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नहीं हो सकतीं। उसने सती धनश्री (६) की कथा कह कर निवेदन किया मुझे भोगेच्छा समाप्त न होने से संसार के सुख फिर से मिले, ऐसा उपाय बतलावें। मुनिश्री अगड़दत्त ने छ: महीनों तक आयंबिल तप पूर्वक धर्माराधना करने का उपदेश दिया जिससे मनोवांछित लक्ष्मी की प्राप्ति हो।
धम्मिल द्रव्य मुनिवेष धारण कर भ्रमण करता हुआ किसी अपरिचित नगर में गया और एक मन्दिर में रहा। वह आयंबिल तप करता और जल के साथ मुट्ठी भर अन्न से अपना गुजारा करते हुए परीषह सहन करता हुआ प्राय: मौनपूर्वक अपना आचार-विचार पालन करने लगा।
इस प्रकार छ: मास पूर्ण किए। एक दिन दिव्य वाणी सुनी, “धम्मिल: तुम मनुष्य भव में भी देवों जैसा सुख भोग करोगे और तुम्हें विद्याधरादि की ३२ स्त्रियाँ प्राप्त होगी।" इस प्रकार दिव्य वाणी सुनकर चित्त मन्दिर में बैठे हुए रात्रि के अन्धकार में उसे किसी तापसी ने द्वार के पास आकर पुकारा, “यहाँ धम्मिलकुमार है?" उसने साश्चर्य उत्तर दिया हाँ, है, उस स्त्री ने कहा-आओ! इस रथ में बैठो, हमें चम्पापुरी जाना है। वह क्षणभर विचार कर मुनिवेश त्यागकर रथारूढ़ हो गया। वहाँ पहले से एक राजकन्या बैठी थी, तापसी भी बैठ गई। अन्धकार तो था ही एक दूसरे को न देख सके। प्रभात होते ही नदी किनारे रथ ठहरा, धम्मिल घोड़ों को पानी पिलाने ले गया। राजकन्या ने उसे देखते ही विस्मित होकर सोचा यह दुर्बल और दरिद्र श्यामवर्ण वाला पुरुष लगता है! उसके दुःखित उद्गार सुनकर भी धम्मिल ने घोड़ों को पानी पिला कर रथ को जोड़ा। राजकन्या के तिरस्कार करने पर भी धायमाता ने उसे शान्त किया। आगे चलते भोजन का समय होने पर धम्मिल ने रथ को रोककर कहा- आप लोग ठहरें, मैं गाँव में जाकर भोजन सामग्री ले आता हूँ।
गाँव में जाकर धम्मिल ने देखा, गाँव के अधिपति ठाकुर का घोड़ा वेदनाग्रस्त हो दुःख पा रहा है, उसने उपचार करके उसे स्वस्थ कर दिया। ठाकुर साहब ने प्रसन्न होकर धम्मिल को उतरने के लिए अपना मकान दे दिया। धम्मिल दोनों स्त्रियों को बुला लाया और तीनों भोजन कर विश्राम करने लगे। राजकन्या के निद्राधीन होने पर धम्मिल ने एकान्त में तापसी से राजकन्या का वृतान्त पूछा। उसने कहा यह कमला नामक राजकन्या मागधपुर के राजा अरिदमन की पुत्री है, मैं इसकी धायमाता हूँ। यह कमलाकुमारी पुरुषद्वेषिणी है, फिर भी एक दिन किसी पुरुष पर यह आसक्त हो गई, उसका नाम धम्मिल था। उसके साथ रात्रि में भूतघर (मठ) में आने का संकेत किया था, वह नहीं आया, तुम आ गए। कमला तुम्हारे से बिलकुल प्रेम नहीं अपितु द्वेष करती है।
धाय माता के परिचय पूछने पर उसने कहा, “मैं कुशाग्रपुर के सेठ सुरेन्द्रदत्त
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