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किया है। यह पुस्तक निःसन्देह प्रत्येक पुस्तकालयों एवं गुर्जर साहित्य पर शोधकार्य करने वाले अध्येताओं के लिये अनिवार्य रूप से संग्रहणीय है।
हरियाणी : स्वरूप अने विभावना- लेखक- डॉ० कविन शाह; प्रकाशककुसुम के० शाह, ३/१, अष्टमंगल अपार्टमेण्ट, आइस फैक्टरी के सामने, बीलीमोरा ३९६३२१; प्रथम संस्करण ई०स० २०००; आकार- रायल; पक्की बाइण्डिंग, पृ० २८६; मूल्य- १००/- रुपये।
मध्यकालीन जैन साहित्य काव्य प्रकारों की विविधता की दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध है। इस समय के प्रचलित काव्य के प्रकारों में रास, फाग, विवाहलो, पवाडो आदि मुख्य हैं। जैनेतर-परम्परा में हिन्दी साहित्य के अन्तर्गत उलटबांसी नाम से सुन्दरदास, सूरदास, गोरखनाथ, कबीर साहब आदि ने एक अभिनव काव्य शैली का सफल प्रयोग किया। जैन कवियों ने भी इस शैली का प्रयोग किया और उसे 'हरियाणी' नाम दिया। ऐसे जैन रचनाकारों में देपाल, आनन्दघन जी, जसविजय जी, वीरविजय जी, रूपविजय जी, आचार्य बुद्धिसागर सूरि, ज्ञानविमल सूरि, कान्तिविजय जी, सुघनहर्ष, उदयरत्न, विनयसागर, दीपविजय, ज्ञानविजय, हर्षविजय, अजितसागर सूरि, सहजानन्दजी आदि मुख्य हैं।
प्रस्तुत पुस्तक ५ अध्यायों में विभक्त है। प्रथम अध्याय में हरियाणी का स्वरूप, द्वितीय अध्याय में हरियाणी के क्रमिक विकास और तृतीय अध्याय में विभिन्न जैन रचनाकारों की विभिन्न हरियाणी रचनाओं का मूल और उनका गुर्जरानुवाद प्रस्तुत है। चतुर्थ अध्याय हरियाणी; अवलोकन और पञ्चम अध्याय उपसंहारस्वरूप है। पुस्तक के अन्त में उपयोगी परिशिष्ट और सहायक ग्रन्थ-सूची इसकी महत्ता को और भी बढ़ा देते हैं। ग्रन्थ के प्रारम्भ में लेखक द्वारा दी गयी ५ पृष्ठों की प्रस्तावना भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। विद्वान् लेखक की अन्य रचनाओं के समान प्रस्तुत कृति का भी निःसन्देह विद्वद्जगत् में अपूर्व स्वागत होगा। ऐसे सुन्दर ग्रन्थ के प्रणयन और उसके प्रकाशन के लिये लेखक और प्रकाशक दोनों ही बधाई के पात्र हैं।
कविराज दीपविजय, लेखक- डॉ० कविन शाह, प्रकाशक- पूर्वोक्त, प्रथम संस्करण वि०सं० २०५४; आकार- रायल; पृष्ठ २२+४१०; पक्की बाइण्डिंग प्लास्टिक कवरयुक्त; मूल्य- ९०/- रुपये।
श्रावककवि मनसखलाल, लेखक- डॉ० कविन शाह; प्रकाशक- पूर्वोक्त, प्रथम संस्करण वि०सं० २०५५/ई० सन् १९९९; पृष्ठ १२+१५४; मूल्य- ५०/रुपये।
तपागच्छ में समय-समय पर हुए अनेक प्रसिद्ध रचनाकारों में कविराज दीपविजय जी का नाम उल्लेखनीय है। इनका समय विक्रम संवत् का १९वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध
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