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(पुण्य का सार दया है, मनुष्य जन्म का सार सत्कार्य है, विद्या का सार तत्त्व बुद्धि है तथा सुख का सार सन्तोष है।) ।
इस प्रकार अपने पत्रों का समाधान पाकर ध्यानपूर्वक देखने पर सुभद्रा ने सहपाठी सुरेन्द्रदत्त के अक्षरों को पहचान लिया, फिर सोचने लगी वह गुण का निधान और सौन्दर्य में कामदेव सदृश है, मुझे पसन्द करेगा कि नहीं? क्यों मैं परीक्षा करके वर पसन्द कर निर्णय करना चाहती थी, वह भी वैसे ही परीक्षापूर्णक निर्णय करना चाहता हो? __मैं तो मन्द बुद्धि हूँ, उनके प्रश्नों का उत्तर मैं कैसे दे पाऊँगी? वियोग दग्ध हो वह नगर में आते ही जिन मन्दिर में गई और भक्तिपूर्वक गद्-गद् होकर प्रार्थना की। उसने विचार किया अधिष्ठाता देव कृपा करें ताकि मैं स्वामी के प्रश्नों का सन्तोषजनक उत्तर दे सकूँ। वह वहाँ से घर चली गई।
सखियों द्वारा पिता सागरदत्त ने सुभद्रा का सुरेन्द्रदत्त के साथ विवाह का संकल्प ज्ञात कर सेठ समुद्रदत्त से कहलाया। सागरदत्त ने स्वीकार किया, किन्तु सुरेन्द्रदत्त ने कहा- आप धर्मदत्त (१) का दृष्टान्त सुनिये, बुद्धिमान् व्यक्ति परीक्षा किये बिना कन्या स्वीकार नहीं करते। उसने चार प्रश्न निम्न श्लोक में लिखकर दिए ताकि कन्या की परीक्षा हो जाय, मैं उत्तर देने वाली को ही स्वीकार करूँगा।
निश्चल: स्नेहलः कोऽत्र कः प्रकाशो निरन्तरः
को वा सर्वोत्तमो लाभः, किं च रूप भविस्वसं (निश्चल स्नेही कौन? निरन्तर प्रकाश कौन सा? सर्वोत्तम लाभ क्या? अविनश्वर रूप कौन सा है?
ये श्लोक सागर सेठ को भेजे गए। सुभद्रा ने अधिष्टायक देवों की सानिध्यता से तुरन्त प्रश्नों के उत्तरस्वरूप श्लोक लिख दिया
निश्चल स्नेहलो धर्मः चित्प्रकाशो निरन्तरः
विद्या सर्वोत्तमो लाभः शीलं रूप भविस्वसः (निश्चल स्नेह वाला धर्म है, निरन्तर प्रकाश वाला ज्ञान है, विद्या सबसे उत्तम लाभ और शील अविनश्वर रूप है।)
सुभद्रा से लेकर पिता ने वह श्लोक सुरेन्द्रदत्त को भेज दिया, उसे प्रश्नों का समाधान पाकर सन्तोष हो गया। उत्तम मुहूर्त में उनका परस्पर विवाह सम्बन्ध हो गया।
दोनों पति-पत्नी सम स्वभावी होने से सुखपूर्वक काल निर्गमन करने लगे। सुभद्रा ने नित्य जिन दर्शन करने का नियम लिया हुआ था, वह भी सुख में इतनी भूल गई कि घर रखी हुई जिन प्रतिमा को वन्दन करना भी उसे भी विस्मृत हो गया।
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