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एक दिन वह अपने सशस्त्र साथियों के साथ धाड़ पार कर लूट-पाट करने निकला. यही उसकी आजीविका थी। सूर्यास्त तक सभी भील लोग छिपे रहे। सरभ को पुण्योदय से मुनियों के वचन स्मरण हुए और कुमार्ग चढ़े चित्त पर मुनि वचनों ने अंकुश का काम किया। वह अपने परपीड़क कार्यों को धिक्कारते हुए शस्त्रों का त्याग कर अकेला चल निकला। वह पापभीरु निराभिमानी होकर सदाचारी जीवन व्यतीत करने लगा। अन्त में समाधिपूर्वक मरकर कुशाग्रपुर के सेठ सुरेन्द्रदत्त के कुल में धम्मिल के रूप में उत्पन्न हआ। पूर्वभाव के दया परिणामों से तुम्हारा क्षीण वैभव भी पुन: पृष्ट हुआ। गुरु महाराज के वचनों से उसे पूर्वभव का स्मरण हो आया। वैराग्यपूर्ण हृदय से उसने अपने पुत्र पद्मनाभ को गृहभार सौपकर दीक्षा ले ली और ग्यारह अंगों का अभ्यास कर अप्रमत्त निरतिचार संयम आराधना कर अन्त में तीस दिन अनशन सल्लेखना पूर्वक धम्मिल मुनि ने अच्युत देवलोक में बाईस सागरोपम की आयुवाला देवत्व प्राप्त किया और वहाँ से महाविदेह में जन्म लेकर संयम आराधना कर मोक्ष प्राप्त करेंगे।
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