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इस तथ्य की पुष्टि कर्नाटक (कनड़) भाषा एवं संस्कृति के मनीषी विद्वान् जगद्दल सोमनाथ ने भी की है। उन्होंने पूज्यपाद द्वारा रचित कल्याणकारक ग्रन्थ का कनड़ भाषा में भाषानुवाद कर उसे कनड़ लिपि में लिप्यन्तरित किया था। १२ वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में रचित ग्रन्थ वसवराजीयम् में पूज्यपादकृत पूज्यपादीय ग्रन्थ का उल्लेख है। इस ग्रन्थ में पूज्यपादाचार्य द्वारा निर्मित अनेक रसकल्पों का उल्लेख निम्न प्रकार से है, जैसेसर्वज्वरादिहर गुटिका (पृष्ठ २९) शोफमुद्गर रस (पृष्ठ ८५) ज्वरगजाङ्कुश (पृष्ठ ३०) गंधकरसायनम् (पृष्ठ ११०) चण्डभानरस (पृष्ठ ३०)
रसेन्द्र गुटिका (पृष्ठ १४५) कालाग्निरुद्ररस (पृष्ठ ३३) नागेन्द्र गुटिका (पृष्ठ १६३) त्रिनेत्ररस (पृष्ठ ३४, १४३) मृतसंजीवनी गुटिका (पृष्ठ १९७) लोकनाथरस (पृष्ठ ७८)
शैलेन्द्ररस (पृष्ठ २१३) व्याधिहरणरस (पृष्ठ २३२) गरुडांजनम् (पृष्ठ २६६) पारदादि गुटिका (पृष्ठ २९१) स्थौल्यान्तकरस (पृष्ठ २७४)
शिमोगा जिलान्तर्गत हुम्मच क्षेत्र में क्रमांक ४६ के शिलालेख में पूज्यपाद का आयुर्वेदाचार्य के रूप में उल्लेख है। उपरोक्त उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि आचार्य पूज्यपाद का रसौषधि में योगदान बहुमूल्य रहा होगा। योगरत्नाकर में मृत संजीवनीवटी के निर्माण के प्रसंग में आचार्य पूज्यपाद का उल्लेख आविष्कारक के रूप में प्राप्त होता है। जैसेमूर्छा- प्रमोगरोगंच वान्ति पित्तं च नाशयेत्। मृत-संजीवनी नाम्ना पूज्यपादैरूदीरिता।।
(योगरत्नाकर २५/३) - इसी प्रकार चन्दनादिचूर्ण के सन्दर्भ में भी आचार्य पूज्यपाद का नाम आता है। कामलांश्च प्रमेहाश्च पित्तज्वरविनाशनम् चन्दनाद्यमिदं चूर्ण पूज्यपादेन् भाषितम्।।
(योगरत्नाकर २५/१) ५. कल्याणकारक और उसके कर्ता उप्रादित्याचार्य- दिगम्बर जैनाचार्यों द्वारा रचित आयुर्वेद या प्राणावाय के उपलब्ध ग्रन्थों में उग्रादित्याचार्य का कल्याणकारक नामक ग्रन्थ सबसे प्राचीन, मुख्य और महत्त्वपूर्ण है। ईस्वी सन् की आठवीं शताब्दी में प्रचलित चिकित्सा प्रयोगों और रसौषधियों से भिन्न और सर्वथा नवीन प्रयोग हमें इस ग्रन्थ में देखने को मिलता है। ग्रन्थ में प्राप्त प्रशस्ति एवं अन्य उद्धरणों
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