Book Title: Sramana 2001 01
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 168
________________ First Ed. 1999, Size - Dimy, pp. 6+116; Prise Rs. 65/-. स्व० प्रो० एच०सी० भयाणी प्राकृत और अपभ्रंश भाषा के विश्वविख्यात् विद्वान् रहे हैं। उन्होंने कवि अब्दुलरहमानकृत सन्देशरासक का आधुनिक ढंग से सम्पादन और टिप्पणियाँ देते हुए आंग्ल और गुर्जर भाषा में अनुवाद प्रस्तुत किया है। साथ ही लगभग ६० पृष्ठों की भूमिका में सन्देशरासक की व्याकरणिक विशेषताओं को स्पष्ट किया है। यह ग्रन्थ प्रो० भयाणी के गम्भीर वैदुष्य का परिचायक है । यह कदाचित उनकी अन्तिम कृति है। अपभ्रंश भाषा के शोधार्थियों को यह कृति निश्चित ही उपादेय सिद्ध होगी। १६२ रिट्ठनेमिचरिउ (भाग ४; उत्तरकंडु) सम्पादक - प्रो० रामसिंह तोमर, प्रकाशकप्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, अहमदाबाद- ३८०००९ प्रथम संस्करण २००० ई०; आकार - डिमाई; पृष्ठ ८+११२; मूल्य ७५/- रुपये। प्रस्तुत लघु पुस्तिका अपभ्रंश भाषा के प्रसिद्ध कवि स्वयम्भूदेव के रिट्ठनेमिचरिउ के ९३ से १०३ सन्धि तक का सम्पादित भाग है । रिठ्ठनेमिचरिउ के उत्कण्डु के ९३ से ९९ तक की सन्धियों की रचना स्वयम्भू ने स्वयं की थी और १०० से १०४ तक की उनके सुपुत्र त्रिभुवन ने रची थी। उसके बाद की सन्धियाँ त्रिभुवन और भट्टारक यक्षकीर्ति द्वारा रचित है । अस्वस्थतावश कदाचित स्वयम्भू अपना उक्त ग्रन्थ पूर्ण नहीं कर पाये थे । प्रो० रामसिंह तोमर ने भट्टारक यक्षकीर्ति द्वारा रचित भाग को छोड़कर मात्र त्रिभुवन द्वारा रचित अंश को ही अपने सम्पादन का अंश बनाया है। इन सन्धियों को प्रो० भयाणी ने छन्द और व्याकरण की दृष्टि से परिपूर्ण किया है । सन्धि १०४ प्रतिलिपिकार की भूलों से भरी रही है इसलिये उसे यहाँ छोड़ दिया गया है। उत्तरकंडु का यह सुन्दर सम्पादन अपभ्रंश भाषा के पाठकों के लिये निश्चित ही उपयोगी सिद्ध होगा । India's Rebirth (A selection form Sri Aurobindo's writings, talks and speeches) Publishers-- Institute De Recherches Evolutives, Paris & Mira Aditi, Mysore; Second Edition 1997, Size-Dimay, pp. 271; Prise Rs.90/-. This book presents Sri Aurobindo's vision of India as it grecce from his retern from England in 1893. It covers the brief chronological selection from all that he said or wrote on India, her soul or her destiny. In his opinion, it will have to follow if we intend to overcome the deep-rooted obestacles standing in the way of her rebirth. At the end of the book the indices have been provided for ready references. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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