Book Title: Sramana 2001 01
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 81
________________ momsun darAurmerol RPUBSul भंवरलाल नाहटा जिनवाणी द्रव्यानुयोग आदि चार भागों में विभक्त है, जिसमें जनसाधारण के लिए उपदेशादि द्वारा बोधदायक कथानुयोग का अधिकारिक प्रचार हुआ। हृदय स्पर्शी उदाहरणों द्वारा श्रोता के हृदय में तुरन्त असर होता है और जनता सदाचरण एवं धर्मध्यान की ओर विशेष प्रवृत्त हो जाती है। यही कारण है कि जैन विद्वानों ने हजारों-हजार कथाओं का संकलन किया है जिनके अन्त में आत्मा के सुख और कल्याण के लिए परमोपयोगी तत्त्व बतलाया गया है। प्रतिदिन के व्याख्यान में कठिन तत्त्वज्ञान का वितरण करने वाले गुरुजन भावनाधिकार में प्राय: कथा साहित्य के आश्रय द्वारा जनता को आकृष्ट करते हैं। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और मरु-गुर्जरी हिन्दी देश्य भाषा में गुफिंत प्रचुर साहित्य की उपलब्धि इसका प्रबल प्रमाण है। __अंचल गच्छ के विद्वान् साहित्यकार महाकवि श्री जयशेखर सूरि ने सं० १४६२ में धम्मिलकुमारचरित्र की ३५०३ श्लोकों में रचना की है। साध्वी श्री पुण्योदयाश्री जी की शिष्या साध्वीश्री मोक्षगुणा श्री जी महाराज ने महाकवि जयशेखर सूरि के साहित्य पर शोध हेतु विषय चुना और बम्बई विश्वविद्यालय के गुजराती विभागाध्यक्ष प्रो० रमणलाल चीमनलाल शाह के कुशल मार्गदर्शन में महानिबन्ध लिखकर प्रस्तुत किया। इस ग्रन्थ को दो भागों में आर्य जय कल्याण केन्द्र, बम्बई ने प्रकाशित किया है, जिसके प्रथम भाग में धम्मिलकुमारचरित्र का सार संक्षेप प्रकाशित है। धम्मिलकुमारचरित्र की कथा परम्परा अति प्राचीन है। प्राकृत भाषा में धर्मदासगणि ने वसदेवहिण्डी में धम्मिलहिण्डी सविस्तार विक्रम की सातवीं शताब्दी में रची है। सं० १५९१ में सोमविमलसूरि ने मध्यकालीन गुजराती में धम्मिलरास की रचना की। सं० १७१५ में कवि ज्ञानसागर ने एक हजार से अधिक गाथाओं में तथा सं० १८९६ में कवि वीरविजय ने ३६०० कड़ी परिमित धम्मिलकुमाररास रचा है। जयशेखरसूरि ने, जो संस्कृत रचना की है, उसका मूल श्रोत अवश्य ही अति प्राचीन है और वह २५०० वर्ष प्राचीन सम्भवित है। कवि वीरविजय ने इसका सम्बन्ध भगवान् महावीर के उपदेशों से जोड़ा है। प्राकृत रचनाओं के बाद और जयशेखरसूरि के बीच एतद्विषयक रचनाएँ अवश्य हुई होंगी पर वे उपलब्ध नहीं हैं। यह कथा धम्मिल कुमार *. ४, जगमोहन मल्लिक लेन, कलकत्ता ७००००७. . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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