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अब सुरेन्द्रदत्त के गृह भार वहन करने में समर्थ हो जाने से उसे सब कुछ सौंप कर सेठ समद्रदत्त ने मोक्ष लक्ष्मी, प्राप्त्यर्थ गुरु महाराज के पास भागवती दीक्षा लेकर तपश्चरण करते हुए समाधिपूर्वक स्वर्ग प्राप्त किया।
__ इधर अमित्रदमन राजकुमार ने भी इन्द्र की भाँति पराक्रमी होकर पिताश्री की मृत्यु के बाद राज्य भार संभाला और अपने मित्र सुरेन्द्रदत्त को नगर सेठ का पद दिया। सुभद्रा द्वारा धर्म कार्य विस्मृत हो जाने से अधिष्ठाता देवों ने उसे शिक्षा देने के लिए उसकी गर्भोत्पत्ति रोक दी।
__एक दिन सुभद्रा आँगन में बैठी थी तो उसने गली साफ करने वाली स्त्री जिसके तीन-चार बालक थे, जिन्हें देखकर अपने बन्ध्यत्व पर चिन्तित होकर स्वयं को निर्भागी अनुभव करने लगी। विचारों में अपनी हीनता की भावधारा से मुख म्लान देखकर उसकी उदासीनता का कारण ज्ञात कर सुरेन्द्रदत्त ने ज्ञानी वैद्यों से औषध, तन्त्र-मन्त्रादि सारे उपाय किए। इतने ही में युगन्धर नामक ज्ञानी मुनिराज पधारे। उन्हें वन्दन कर धर्मोपदेश श्रवण कर जनता के चले जाने पर सुरेन्द्रदत्त ने अपनी प्रिया के साथ रथारूढ़ जाकर वन्दन किया और अपनी समस्या कही। मुनिराज ने आरम्भ-समारम्भ, सावध व्यापार की बात में दिलचस्पी न लेकर धर्म-ध्यान, जिनपूजा, दान-शील सम्बन्धी उपदेश दिया। सुभद्रा को अपने जिनदर्शन व धर्मकृत्यों का नियम भंग कर अवज्ञा की हुई याद आने पर उसे ही बंध्यत्व का कारण समझ कर गुरुवन्दन कर सीधी मन्दिर गई और पूजा पाठ कर अधिष्ठाता देवों से क्षमा याचना की। सुरेन्द्रदत्त भी धर्मराधना में लीन हो गया।
और अढ़ाई महोत्सव आदि करने लगा। अधिष्ठाता भी इन्हें धर्मध्यान में संलग्न देख प्रसन्न हो गए। सुभद्रा ने गर्भधारण किया, यथासमय पुत्र जन्म होने पर उत्सव कर उसका सार्थक नाम “धम्मिल'' रखा।
धम्मिल कुमार पाँच धायों से पाला जाकर कलाचार्य के पास अल्प समय में सर्वकलाओं में निष्णात हो गया। गुरु भगवन्तों के पास धर्मशास्त्र का भी पर्याप्त अभ्यास कर सूक्ष्म विचारों में प्रवीण हो गया। सुरेन्द्रदत्त उसके विवाह के योग्य होने से विचार करने लगा। पिता को योग्य कन्या की शोध में देखकर धम्मिल ने गोपालकवि (२) का दृष्टान्त देकर विवाह करने की अनिच्छा बतलाई। पिता के आग्रह से उसी नगर के दानवीर सेठ धनवसु की पत्नी धनदत्ता की पुत्री यशोमती के साथ विवाह सम्पन्न हुआ। वह विषय सुख को विष सदृश मानने लगा।
उसे विरक्त ज्ञात कर यशोमती ने अपनी माता के समक्ष उपेक्षित होने की बात की। माता ने उसे आस्वस्त कर सुभद्रा सेठाणी से पुत्री का दुःख कहा। सुभद्रा ने अपनी पति को उपालम्भ देते हुए तरुण धम्मिल के बालक की भाँति विद्याध्ययन में संलग्नता और गृहस्थ सम्बन्धी आचार-विचार विमुखता दूर करने के लिए प्रेरित किया। सुरेन्द्रदत्त
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