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से ज्ञात होता है कि श्रीनन्दिशिष्य उग्रादित्याचार्य ने प्राचीन त्रिकलिंग (वर्तमान में तेलंगाना) देशान्तर्गत वेंगी राज्य (गोदावरी जिले में वेड वेंगी नगर राजधानी थी) में स्थित “रामगिरि" में पूर्वी चालुक्य राजा विष्णुवर्धन 'चतुर्थ' (७६४-७९९) के शासनकाल में कल्याणकारक ग्रन्थ की रचना की। ये आदिपुराण रचयिता जिनसेन (७८३ ई०) के शिष्य थे। सम्भवत: गणितज्ञ महावीराचार्य (८५० ई०), धवलाकर, वीरसेनाचार्य (८१५ ई०) और शाकटायन इनके समकालीन थे।
कल्याणकारक सखाराम नेमचन्द्र ग्रन्थमाला, शोलापुर से १९४० ई० में प्रकाशित हुआ है। इस ग्रन्थ में २५ परिच्छेद और २ परिशिष्टाध्याय हैं। इसमें रसायनिक महत्व की बातें हैं। कल्याणकारक में रसविषयक एक स्वतन्त्र अध्याय चतुर्विंश परिच्छेद "रसायन विध्यधिकार" नाम दिया गया है। इसमें रस-पारद के उपयोग का वर्णन किया गया है। इस ग्रन्थ की तीन विशेषताएँ हैं। (१) इसमें केवल ऐसे औषधियों का वर्णन है जो वनस्पति या खनिज जगत् या उसके संसाधन से प्राप्त हो सकता है। (२) इस ग्रन्थ के अन्तिम हिताहिताध्याय में जैन मत के अनुसार मद्य, मांस और मधु का उपयोग अनुचित बताया गया है। (३) इसका आयुर्वेदिक विवरण भी जैनेतर ग्रन्थों से भिन्न है। यद्यपि यह त्रिदोषों पर आधारित है।६ यह अकेला ग्रन्थ उग्रादित्याचार्य को अमरत्व प्रदान करता है।
६. गुणाकर (वि० सं० १२९६/ई०स० १२३९)- ये श्वेताम्बर मुनि थे। ये गुजरात विशेषतः सौराष्ट्र प्रान्त के निवासी थे। इन्होंने नागार्जुनकृत आश्चर्ययोगमाला पर गुजराती भाषा में अमृतरत्नावली नामक टीका रची थी जिसकी हस्तप्रति भण्डारकर रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पूना में संरक्षित है।
७. श्री अनन्तदेवसूरिकृत रसचिन्तामणि (१४ वीं-१५ वीं शती)- यह ग्रन्थ संवत् १९६७ में श्री वेंकटेश्वर प्रेस, बम्बई द्वारा प्रकाशित हुआ था। यह लगभग ९०० श्लोकों में है। टोडरानन्द के आयुर्वेद सांख्य में इसे उद्धृत किया गया है। इसकी दो हस्तलिखित प्रतियाँ भण्डारकर ओरियण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पूना में संरक्षित हैं।
८. माणिक्यचन्द्र (१४-१५ वीं शती)- इनके द्वारा रचित रसावतार नामक रस सम्बन्धी ग्रन्थ मिलता है। इसकी हस्तलिखित प्रति यादव जी त्रिक्रमजी आचार्य के पास थी। भण्डाकर ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पूना में भी यह ग्रन्थ संग्रहीत है।
९. मेरुतुंग- इन्होंने कंकालयोगी द्वारा रचित रसाध्याय पर वि०सं० १४४३ में टीका की रचना की।
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