________________
६९
स्थानों के विभिन्न ग्रन्थागारों में संरक्षित हैं। इनका सम्पादन, प्रकाशन एवं अध्ययन अत्यन्त आवश्यक है।
प्रस्तुत निबन्ध के माध्यम से मैंने जैनाचार्यों का रसशास्त्र के विकास में किए गए योगदानों को क्रमबद्ध रूप में ऐतिहासिक ग्रन्थों के अध्ययन के आधार पर प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। विभिन्न जैन आचार्य एवं उनका योगदान
१. पादलिप्तसूरि (प्रथम-द्वितीय शती)- विशेषावश्यकभाष्य और निशीथचूर्णी में इनका उल्लेख मिलने से इनका काल प्रथम-द्वितीय शती ज्ञात होता है। इनका जीवनवृत्त प्रभावकचरित्र, प्रबन्यकोष और प्रबन्धचितामणि में विस्तार से मिलता है। तरंगवती, ज्योतिषकारण्डक प्रकीर्णक, निर्वाणकलिका और प्रश्नप्रकाश पादलिप्त के ग्रन्थ हैं। पदालिप्तसूरि सिद्धविद्या और रसायन कर्म में निपुण थे। आचार्य पादलिप्तसूरि ने गाहाजुअलेण से शुरू होने वाले वीरथम(?) की रचना की है और उसमें सुवर्ण सिद्धि तथा व्योमसिद्धि (आकाश गामिनीविद्या) का विवरण गुप्त रीति से दिया है। यह स्तव प्रकाशित है। प्रसिद्ध रसायनज्ञ नागार्जुन इनके शिष्य थे। पादलिप्त की सेवा करके इन्होंने सिद्ध विद्या और रसायन में निपुणता प्राप्त की थी। वे पादलिप्त के समान पादलेप द्वारा आकाश विचरण करते. थे।३
२. नागार्जुन, जैन सिद्ध नागार्जुन, (दूसरी एवं तीसरी शती)- प्रसिद्ध बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन (प्रथम शती ई०) एवं सिद्ध नागार्जुन (सातवीं शती के अतिरिक्त जैन परम्परा में भी नागार्जुन हुए हैं। जैन परम्परा में जिस नागार्जुन का वर्णन प्राप्त होता है वह पादलिप्त सूरि के शिष्य थे। इन्होंने तन्त्र-मन्त्र और रसविद्या में सिद्धियाँ प्राप्त की थीं। इनके जीवनवृत पर इन जैन ग्रन्थों में विवरण प्राप्त होता है-प्रभावक चरित्र, विविधतीर्थकल्प, प्रबन्धकोष, प्रबन्धचिन्तामणि, पुरातनप्रबन्धसंग्रह और पिण्डशद्धि की टीकाएँ। इन ग्रन्थों के विवरण से ज्ञात होता है कि नागार्जुन 'सौराष्ट्र' प्राप्त के अन्तर्गत ढंकगिरि के निवासी और पादलिप्त के शिष्य थे। परन्तु अलबिरूनी (११ वीं शती) ने अपने भारत वर्णन में नागार्जुन के सम्बन्ध में लिखा है- रसविद्या के नागार्जुन नामक प्रसिद्ध आचार्य हुए जो सौराष्ट्र में सोमनाथ के निकट दैहक में रहते थे। जैन नागार्जुन द्वारा प्रणीत रसशास्त्र के तीन ग्रन्थ मिलते हैं- योगरलमाला, लौहशाख और नागार्जुनीकल्प।
३. समन्तभद्र- दिगम्बर परम्परा में आचार्य समन्तभद्र का नाम स्मरणीय है। इनका काल ४ थी से ५ वीं शती समझा जाता है। जिनस्तुतिशतक के एक पद्य से ज्ञात होता है कि इनका मूल नाम शान्ति वर्मा था। समन्तभद्र वैद्यक और रसविद्या में निपुण थे।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org