है। यह पुस्तक शोधार्थियों एवं पुस्तकालयों के लिये पठनीय एवं संग्रहणीय है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525043
Book TitleSramana 2001 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2001
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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